कई बार हमें अपने स्वभाव से बिलकुल विपरीत चीजें भली लगती हैं. वे हमें अपनी तरफ चुम्बकीय आकर्षण के साथ खींचती हैं, जैसे कोई जादू हो उनके होने में. विष्णु प्रभाकर (21 जून, 1912 - 11 अप्रैल, 2009) द्वारा लिखा गया शरतचंद्र का जीवनीपरक उपन्यास ‘आवारा मसीहा’ भी ठीक इन्हीं विपरीत ध्रुवों के आकर्षण का परिणाम-सा जान पड़ता है. कहां पक्के गांधीवादी, पूरे खद्दरधारी, बहुत हद तक आर्यसमाजी और नियमों से बंधकर जीनेवाले विष्णु प्रभाकर, कहां अपनी मनमर्जी चलनेवाले मनमौजी लेखक शरतचंद्र. शरतचंद्र का तो सारा लेखन उनकी इन्हीं मनमौज के वृतांतों से बुना और उसी पर खड़ा है.

शरत के स्त्री पात्र इतने मजबूत और विशाल से लगते हैं कि आम पाठकों से साथ विशेषकर महिला पाठकों के मन में शरत के लिए अगाध लगाव को समझा जा सकता है. वहीं विष्णु प्रभाकर खुद साहित्यकार और साहित्यानुरागी थे तो इस लिहाज से उनका झुकाव शरदचंद्र की तरफ हो सकता है फिर भी दोनों के निजी जीवन में इतना अंतराल है कि उनका इस बंगाली लेखक के लिए इस तरह का लगाव पहली नजर में बेहद हैरान करता है.

लोगों को यह अजीब लगता था कि एक गैर-बंगाली व्यक्ति शरतचंद्र की जीवनी लिखने के लिए इतना कष्ट उठा रहा है. जबकि स्वयं बांग्ला-भाषा में अभी तक उनकी कोई संपूर्ण और प्रामाणिक जीवनी नहीं है

यह लगाव दुनियावी नजरिए से अव्यवहारिक भी लग सकता है. इस संबंध में अचरज की सबसे बड़ी बात तो यही थी कि एक मसीजीवी मतलब लेखन के पैसों पर ही निर्भर रहने वाला कोई शख्स अपने जिंदगी के अनमोल 14 बरस बस इन्हीं खोजबीन और उधेड़बुन को कैसे दे सकता है, कि ज्ञात-अज्ञात इस कथा के सभी सूत्र उसके हाथ में हों, कोई भी गिरह अनसुलझी न रह जाए या फिर पाठक को इस कथासूत्र में कोई भी अपूर्णता और विरोधाभास नजर न आए. यदि हम आवारा मसीहा की रचना प्रक्रिया और खुद विष्णु प्रभाकर के व्यक्तित्व पर नजर डालें तो यह गुत्थी कुछ हद तक खुलती है कि वे तकरीबन डेढ़ दशक तक इस ‘साहित्यिक अभियान’ में कैसे जुटे रहे.

शरतचंद्र में यह गजब-सी बात थी कि वे जन-जन के प्रिय लेखक थे लेकिन सामाजिकतौर पर उनके साथ हमेशा बहिष्कृत सरीखा बर्ताव किया गया. ऐसे में विष्णु प्रभाकर के लिए आम लोगों से शरतचंद्र के बारे में कुछ विश्वसनीय बातें पता लगा पाना मुश्किल था. वहीं दूसरी तरफ जो लोग उनसे प्यार करते थे, वे या तो मुखर नहीं थे या फिर कोई सूत्र था ही नहीं उनके पास कि वे कुछ बताएं या जताएं. शरत का बहिष्कार करनेवाले लोगों का विष्णु प्रभाकर से कहना था - ‘छोड़िए महाराज, ऐसा भी क्या था उसके जीवन में जिसे पाठकों को बताए बिना आपको चैन नहीं, नितांत स्वच्छंद व्यक्ति का जीवन क्या किसी के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है?’ ऐसी और भी टिप्पणियां थीं - ‘उनके बारे में जो कुछ हम जानते हैं वह हमारे ही बीच रहे तो अच्छा. लोग इसे जानकर भी क्या करेंगे. किताबों से उनके मन में बसी वह कल्पना ही भ्रष्ट होगी बस.’ विष्णु प्रभाकर जी से यह भी कहा गया, ‘दो चार गुंडों-बदमाशों का जीवन देख लो करीब से, शरतचंद्र की जीवनी तैयार हो जाएगी.’

लोगों को यह भी अजीब लगता था कि एक गैर-बंगाली व्यक्ति शरतचंद्र की जीवनी लिखने के लिए इतना कष्ट उठा रहा है. जबकि स्वयं बांग्ला-भाषा में अभी तक उनकी कोई संपूर्ण और प्रामाणिक जीवनी नहीं है. गजब बात यह भी कि उनकी इस प्रामाणिक जीवनी लिखने के लिए प्रामाणिक स्त्रोतों की खोज में भटकने से पहले ही विष्णु जी ने बांग्ला भाषा सीखी थी. ऊपर हमने जिन बातों और दलीलों का जिक्र किया उन्हें सुनकर जाहिर है कि वे बहुत निराश होते थे, पर वे यह भी समझते थे की इस सबके पीछे कहीं-न-कहीं कुछ लोगों खासकर समकालीनों की ईर्ष्या भी थी कि उनका कद शरत के साहित्यिक कद के आगे दबा या कुचला जा रहा है.

शरतचंद्र को अपने लिए भ्रांतियों और  अफवाहों से घिरे रहने का शौक था. वे परले दर्जे के अड्डाबाज थे और इस अड्डेबाजी से रोज उनके बारे में नई-नई कहानियां निकलती रहती थीं

इन लोकोपवादों को फैलाने में शरतचंद्र का हाथ भी कुछ कम नहीं था. शरतचंद्र की यह आदत थी कि वे अपने बारे में कहीं भी कुछ भी बोल सकते थे. कई बार ये बातें सच होतीं तो कई बार निरी कहानी. वैसे भी कहानियां बनाने में उन्हें मजा तो आता ही था भले ही वे उन्हीं को छवि को खंडित क्यों न कर रही हों. शरत को इससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता था. उनकी प्रवृति बहुत जटिल थी. साधारण बातचीत में वे अमूमन अपने मन के भावों को ऊपर नहीं आने देते थे पर कपोल कल्पनाएं गढ़ने में उनका कोई सानी नहीं था.

शरतचंद्र को अपने लिए भ्रांतियों, अफवाहों और अपवादों से घिरे रहने का शौक था. वे परले दर्जे के अड्डाबाज थे और इस अड्डेबाजी से रोज उनके बारे में नई-नई कहानियां निकलती रहती थीं. वहीं अगर किसी ने इनकी सत्यता जानने के लिए उनसे ही पड़ताल की तो वे हंसकर कह देते थे, ‘न रे गल्प (कहानी) कहता हूं, सब गल्प मिथ्या, एकदम सत्य नहीं.’ वह कोई फिक्रमंद ही होता होगा जो इन कहानियों की तस्दीक उनसे करने जाए. अमूमन तो लोग सुनते और उसमें दो चार बातें और मिलाकर परोसते-उड़ाते. यूं भी उनके नशा करने और एक अनजान स्त्री के साथ यूं ही रहने को समाज में बुरी नजर से न देखने वाले लोग दुर्लभ ही थे. इस अनजान महिला के बारे में भी तरह-तरह के अनुमान आसपास के लोगों में थे. इनपर कभी उतनी स्पष्टता न आ पाती यदि विष्णु प्रभाकर इस घटनाक्रम को ‘आवारा मसीहा’ शामिल न करते. इस किताब के मुताबिक उस ‘अनजान’ स्त्री को शरतचन्द्र ने अपनी वसीयत में पत्नी कहा था और अपनी चल-अचल संपत्ति पर उनका ही हक माना था.

आवारा मसीहा के लिए सामग्री इकट्ठा करने के क्रम में विष्णु प्रभाकर सिर्फ शरत के जीवन प्रसंगों या फिर उनसे जुड़े लोगों की तलाश ही नहीं करते रहे बल्कि वे शरतचंद्र के किरदारों की तलाश में भी इधर-उधर खूब भटके. वे बिहार, बंगाल, बांग्लादेश, बर्मा और देश-विदेश के हर उस कोने में गए जहां से शरत का कभी कोई ताल्लुक या वास्ता रहा हो. तलाश के इसी क्रम में उन्होंने जाना कि भागलपुर न सिर्फ उनका बल्कि उनके कई पात्रों की कर्मस्थली है. उन्हें पता चला कि देवदास की चंद्रमुखी भी भागलपुर की ही थी. वह मंसूरगंज की प्रसिद्ध तवायफ कालिदासी थी जिसको शरतचंद्र ने देवदास में चंद्रमुखी नाम दिया. वह सचमुच चांद की तरह ही खूबसूरत दिखती थी.

विष्णु प्रभाकर शरतचंद्र के किरदारों की तलाश में भी यहां-वहां खूब भटके. इसी दौरान उन्हें पता चला कि देवदास की ‘चंद्रमुखी’ भागलपुर की रहने वाली थी

विष्णु प्रभाकर के पुत्र अतुल प्रभाकर बताते हैं, ‘उन दिनों बर्मा आना-जाना उतना आसान नहीं था. जाने के लिए इजाजत मिलना भी बहुत कठिन था. कोई सीधी हवाई सेवा नहीं थी. साथ में विमान सेवा महंगी भी बहुत हुआ करती थी. वे स्टीमर भी अब नहीं थे, जिनका वर्णन शरत साहित्य खासकर ‘पाथेरदाबी’ में आता है. फिर भी बगैर किसी आर्थिक सहयोग के उन्होंने यह सब किसी मिशन की तरह पूरा किया क्योंकि इसके बिना शरत की यह कहानी अधूरी ही होती.’

किसी ने विष्णु प्रभाकर से जब यह पूछा- ‘एक लेखक होकर आप अपनी स्वतंत्र कृति रचने के बजाय अपने जीवन के अनमोल 14 बरस किसी ऐसी कृति में क्यों खर्च करते रहे जो ठीक तरह से आपकी भी नहीं होनेवाली थी. आपकी ‘धरती अब भी घूम रही है’ की तुलना जब ‘उसने कहा था’ से की जाती है और उसे उसके बाद हिंदी साहित्य की दूसरी सर्वश्रेष्ठ कहानी कहा जाता है, इसके बावजूद आपको इसे (आवारा मसीहा) लिखने की आवश्यकता क्यों जान पड़ी.’ इसपर विष्णु प्रभाकर ने एक निश्छल हंसी हंसते हुए जो जवाब दिया, वह बहुत सिर्फ विष्णु जी ही नहीं बल्कि हर लेखक और पाठक के लिए महत्वपूर्ण है. उनका कहना था, ‘तीन लेखक हुए जिन्हें जनता दिलो जान से प्यार करती है. तुलसीदास, प्रेमचंद और शरतचंद्र. अमृत लाल नागर ने ‘मानस का हंस’ लिखकर तुलसी की छवि को निखार दिया. अमृत राय ने कलम का सिपाही लिखा, प्रेमचंद को हम नजदीक से देख सके. पर शरत के साथ तो कोई न्याय न हुआ. उनके ऊपर लिखनेवाला कोई न हुआ, न कुल-परिवार में और न कोई साहित्यप्रेमी ही. यह बात मुझे 24 घंटे बेचैन किए रहती थी इसीलिए मुझे लगा कि मुझे ही यह काम करना होगा.’

‘आवारा मसीहा’ की अभूतपूर्व ख्याति की वजह विष्णु प्रभाकर का शरत से वह अद्भुत लगाव तो रहा ही लेकिन इस काम में उनकी गांधीवादी निष्काम भावना की भी अहम भूमिका रही. ‘आवारा मसीहा’ जैसी किताबों बिना इस भाव के नहीं लिखी जा सकतीं.

यह उपन्यास जब ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में धारवाहिक रूप से आ रहा था, लोगों की इसके प्रति ललक तब भी देखी जा सकती थी. छपने के साथ ही यह ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए नामित हो गया था. यह अलग बात है कि उस साल वह पुरस्कार ‘तमस’ के लिए भीष्म साहनी को दिया गया. और विष्णु प्रभाकर को फिर साहित्य अकादमी उसके 20 साल बाद ‘अर्द्धनारीश्वर’ के लिए मिला. यह अलग बात है कि न ‘अर्धनारीश्वर’ आवारा मसीहा से अच्छी किताब थी और न ‘तमस’ ही इससे कहीं से श्रेष्ठतर. यह एक भूल थी जिसकी भरपाई अकादमी ने सालों बाद की. लेकिन यह विष्णु जी के चरित्र का यह बड़प्पन ही रहा कि उन्होंने इस पुरस्कार विवाद को लेकर न कभी मन छोटा किया, न भीष्म साहनी के प्रति उनके मन में कभी मलिनता आई.