‘पापा की परी हूं मैं’ या ‘मां का लाड़ला बिगड़ गया’ जैसी लाइनों पर गाने-फिल्में और टीवी सीरियल बनाने वाला हमारा मनोरंजन उद्योग इस सवाल की पहली वजह बनता है. ज्यादातर फिल्मों में बाप-बेटी या मां-बेटे का रिश्ता कुछ इसी तरह रचा जाता है. अगर आम जीवन में झांककर देखें तो बहुत बार पिता बेटी के बारे में यह कहते हुए दिखते हैं कि यह बिलकुल अपनी मां पर गई है और माएं यही राय बेटे के बारे में देती हैं. भावनात्मक रूप से भले ही बेटे मां के और बेटियां पिता के ज्यादा करीब हों लेकिन उन्हें समझने के मामले में यह बिलकुल उल्टा है. यानी कि मां बेटियों को ज्यादा अच्छे से और पिता बेटे को ज्यादा अच्छे से समझते हैं.

बच्चे को इस तरह समझने के पीछे उनका अनुभव काम करता है. मां या पिता ने एक लड़की या लड़के के रूप में एक लंबा जीवन जिया होता है और वे उस परिस्थिति विशेष में अपने ही लिंग के बच्चे की मनोदशा का अंदाजा ज्यादा अच्छे से लगा पाते हैं. इसलिए अक्सर ही उनकी जिद या कम जरूरी मांग पूरी करने में विपरीत लिंग का अभिभावक काम आ जाता है क्योंकि उन्हें बच्चे अपनी तरह के तर्कों से समझाकर अपनी बात मनवा सकते हैं.
पापा की परी होना तो बड़ी खूबसूरत-सी बात समझी जाती है लेकिन मां के लाडले को उतनी अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता
भारतीय समाज के नजरिए से देखें तो यह एक सामाजिक मज़बूरी भी नजर आ सकती है. बेटी चूंकि लड़की है, कमजोर है और उसे सुरक्षा की दरकार है इसलिए चाहे-अनचाहे भी उसे पिता की बेटी होना पड़ेगा. पिता को भी बेटे की तुलना में बेटी की सुरक्षा का ज्यादा ख्याल रखना होता है. सो वे बेटी की देखभाल में लगे नजर आते हैं. मां बेटे के मामले में यह चीज बिलकुल उलट हो जाती है. मां, वह भी एक महिला है, उसके लिए बड़ा हो रहा/हो चुका बेटा (पति के बाद) सहारा होता है. वह घर के भारी कामों में उसकी मदद कर सकता है या बाहर आने-जाने में उसके साथ जा सकता है. यह भी बाप-बेटी और मां-बेटे की जोड़ी के साथ में दिखाई देने के कारणों में से एक है.
इस बात का एक नकारात्मक पहलू यह भी है कि पापा की परी होना तो बड़ी खूबसूरत सी बात समझी जाती है लेकिन मां के लाड़ले को उतनी अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता. बेटी अपने सारे फैसले पिता की सलाह से ले तो यह समझा जाता है कि वह सही व्यक्ति से सही सलाह लेकर मजबूती से कोई काम कर रही है. इसके उलट बेटे का अपने निर्णयों के लिए मां पर निर्भर होना सही नज़रों से नही देखा जाएगा. उनका मां के घरेलू कामों में उसकी मदद करना भी अच्छा नहीं समझा जाता. इसके पीछे हमारे समाज की पितृसत्तात्मक सोच जिम्मेदार है.
तीन से छह साल की उम्र में बच्चे मां या पिता की ओर आकर्षित होना शुरू होते हैं, मनोविज्ञान में इस प्रवृत्ति को इडिपस या इलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स नाम दिया गया है
सामाजिक रूप से चाहे इसे सही समझा जाए या गलत लेकिन प्रकृति की यह श्रेष्ठतम व्यवस्था है जो किसी स्त्री या पुरुष के स्वस्थ जीवन की नींव डालती है. प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रॉयड ने किसी मनुष्य की यौन चेतना से संबंधित मानसिक विकास के पांच चरण बताए हैं. ये बच्चे के जन्म से लेकर किशोरावस्था तक की विकास प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं. तीन से छह साल का बच्चा इस विकास चरण के तीसरे हिस्से में होता है, जिसे लैंगिक चरण कहते हैं. इसमें बच्चा अलग-अलग लिंग के लोगों में अंतर करना और उनमें रूचि लेना शुरू करता है. इसी उम्र से बच्चे मां या पिता की ओर आकर्षित होना शुरू होते हैं, मनोविज्ञान में इस प्रवृत्ति को इडिपस या इलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स नाम दिया गया है.
बेटे के मां की तरफ झुकाव को इडिपस कॉम्प्लेक्स और बेटी के पिता की तरफ झुकाव को इलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स कहा जाता है. फ्रॉयड के अनुसार इडिपस (या इलेक्ट्रा) कॉम्प्लेक्स एक बच्चे की सहज इच्छा है जिसमें वह विपरीत लिंग के अभिभावक की तरफ आकर्षित होता है. यह एक तरह से यौन आकर्षण ही है. इस दौरान बच्चे के अवचेतन में यौन इच्छाएं पैदा होना शुरू होती हैं. हालांकि मस्तिष्क लगातार इन इच्छाओं का दमन कर रहा होता है. यह इच्छा वयस्कों की तरह कभी स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं की जा सकतीं. दरअसल यह प्रक्रिया दिमाग के अवचेतन हिस्से में चलती है और यह अवचेतन मस्तिष्क भी उस समय तक अल्पविकसित ही होता है. मनोविज्ञान के मुताबिक बेटी पिता को और बेटा मां को अगर ज्यादा पसंद करता है तो ऐसा करने की यही मुख्य वजह है.
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