फेसबुक पर अपने परिचय में हमने लिखा है – ‘सत्याग्रह.कॉम एक स्वतंत्र हिंदी समाचार पोर्टल है. इसे बीते वर्षों में देश और दुनिया के सबसे बड़े पुरस्कार जीतने वाले संस्थान को स्थापित करने वाले पत्रकारों ने बनाया है. समाचारों के अलावा इसमें विशेष जमीनी रिपोर्ट और हिंदी के विशिष्ट लेखकों के आलेख भी हैं.’ यह सही तो है लेकिन कुछ उसी किस्म की जानकारी है जैसी आपको फोन पर किसी सेवादायी कंपनी के प्रतिनिधि से तब मिलती है जब आप किसी परेशानी में या जानकारी के लिए उसे फोन करते हैं.
लेकिन सत्याग्रह न तो पैसे लेकर सेवा देने वाली कंपनी है न ही हम रटे-रटाए शब्द बोलकर अपना और अपनी कंपनी का काम निकालने वाले सेल्समैन. सत्याग्रह इसलिए है क्योंकि इसमें काम करने वाले मुट्ठी भर लोग अपने काम को बेहद पवित्र और महत्वपूर्ण मानने वालों में से हैं.
सत्याग्रह शुरु करने के बारे में हमें मजबूरी में सोचना पड़ा. जैसी होनी चाहिए वैसी पत्रकारिता करने के रास्ते कम से कम हिंदी में तो अब गिनती के भी नहीं. ऐसे में जो हैं उन्हीं पर या तो आप चुपचाप चलते रहें या फिर वहां हर रोज कुछ सार्थक करने का संघर्ष करें और एक बार जीतने और 10 बार हारने की कड़वाहट में अपना जीवन गंवा दें. हमने खुद को और अच्छी पत्रकारिता के हमारे संकल्प को एक मौका देने के लिए एक नया रास्ता बनाने की ठान ली.
पारंपरिक पत्रकारिता आज इतने धन की मांग करती है और इसमें लाभ की संभावनाएं इतनी कम हैं कि पत्रकारिता तो छोड़िए, सिर्फ व्यवसाय के लिए भी कोई इसमें पैसा लगाने को तैयार नहीं. करोड़ों का निवेश कोई बड़ा कॉरपोरेट घराना, बड़ा राजनेता या दोनों का मेल ही कर सकते हैं. आजकल वे ऐसा दिल खोलकर कर भी रहे हैं. पहले ऐसा नहीं था. कम से कम इस पैमाने पर तो बिलकुल नहीं. एक तो मीडिया हाउस बनाना बड़ी सरदर्दी का काम था और दूसरा इसमें मुनाफा तब भी उतना नहीं था. अब हजारों करोड़ के घोटाले हैं तो उनसे बचने की कोशिशों के लिए 10-20-50-100 करो़ड़ का मीडिया हाउस खोलना बड़ी नहीं बल्कि जरूरी चीज बन गया है. सारदा घोटाले से जुड़े लोग इसका उदाहरण हैं. घोटालों से बचने के लिए न सही ‘बड़े लोग’ इसे प्रोपेगेंडा के या अपने विरोधियों से निपटने के औजार के रूप में भी इस्तेमाल कर सकते हैं. या किसी राजनीतिक पार्टी को उपकृत कर अपना काम निकालने के लिए भी.
चूंकि हम लोगों ने पिछली संस्था में अपना काम ठीक से किया था इसलिए एक नये प्रोजेक्ट के लिए आज के ‘परंपरागत’ तरीकों से पैसे जुटाना हमारे लिए भी मुश्किल नहीं था. लेकिन तब हम अपने उस मन के राजा कैसे होते जो सही और बढ़िया पत्रकारिता करना चाहता है. हमने थोड़े कम पैसों में (हालांकि हमारे लिए यह भी बहुत से बहुत ज्यादा है) इस राह चलने की ठानी, इंटरनेट का सहारा लिया और एक बिलकुल अलग ही तरह की वेबसाइट बनाई. हमने इसमें कुछ अलग ही तरह के लोगों को जोड़ा भी जिनमें पत्रकारों के अलावा इसके शुरुआती निवेशक भी शामिल हैं.
हमारे पास संसाधन उतने नहीं हैं, खर्चे, कम होने के बावजूद सामर्थ्य से कुछ ज्यादा हैं और इसलिए समय भी बहुत अधिक नहीं है. लेकिन पत्रकारिता और पाठकों की ऐसी पत्रकारिता को समझने की काबिलियत और उसे बढ़ावा देने की इच्छा में हमारा विश्वास अटूट है. अपनी किन्हीं गलतियों से हम टूट भी गए तो भी हमारा यह भरोसा अटूट ही रहने वाला है. हम यदि बने रहे तो पत्रकारिता से लेकर न जाने कितनी चीजें बदलेंगे. लेकिन यह तभी होगा जब आप भी ऐसा ही चाहेंगे.
संजय दुबे, संपादक

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