इन दिनों सोशल मीडिया पर महाश्वेता देवी की एक कविता घूम रही है. इस नए वर्ष पर भी कई लोगों ने अपने मित्रों और परिचितों को इस कविता के साथ बधाई संदेश दिए. कविता कुछ इस तरह शुरू होती है- ‘आ गए तुम?/ द्वार खुला है, अंदर आओ..! / पर तनिक ठहरो / ड्योढी पर पड़े पायदान पर / अपना अहं झाड़ आना ! / मधुमालती लिपटी है मुंडेर से / अपनी नाराज़गी वहीं उड़ेल आना! / तुलसी के क्यारे में,’ / मन की चटकन चढ़ा आना / अपनी व्यस्तताएं, बाहर खूंटी पर ही टांग आना..! जूतों संग, हर नकारात्मकता उतार आना..!’

कविता कुछ और लंबी है. रिश्तों की लगातार बढ़ रही जटिलता और यांत्रिकता के बीच इस कविता में कुछ ऐसा है जो बिल्कुल पहले पाठ में ही छू लेता है. यही वजह है कि इस कविता को बहुत सारे आम लोग हाथों-हाथ ले रहे हैं और आगे बढ़ा रहे हैं.

हमारे समय में पाठ की जो हड़बड़ी है या फिर अध्ययन का जो अधकचरापन है, वह इतना प्रबल है कि कोई किसी के नाम पर कुछ भी लिख दे, सामने वाला उसे सही मान लेता है

लेकिन यह कविता महाश्वेता देवी की नहीं है. महाश्वेता देवी ने संभवतः अपने जीवन काल में कोई कविता नहीं लिखी- या कम से कम कविताओं के लिए वे जानी नहीं गईं. फिर यह कविता किसकी है? गूगल पर यह कविता महादेवी वर्मा की भी बताई जा रही है. हिंदी की सुख्यात टीवी ऐंकर नगमा सहर को किसी ने यह कविता महादेवी वर्मा की बताते हुए भेजी. लेकिन जिन्होंने महादेवी को पढ़ा है, वे जानते हैं कि यह उनका मुहावरा नहीं है. जाहिर है, महाश्वेता और महादेवी के बीच कुछ नाम साम्य इस अटकल की वजह रहा हो. लेकिन यह महादेवी की कविता भी नहीं है. मैंने अपने स्तर पर इसके लेखक को खोजने की कोशिश की. अभी तक की जानकारी के मुताबिक यह कविता भोपाल की एक अल्पख्यात कवयित्री निधि सक्सेना की है. कविता कोश में भी निधि सक्सेना की कविताओं में यह शामिल है. जाहिर है, निधि सक्सेना की यह कविता किसी ने किसी सोशल साइट पर देखी होगी और उसे कॉपी कर महाश्वेता देवी के नाम से आगे बढ़ा दिया होगा. संभव है, यह इरादतन न रहा हो, स्मृतिभ्रम का नतीजा रहा हो. लेकिन इस स्मृतिभ्रम ने महाश्वेता देवी के नाम पर एक कविता कुछ भरोसे के साथ जोड़ दी कि मेरी तरह के पाठक ने भी इसे उन्हीं की कविता मान लिया.

सोशल मीडिया पर यह दुर्घटना अनूठी नहीं है. कम से कम तीन कवि इस दुर्घटना के बुरी तरह शिकार हुए हैं. मिर्ज़ा गालिब, गुलज़ार और हरिवंश राय बच्चन के नाम पर न जाने कितनी सारी कविताएं चला दी गईं. इन नकली कविताओं को पकड़ने के लिए कविता का बहुत बड़ा मर्मज्ञ या इन लेखकों का विशेषज्ञ होने की भी ज़रूरत नहीं है. अगर आपने मिर्ज़ा ग़ालिब या हरिवंश राय बच्चन को ठीक से पढ़ा भर है तो आप इनके लहजे को पकड़ सकते हैं. यही बात असली और नकली गुलजार के बीच के फर्क पर लागू होती है. लेकिन हमारे समय में पाठ की जो हड़बड़ी है या फिर अध्ययन का जो अधकचरापन है, वह इतना प्रबल है कि कोई किसी के नाम पर कुछ भी लिख दे, सामने वाला उसे सही मान लेता है.

वैसे इन कवियों-महाकवियों को जिस तरह श्रेय दिए गए, उसी तरह कई कवियों से उनके श्रेय छीने भी गए. फेसबुक पर रचनाओं, टिप्पणियों, आलेखों और एकाध चुस्त पंक्तियों तक के नकल की प्रवृत्ति इतनी आम है कि यह समझना मुश्किल है कि वाकई कोई रचना किसकी है. कुछ अरसा पहले हिंदी की एक युवा कवयित्री दामिनी ने मासिक धर्म पर एक कविता लिखी जो अगले कई दिनों तक कम से कम तीन नामों से फेसबुक पर दिखाई पड़ती रही. कुछ मामलों में कुछ लेखक-लेखिकाओं ने बाक़ायदा मूल लेखकों से माफ़ी मांगी.

कोई दूसरा हमारे लिए सोचता है, कोई दूसरा हमारे लिए रचता है, कोई दूसरा हमारे लिए लिखता है. हम बस उसका पैसा चुकाते हैं. इसलिए पैसा हमारे समाज का सबसे बड़ा मूल्य बनता जा रहा है

लेकिन सोशल मीडिया पर जो कुछ हो रहा है, वह सिर्फ नकल का मामला नहीं है. वहां बहुत सारी रचनाएं बहुत सारे दूसरे नामों से आ रही हैं. इसकी एक वजह तो यह समझ में आती है कि इस सामाजिक मीडिया के भीतर भी जो व्यावसायिक तत्व हैं, जो हर सुबह लोगों को तरह-तरह के ‘कंटेंट’ मुहैया कराते हैं- हैप्पी बर्थडे से लेकर मदर्स डे, फादर्स डे तक पर भेजे जा सकने वाले संदेश, जीवन को अच्छे ढंग से नियोजित करने वाले उपदेश, कुछ चमत्कारी नज़र आने वाली सूक्तियां, ढेर सारे चुटकुले और कुछ प्रिय लगने वाली कविताएं- वे अपने अज्ञान में, अपने काम की गंभीरता को न समझते हुए या वाकई इसकी अगंभीरता को समझते हुए, जो कुछ लिखते और भेजते हैं, उसकी प्रामाणिकता की पुष्टि करना ज़रूरी नहीं समझते. उन्हें एहसास नहीं होता कि उनकी एक छोटी सी गलती किस तरह सामूहिक स्मृति के साथ खिलवाड़ करती है.

लेकिन इस तरह की चूकों की यह अकेली वजह नहीं है. जो लोग अपने स्मार्टफोन पर इस तरह के विचार, चुटकुले या अशआर आगे बढ़ाते हैं, वे ऐसे ठेठ और इकहरे उपभोक्ता हैं जिन्हें संवेदना भी ‘रेडीमेड’ चाहिए. एक समय था जब लोग खुद यह कोशिश करते थे कि वे अच्छी सी भाषा में अपने भाव व्यक्त करते हुए किसी को कोई संदेश दें. यह अलग बात है कि कई बार वह अच्छी सी भाषा कुछ नकली बन जाती थी, लेकिन अंततः वह उनके मन के भीतर से आती थी, किसी संवेदनात्मक प्रक्रिया का नतीजा होती थी. यही नहीं, इसमें लोगों को रचनात्मकता का भी एक सुख मिलता था. अब इसकी ज़रूरत नहीं है. हर मौक़े के लिए एक रेडीमेड संदेश है जिसकी क़ीमत अदा कर उसे आगे बढ़ाया जा सकता है. हर अवसर एक औपचारिकता है, अपने हिसाब-किताब से जुड़ा एक दिखावा, जिस पर एक एसएमएस या वाट्सऐप संदेश या फिर कार्ड ही भेज दिया जाना है.

इस नए बन रहे उपभोक्तावादी मानस के भीतर झांकेंगे तो हमें अपने समाज का एक वास्तविक संकट नज़र आएगा. अब हम एक सोचने और महसूस करने वाले समाज नहीं बचे हैं- कुछ रचनात्मक कर सकने वाले तो शायद कतई नहीं. कोई दूसरा हमारे लिए सोचता है, कोई दूसरा हमारे लिए रचता है, कोई दूसरा हमारे लिए लिखता है. हम बस उसका पैसा चुकाते हैं. इसलिए पैसा हमारे समाज का सबसे बड़ा मूल्य बनता जा रहा है. दूसरी बात यह कि अपनी अभिव्यक्तिविपन्नता में जो रेडीमेड विचार हम ले लेते हैं, वे दरअसल इस तरह नहीं तैयार किए जाते कि हमारे सोचने के ढंग को चुनौती दें, वे ज़्यादातर हमारे पूर्वग्रहों का पोषण करते हैं, क्योंकि इससे उन्हें स्वीकार्यता मिलती है. देशभक्ति, धर्मभक्ति, नैतिकता की पुरानी ठेकेदारियां सब इनमें पोषण पाती हैं. जाने-अनजाने हम पाते हैं कि हम एक ख़ास तरह की राजनीति के शिकार होते जा रहे हैं, एक ख़ास तरह की वर्चस्ववादी सर्वानुमति का भार ढो रहे हैं.

इस पूरे प्रसंग का एक तीसरा पक्ष भी है. हम चाहे जितने अभिव्यक्तिविपन्न होते जा रहे हों, अभिव्यक्ति के बिना हमारा काम चलना नहीं है. अंततः हमें वे रचनाएं चाहिए, वैसी कविताएं चाहिए जो हमें याद दिलाएं कि हम एक जीते-जागते मनुष्य हैं. ऐसी कोई कविता आती है तो लोग उसे हाथों-हाथ ले लेते हैं. वह उन्हें अपने संकटों का हल लगती है, समय द्वारा दिए गए ज़ख्मों पर फाहे की तरह महसूस होती है. इसलिए सारी चुटकुलेबाज़ी के बावजूद, सारे सतहीपन और सपाटपन के बाववजूद अच्छी कविताएं बची रहती हैं और वे घूमती भी रहती हैं- भले उनके लेखक बदल जाएं. निधि सक्सेना माय़ूस न हों- कुछ लोग हैं जो कविता की अंगुली पकड़ कर कवि को भी खोज निकालते हैं- और कविता का सफर बहुत लंबा होता है- वह बरसों-बरसों चलती जाती है, अपने कवि की पहचान गुम नहीं होने देती.