शाम के ठीक छह बजते और ‘ढब्बड़.....ढब्बड़....ढब्बड़’ की हल्की सी सुनती आवाज मुझसे जरा फासले से होकर गुजर जाती. मैं उस बेंच पर कभी न भी मिलूं पर आवाज वक्त की पाबंद थी. उसे वहीं से गुजरना था और शांति को भंग करते हुए उसी लापरवाही से गुजरना था. मैं बस खीज के रह जाती, ‘दूसरी सड़क से नहीं निकल सकती यह लड़की!’ कुछ देर शांति से बैठने को यहां आओ उसमें भी ये ‘ढब्बड़-ढब्बड़! और ऊपर से उस लड़की का कंकर को ठोकर मारते हुए अपनी ही धुन में वहां से गुजरना.
मुझे लगता था जैसे वह मुझे चिढ़ाने के लिए यह सब करती है और अपने मकसद में हर रोज सफल होती है. हालत यह कि घड़ी की सुई के छह बजते ही मैं थोड़ा चिढ़कर उस तरफ देखने लगती थी, ‘आ गई!... ऐसा कैसे हो कसता है कि तुम ना आओ... तुम्हें तो आना ही है और ये डुगडुगी बजाते हुए यहां से गुजरना ही है.’
‘कूड़ा बीनने वाली!...उसे देखा है तुमने...और वो आवाज...इट्स सो इरीटेटिंग ध्रुव!’ ‘कौन सी लड़की... कैसी आवाज?’ ध्रुव ने पूछा. ‘अरे वो आवाज ढब्बड़...ढब्बड़...ढब्बड़...हुंह!’ ‘इसमें इरीटेट होने वाली क्या बात है. काम करती है वो अपना...जानबूझकर तुम्हें तंग करने तो नहीं ही आती है. प्लास्टिक की बोतलों में पैर लगेंगे तो आवाज तो होगी ही ना... तुम्हें तो सिर्फ उस जरा सी आवाज से इरीटेशन होती है और उसे बदबू से भी परेशानी नहीं...’
‘तो कोई और काम क्यूं नहीं कर लेती वो?’ मैंने कहा. ‘ये तो मैं नहीं जानता... हां मगर इतना पक्का है कि वो दिल से तो नहीं ही चाहती होगी कूड़ा बीनना!... कल खुद ही पूछ लेना उससे. कूड़ा क्यों बीनती हो कुछ और क्यों नहीं करती?....’ ‘मैंऽऽऽ?....मैं क्यों पूछूं... मुझे क्या....कुछ भी करे!...’ मैंने कहा.
ध्रुव मेरे इस जवाब पर काफी संजीदा हो गए थे. बोले, ‘यही तो मुश्किल है नीरा, कोई भी प्रॉब्लम हमारी तब तक नहीं बनती जब तक कि सीधे-सीधे सिर पर ना पड़े... मुझे क्या... इट्स वैरी किलिंग एटीटयूड... इसे बदलो नीरा...’
मेरी लंबी खामोशी के चलते हमारा बाहरी संवाद बंद हो गया था. लेकिन मेरा भीतरी संवाद शुरू हुआ तो फिर कुछ तय करके ही शांत हुआ.
अगली सुबह ध्रुव के दिल्ली चले जाने के बाद मैं शाम का इंतजार करने लगी उस लड़की को देखने के लिए. अजीब इत्तेफाक हुआ कि दिन भर की घटा मेरे पार्क जाने से ठीक एक घंटे पहले बरसने लगी और अगले पांच दिनों तक यही सिलसिला चलता रहा. अपनी बेचैनी दिल में दबाए मैं बालकनी में खड़ी हो गई. बालकनी से पार्क का एक बड़ा हिस्सा साफ नजर आता है. बारिश काफी तेज थी, लोग भीगने से बचने के लिए जल्दी-जल्दी इधर-उधर भाग रहे थे.
मेरी नजरें बूंदों के पारदर्शी परदों के पार, पार्क में उस लडकी़ को ढूंढ़ रही थीं. और जब वह नजर आई तो मुझे आश्चर्य हुआ, ‘इतनी बारिश में भी!....हांऽऽऽ शायद जरूरी कामों के लिए रेनी डे में हॉलीडे नहीं हुआ करता. उस लड़की की चाल में आज भी कोई हड़बड़ी नहीं थी. प्लास्टिक की बोतलें ढूढ़ती हुई वह आज भी पार्क में वैसे ही घूम रही थी.
पांच दिनों की बारिश के दौरान हर शाम को मैंने उसे उसी बेफिक्री और बेपरवाही से पार्क में बोतलें बीनते देखा. उसके पांव शायद घड़ी की सुंइयों से बंधे थे तभी तो छह बजे वह उसी बेंच के पास से गुजरती जहां मैं बैठती थी. 12-13 साल की उस लड़की को लेकर मेरे भीतर कुछ नया पनप रहा था. वो ‘ढब्बड़-ढब्बड़‘ की आवाज अब मुझे तंग नहीं करती थी बल्कि मेरे लिए अलार्म का काम करती थी. वह आवाज कानों में पड़ती और मैं उस तरफ देखने लगती. उसके तेल लगे बालों में सीधी मांग ऐसे लगती, मानो कोई बिल्कुल सीधी जाती सड़क अचानक से खत्म हो जाए! बगलों से थोड़ी नीचे तक लटकती दो चोटियों में गूथे चौड़े हरे रिबन के फूल कितने फबते थे उसके ऊपर. लगता था जैसे कह रहे हों ‘कौन कहता है हरे रंग के फूल नही होते, देखो मेरे पास हैं!... और कभी मुरझाते भी नहीं!’
हल्का सांवला रंग, साधारण नैन-नक्श और गोल चेहरा. होठों पर हर नई फिल्म का गाना ऐसे बजता रहता था जैसे एफएम बज रहा हो. कूड़ा बीनने के बावजूद भी साफ कपड़े पहनने का उसे जबरदस्त शौक था. सब कुछ साधारण लेकिन कुल मिलाकर वो असाधारण लगती थी. एक अजीब सी कशिश थी उसमें, उसके दो हरे फूलों में.
एक दिन पूछ ही लिया मैंने उससे, ‘तुम्हारा घर कहां है?’ ‘कईं नईं!’ उसने तपाक से कहा. ‘कहीं नहीं?... फिर रहती कहां हो?’ ‘वो सटेसन के पीछे कई डिब्बे हैं रेलगाड़ी के वईं रैती हूं!’ ‘तुम्हारे मां-बाप...??’ ‘वे बी नईं हैं. कई औरतों के साथ वईं रैती हूं..!’ सवाल-जवाब के हल्के-फुलके दौर तब चलते थे जब मैं घर से प्लास्टिक का कोई बेकार सामान उसे देने के लिए पार्क उठा लाती. सामान क्या था, सच कहूं तो बात करने का बहाना भर था. मेरे लिए बात करने का बहाना उसके लिए रोटी की वजह. अपनी तरफ से उसने आंख उठाकर मुझे कभी नहीं देखा. मैं प्लास्टिक की बेकार बोतल नहीं थी शायद इसलिए!
दो चीजों पर उसकी नजर एक साथ रहती थी, एक तो प्लास्टिक व टीन के बेकार सामान पर दूसरी उस मोटी-सी कंकड़ पर जिसे उसके पैर ठोकर मार-मार कर अपने साथ-साथ आगे ले जाते थे. मोटी कंकड़ को मारी जाने वाली ठोकर से शायद उसे पैर के अंगूंठे में दर्द होता हो, लेकिन दर्द की शिकन उसके माथे पर मैंने कभी नहीं देखी. मैं उसकी जीवटता की कायल हो गई थी. मेरे और ध्रुव के बीच उसे लेकर जब-तब बातें हो जाती थीं. एक दिन जब ध्रुव ने कहा ‘शी इज फुल ऑफ लाइफ!’ तो मैंने कहा ‘हां उसे जीने की लत पड़ गई है!’
‘तुम्हारे हरे रिबन बहुत सुंदर लगते हैं’ एक दिन मैंने कह ही दिया उसे. बोली ‘तुम्हारे लिए बी ला देती पर तुम्हारे तो बाल ई नई हैं!’ ‘मेरे बाल ही नहीं हैं?’ ‘हैं तो पर इत्ते बालों में थोड़े ही ना लगेगा...’ ‘तुम्हें बदबू नहीं आती... तुम इतने कूड़ेदानों में जाती हो?’ ‘अब नई आती, पहले आती थी.’ ‘इससे अच्छा तो तुम घरों में काम कर लो.’ ‘किया था... इत्ते कम पैसे देते हैं... डांट और मार अलग पड़ती है... यहां कोई नई डांटता, मारता नई…’ कहते हुए वह चली गई उसी ढब्बड़-ढब्बड़ की आवाज के साथ.
बाकी सभी कचरा बीनने वालों से अलग, हरे रिबन वाली लड़की अपनी कचरे की बड़ी सी झोली आगे की तरफ लटकाए रहती थी. चलते हुए उसके घुटने उस झोली से टकराते और झोली में पड़े प्लास्टिक और टीन के बोतल व डब्बे ‘ढब्बड़-ढब्बड़’ का संगीत छेड़ देते. हालांकि उसे इससे दिक्कत होती थी चलने में, पर उसे ये दिक्कत पसंद थी, पता नहीं क्यूं?
इसी बीच 15 दिन के लिए मैं घर गई तो हर शाम छह बजे मन में एक अजीब सी छटपटाहट होती. मैं मिस करने लगी थी उसे. उसके दो हरे फूलों को, उसके ‘नई-वईं‘ बोलने को, उसके कंकड़ में ठोकर मारते पैरों को, उसके होठों से फूटते नए-नए गानों को और उसकी झोली से आने वाली ‘ढब्बड़-ढब्बड़’ की आवाज को... एक बार मैंने उससे पूछा, ‘स्कूल जाने का मन नहीं करता?’ बोली, ‘नई करता...हां गाना गाने का बहुत करता है’
15 दिन बाद जब मैं लोटी तो कुछ अनसोचा-सा परिवर्तन मिला. वो पुलक नहीं थी अब उसमें, ना ही उसके पैर किसी कंकड़ को अपने साथ ले जा रहे थे. उसके कपड़े भी इतने मैले मैंने पहले कभी नहीं देखे थे. गाना तो दूर वो गुनगुना भी नहीं रही थी.
मैं बहुत बेचैन थी उसे देखकर. एक दिन जब पूछा, ‘क्या हुआ तुम्हें... इतनी उदास क्यों हो... गाना भी नहीं गाती... कंकड़ में ठोकर भी नहीं मारती...’ मुझे ‘कुछ नईं’ का जवाब मिला था. मैं चाहकर भी उससे एक शब्द और नहीं बुलवा पाई.
अब उसका आने का समय और जगह दोनों ही अनिश्चित हो गए थे. वो किसी भी वक्त कहीं भी दिख जाती. कभी मेरे आने के वक्त तक जा रही होती थी या किसी-किसी दिन नहीं भी आती थी. गर्मी, सर्दी, बरसात में हर चीज से बेपरवाह घड़ी के कांटों की तरह चलते उसके पैर अब कभी भी, कहीं भी चलते-चलते रुक जाते थे, या कभी-कभी चलते ही नहीं थे.
और छह-सात महीनों बाद एक दिन वह अचानक से गायब हो गई. जब दो-महीने तक वह नहीं लौटी तो मैंने उसके लौटने की उम्मीद भी छोड़ दी. समझ ही नहीं आया कहां, क्या, किससे पूछूं... थाने में रिपोर्ट भी तो क्या लिखवाती ‘हरे रिबन वाली लड़की गुम हो गई!’ तमाम तरह ही दिमागी भाग-दौड़ के बाद मैं बैठी रही. पार्क में कचरा बटोरने अब कोई और आने लगा था. अधेड़ उम्र का. मैली चिकटी हुई शर्ट और पजामा पहने. खिचड़ी रंग, बिखरे बाल. फिर से उग आई दूब की तरह उगी काली-सफेद दाढ़ी. पीली ढीड भरी लाल-लाल आंखें!’
‘तेरह साल की बच्ची मां बनी!’ अखबार के पहले पेज पर बॉक्स में कुणाल की खबर छपी थी. मैं खबर पढ़ती गई, रोती गई. हरे रिबन वाली लड़की की तस्वीर पता नहीं क्यों जेहन में कौंधती चली गई. मैं उसी पल उठी और अस्पताल की तरफ गाड़ी बढाई. ‘निवेदिता’ नामक किसी संस्था ने उसे जिला अस्पताल में भर्ती कराया था. कुणाल आजकल महिला मुद्दों पर ज्यादा लिखने लगा है. अक्सर पहले पन्ने पर बॉक्स में अपनी खबर छपने पर पूछ लेता है, ‘पढ़ा आज का अखबार केसी लगी खबर?’ एक दिन मैंने कहा, ‘हां आजकल काफी फैशन में है महिला मुद्दों पर बात करना और लिखना.’ बोला ‘हांऽऽऽ...अब देखो ना बलात्कार की खबर के पाठक सबसे ज्यादा होते हैं! खबर थोड़ी चटपटी हो तो थोड़ा ठीक-सा रहता है!’
यह सुनते ही भीतर तक सुलग गई मैं और कहा, ‘हां जानती हूं औरतों के दर्द में चटपटापन कुछ ज्यादा ही होता है... दोनों काम सध जाते हैं तुम लोगों के. स्त्री मुद्दे पर बात भी हो जाती है और चटपटे का स्वाद भी चखने को मिल जाता है!’ पता नहीं क्यों उस दिन के बाद से कुणाल ने फोन नहीं किया.
मैंने पार्किंग में गाड़ी लगाते हुए जल्दी से अखबार टटोला और रिसेप्शन पर पूछकर ‘जच्चा-बच्चा वार्ड’ की तरफ बढ़ गइ. 13 साल की हरे रिबन वाली लड़की पांच दिन की अपनी बच्ची को, अपनी नन्हीं-नन्हीं छातियों से दूध पिलाने की कोशिश में जुटी थी. मुझे देखकर वो जोर से मुस्कुराई.
पांच दिन की बच्ची को गोद में लेकर पहले मैंने बड़ी बच्ची को चूमा और फिर नवजात बच्ची को. फिर जब बच्ची को लिटाया तो बिना औरत बने ही मां बनी बच्ची पूछ बैठी ‘...लेकिन इसका बाप कौन है?’ मुझे बगलें झांकना भी मुश्किल हो रहा था. मेरी खामोशी को ताड़कर उसने खुद ही जवाब दिया. बच्ची को चूमते हुए लाड़ से बोली ‘हंह...हम मां-बेटी दोनों बिन बाप के..!’
‘अभी आती हूं’ कहकर मैं तेजी से बाहर निकल आई. उसे डिस्चार्ज कराने की सारी फॉर्मेलिटीज पूरी कराके मैं वापस वार्ड में लौटी तो हरे रिबन वाली लड़की गोदी में लेकर सोई हुई बच्ची से तुतलाकर बात कर रही थी ‘अब मैं अतेले नईं दाऊंगी कूला बीनने...हम दोनों दाएंगे साथ में....थीक है?’
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