‘आप मुसलमानों के खिलाफ कभी कुछ क्यों नहीं लिखते?’ यह सवाल अक्सर इस लेखक की तरह के कुछ लोगों से किया जाता है. इस प्रश्न में छिपा हुआ आरोप है और एक धारणा कि आप हिंदुओं के विरुद्ध लिखते हैं. इसका उत्तर कैसे दिया जाए? यह सच है कि अभी तक के लिखे की जांच करें तो प्रायः भारत में बहुसंख्यकवाद को लेकर ही चिंता या क्षोभ मिलेगा. इसके कारण उन संगठनों या व्यक्तियों की आलोचना भी मिलेगी जो इस बहुसंख्यकवाद के प्रतिनिधि या प्रवक्ता हैं. क्या यह करना मुझ जैसे व्यक्ति के लिए स्वाभाविक है या होना चाहिए?

नाम से मुझे हिंदू ही माना जाएगा, मैं चाहे जितना उसे मानने से इनकार करूं. मेरी मित्र फराह नकवी ने एक बार मुझसे कहा था कि अगर फिरकावारना फसाद में फंसे तो तुम्हारा नाम तुम्हें हिंदू साबित करने के लिए काफी होगा और तुम्हारा भाग्य इस पर निर्भर होगा कि तुम फंसे किनके बीच हो - हिंदुओं के या मुसलमानों के? उस वक्त यह बहस कोई न करेगा कि मैं अभ्यासी हिंदू हूं या नहीं, नास्तिक हूं या संदेहवादी हूं!
फराह की बात से मुझे इनकार नहीं. जिस स्थिति की बात वे कर रही हैं, उसमें विचार-विमर्श, तर्क-विवेक की गुंजाइश नहीं होती. अगर वह होती तो फिर फसाद की नौबत ही क्यों आती! लेकिन जब उतना तनाव और हिंसा न हो तब तो हम इत्मीनान से इस अस्तित्वगत दुविधा पर बात कर सकते हैं.
एक समय ऐसा आया जब यह बात तार्किक लगने लगी कि असली हिंदू धर्म मूर्तियों, संस्कारों में नहीं बसता क्योंकि ये अंधविश्वास हैं. धर्म को विज्ञान की तरह अमूर्त और सार्वभौम और प्रत्येक परिस्थिति में समानुभव ही होना चाहिए.
हिंदूपन कई कारणों से मुझमें आया हो सकता है: रोज पूजा करके ही मुंह में दाना डालनेवाली या अनगिनत व्रत रखने वाली अपनी मां की वजह से जिसे हम अपने बड़े भाई के अनुकरण में अम्मी कहने लगे! या अपने ननिहाल-ददिहाल देवघर की बचपन की यात्राओं के कारण जिनमें शिव के मंदिर जाना, उन पर चढ़ाने के लिए सुबह-सुबह बेल-पत्र तोड़ना, रोज शिव मंदिर में शाम का कीर्तन सुनना और शिव का श्रृंगार देखना जो देवघर की जेल के कैदी तैयार करके भेजते रहे हैं! दुर्गा पूजा में प्राण प्रतिष्ठा से लेकर नवमी की भगवती के लिए दी जानेवाली रक्ताक्त बलि और दशमी के विसर्जन के जुलूस तक में शामिल होना या रोज सुबह पूजा करते समय मंत्र जाप करते हुए अपने दादा को सुनना! या सीवान की अपनी तुरहा टोली में होने वाले अखंड मानस-पाठ को खंडित न होने देने के लिए अपनी पारी संभालना! या फिर बचपन का अपना और फिर दूसरों का विशद और त्रासदायक यज्ञोपवीत संस्कार जिसके बिना कोई हिंदू खुद ब खुद ब्राह्मण नहीं बन सकता!
हिंदूपन के स्रोत ढेर सारे हैं और उनमें से कई की, हो सकता है कोई बाहरी चेतना न हो!
यह जो अवचेतन या अर्धचेतन में पड़ा हिंदूपन है, उसका मैंने कभी सामना किया हो, उससे कभी बहस की हो, याद नहीं आता. मुझ जैसे अनेकानेक होंगे जो बिना सोचे अपने भीतर हिंदूपन को वहन कर रहे होंगे. क्या ऐसे लोगों को सहज हिंदू या सहज मुसलमान या सिख कहा जा सकता है? या वे गैरजिम्मेदार धार्मिक हैं क्योंकि जो धर्म उनके व्यक्तित्व को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है, उसके प्रति वे कभी सचेत नहीं हुए और उसके प्रति कभी अपनी किसी जिम्मेवारी का कोई ख़याल उन्हें नहीं आया?
मेरे राम या मेरे कृष्ण अगर उसी तरह सबके हैं तो फिर मेरा उनसे ख़ास रिश्ता क्या रह गया? गोपियां उद्धव का जो तिरस्कार करती हैं, उसे याद कीजिए.
एक समय ऐसा आया जब यह बात तार्किक लगने लगी कि असली हिंदू धर्म मूर्तियों, संस्कारों में नहीं बसता क्योंकि ये अंधविश्वास हैं. धर्म को विज्ञान की तरह अमूर्त और सार्वभौम और प्रत्येक परिस्थिति में समानुभव ही होना चाहिए. क्या उन मूल या आधार तत्त्वों की खोज की जा सकती है जो असली, शुद्ध हिंदू धर्म को खोज निकालने में हमारी मदद करें जो भांति-भांति के आचार-विचार के नीचे कहीं दब गया है? क्या उसका कोई मूल स्रोत है, कोई गंगोत्री, जहां धर्म का नितांत विशुद्ध जल मिल सके?
इसके साथ ही यह प्रश्न भी है, जो बाद में उठा कि आखिरकार यह खोज कितनी उपयोगी है. क्या हमें किसी असली धर्म की खोज करनी ही चाहिए या उन सारे अनुभवों और क्रियाकलापों को धर्म की मान्यता और गरिमा देनी चाहिए जिनका अभ्यास अपनी साधारण, रोजमर्रा की ज़िंदगी में असंख्य लोग पीढ़ी दर पीढ़ी करते चले आ रहे हैं. ऐसे अनुभव प्रायः अत्यंत लघु हैं, कुछ एक व्यक्ति तक भी सीमित होंगे और कुछ अपने टोले या गांव तक.
कई लोगों के लिए उनकी कुल देवी या गृह देवी की आराधना ही पर्याप्त होगी और कइयों के लिए पीपल या सूर्य पर जल अर्पित करना ही वह होगा जिसे हम धार्मिक अनुभव कहते हैं. उनमें से शायद कई यह न चाहें कि वे जो कर रहे हैं, वही सब करने लगें! लघु को वृहत और स्थानीय को सार्वभौम करने में संभव है उन्हें अपनी निजता के छिन जाने से कुछ गवां बैठने की तकलीफ हो. मेरे राम या मेरे कृष्ण अगर उसी तरह सबके हैं तो फिर मेरा उनसे ख़ास रिश्ता क्या रह गया? गोपियां उद्धव का जो तिरस्कार करती हैं, उसे याद कीजिए.
मनुष्य अगर मनुष्य है तो वह अपने इस दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता कि वह जो है और जो कर रहा है उस पर सोचे और इस तरह कि अन्य को भी उसका पता चल सके.
हर किसी में नानक या बुद्ध या मुहम्मद साहब या यीशु या विवेकानंद जैसी महत्वाकांक्षा का होना ज़रूरी नहीं. लेकिन मनुष्य अगर मनुष्य है तो वह अपने इस दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता कि वह जो है और जो कर रहा है उस पर सोचे और इस तरह कि अन्य को भी उसका पता चल सके. उसे यह कहकर छुटकारा नहीं मिल सकता कि मैं धार्मिक हूं, लेकिन किस तरह का, यह बताना ज़रूरी नहीं समझता. इसीलिए हम सब पर अपने व्यक्तित्व के धार्मिक अंश को समझने और उसकी व्याख्या करने का दायित्व है. इसके लिए आवश्यक होगा कि अब तक धर्म के जो मानवीय अनुभव हैं, मैं उनसे परिचय प्राप्त करूं. क्या यह ज्ञान मुझे अपनी ‘अचेत’ या ‘सहज’ अवस्था से विचलित करता है या मुझे सजग करके उसके भीतर रहने का आत्मविश्वास और साधन देता है?
गांधी के हिंदू आत्मविश्वास को इस तरह से भी देखने की जरूरत है कि इस्लाम, ईसाइयत, सिख या यहूदीपन से उनके संपर्क ने न तो उनके अंदर कोई हीनता ग्रंथि गढ़ी न श्रेष्ठता का अहंकार. उन्होंने अपने ऊपर धार्मिक सुधार का जिम्मा भी वैसे नहीं लिया जैसे स्वामी दयानंद ने लिया था. उनकी रुचि उसे सार्वभौमिकता प्रदान करने की भी नहीं थी. गांधी की इस समझ पर भी हमने बहुत बात नहीं की है कि सारे धर्म सत्य तो हैं लेकिन अपर्याप्त हैं. यह अपर्याप्तता उनके मानवीय होने के कारण ही है, इसका अर्थ यह भी है कि प्रत्येक धर्म में हर नई पीढ़ी कुछ जोड़ सकती है जो उसका अपना हो उसी तरह दूसरे धर्मों से उसका परिचय या संसर्ग भी उसे बदल सकता है.
भारत के पहले आधुनिक हिंदू के रूप में विवेकानंद का नाम याद आता है लेकिन वे अपने वक्त में सभी हिंदुओं के बीच सहज स्वीकार्य नहीं थे. उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस किस प्रकार के हिंदू थे? आखिर उन्होंने ही तो युवक नरेन को धार्मिक अनुभव के रोमांच से परिचित कराया था. लेकिन रामकृष्ण को मस्जिद या गिरिजाघर में उपासना करने में भी परहेज न था. इनमें से कोई न तो हीनता-ग्रंथि, न श्रेष्ठता बोध से ग्रस्त थे.
मुझे और मुझ जैसे अनेक व्यक्ति, जिन्हें इन सबका हिंदूपन अनायास और अयाचित ही प्राप्त हो गया है, शायद सार्वभौमिकता की हिंसक आकांक्षावाले हिंदूपन के आक्रमण से विचलित अनुभव करते हैं और अपने भीतर के हिंदूपन की स्मृति को सुरक्षित रखना चाहते हैं. मैं नहीं कह सकता कि यह पूरा उत्तर है, लेकिन एक उत्तर यह हो सकता है. इस स्मृति के प्रति दायित्व बोध के कारण भी, जो वस्तुतः उन सबके प्रति कृतज्ञता की संवेदना की वजह से भी है जिनके माध्यम से यह अनुभव हम तक पहुंचा है, शायद हम वह लिखते हैं जिसे हिंदुओं के विरुद्ध समझा जाता जाता है. जो भी हो, हमें अभी इस पर और बात करनी होगी.
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