भारत सरकार के लिए कभी एक मिनट का समय इतना असमंजस भरा साबित नहीं हुआ होगा जितना छह फरवरी, 1964 को हुआ था. उस घटना के बारे में वरिष्ठ पत्रकार इंदर मल्होत्रा लिखते हैं, ‘फिर मिराक शाह (जम्मू-कश्मीर के आध्यात्मिक नेता) आगे निकलकर आए और उन्होंने पवित्र अवशेष तकरीबन एक मिनट तक अपनी आंखों के सामने रखा. यह साठ सेकंड का सस्पेंस अल्फ्रेड हिचकॉक (सस्पेंस थ्रिलर फिल्मों के प्रसिद्ध हॉलीवुड निर्देशक) को भी हैरानी में डाल सकता था. शाह ने अपना सिर हिलाया, फिर धीमी लेकिन साफ आवाज में कहा कि यही मू–ए-मुकद्दस है. इसके साथ वहां जुटी जनता में खुशी की लहर दौड़ गई. कश्मीर का एक संकट सुलझ गया था.’

नई दिल्ली की चिंता थी कि यदि मू-ए-मुकद्दस नहीं खोजा गया तो कहीं पूरे देश में सांप्रदायिक तनाव न फैल जाए. इस बीच पश्चिम बंगाल से दंगों और आगजनी की खबरें आने लगीं

जम्मू-कश्मीर में आज भी छोटी से छोटी घटना बड़ा तूफान खड़ा कर सकती है और 1963 में तो श्रीनगर की हजरतबल दरगाह से मू-ए-मुकद्दस (पैगंबर मोहम्मद का बाल) चोरी हुआ था. राजनीतिक संवेदनशीलता को एक किनारे रख दिया जाए तो भी मू-ए-मुकद्दस की चोरी से बड़ा हंगामा मचना ही था. जम्मू कश्मीर में जो कुछ हुआ वह अपेक्षित था लेकिन इसका असर बंगाल और पूर्वी पाकिस्तान ( आज का बांग्लादेश) में भी देखा जाएगा, यह किसी ने नहीं सोचा था. पूर्वी पाकिस्तान में तब कई मंदिरों पर हमले हुए और हिंदू समुदाय के कुछ लोग मारे भी गए. ऐसी ही घटनाएं पश्चिम बंगाल में भी हो रही थीं. तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा के लोकसभा में दिए एक वक्तव्य के मुताबिक पूर्वी पाकिस्तान में भड़के दंगों में 29 लोग मारे गए थे. अखबारों की खबरो के मुताबिक बंगाल में उस समय करीब 200 लोग मारे गए थे जिनमें दोनों समुदाय के लोग शामिल थे. इसके अलावा 50 हजार से ज्यादा लोग बेघरबार हो गए थे. इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपने एक लेख में बताते हैं कि इस घटना से उपजे तनाव के बाद हिंदू शरणार्थी पूर्वी पाकिस्तान से बंगाल आने लगे थे साथ ही यहां से मुसलमानों का पलायन शुरू हो गया था.

जो घटना कश्मीर से लेकर सुदूर बांग्लादेश तक सांप्रदायिक तनाव का कारण बन रही थी वह दिसंबर, 1963 की है. उस महीने की 26 तारीख की सुबह जब श्रीनगर के लोग उठे तो उन्होंने एक उड़ती-उड़ती खबर सुनी. खबर यह थी कि मू-ए-मुकद्दस चोरी हो गया. मू-ए-मुकद्दस यानी इस्लाम के पैगंबर हजरत मोहम्मद की दाढ़ी का बाल. पैगंबर के अवशेष दुनिया में गिनी-चुनी जगहों पर ही हैं और ये इस्लाम मानने वालों के लिए आस्था के सबसे बड़े प्रतीक हैं. दो-तीन घंटों के भीतर ही इस अफवाह के सच होने की पुष्टि हो गई. श्रीनगर पुलिस ने माना कि पैगंबर के पवित्र अवशेष दरगाह से चोरी हो गए हैं. यह खबर कुछ ही घंटों में आग की तरह पूरे राज्य में फैल गई और उसी दिन से श्रीनगर की सड़कों पर हजारों लोगों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया.

जम्मू-कश्मीर के लिए वह वैसे भी काफी उथलपुथल भरा वक्त था. राज्य के पूर्व प्रधानमंत्री या वजीरे आजम शेख अब्दुल्ला जेल में थे. इसके बाद कुछ समय तक नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता बख्शी गुलाम मोहम्मद उनकी जगह सरकार के मुखिया थे. माना जाता है कि नई दिल्ली द्वारा गुलाम मोहम्मद की वजीरे आजम के पद पर नियुक्ति से जनता में नाराजगी थी. नेशनल कॉन्फ्रेंस में कश्मीर की आजादी के समर्थक धड़े ने गुलाम मोहम्मद के खिलाफ एक आंदोलन छेड़ा हुआ था. इन परिस्थितियों में उन्हें अक्टूबर, 1964 में इस्तीफा देना पड़ा. जाते-जाते उन्होंने सुनिश्चित किया कि इस पद पर उनके करीबी शम्सुद्दीन वजीरे आजम बन जाएं. कश्मीर में जनमत समर्थक धड़ा इससे और आक्रोशित हो गया.

सीबीआई प्रमुख इस मामले की जांच पर पूरी नजर रखे हुए थे लेकिन हर दिन बीतने के साथ ऐसा लग रहा था कि यदि जांच किसी नतीजे पर नहीं पहुंची तो हालात विस्फोटक हो जाएंगे

मू-ए-मुकद्दस की चोरी इन परिस्थितियों में आग में घी डालने का काम कर रही थी. दो-तीन दिन के भीतर ही राज्य में हालात बेकाबू होने लगे. पाकिस्तानी मीडिया (पूर्वी पाकिस्तान में भी) में इस घटना की काफी आक्रामक रिपोर्टिंग हो रही थी. इधर नई दिल्ली की चिंता थी कि यदि मू-ए-मुकद्दस नहीं खोजा गया तो कहीं पूरे देश में सांप्रदायिक तनाव न फैल जाए. इस बीच पश्चिम बंगाल से दंगों और आगजनी की खबरें आने लगीं. कश्मीर मामले पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सामने यह सबसे बड़े संकटों में से था. स्थानीय प्रशासन से मसला हल न होते देख प्रधानमंत्री ने भारतीय गुप्तचर एजेंसी के प्रमुख बीएन मलिक को जांच के लिए श्रीनगर रवाना कर दिया.

देश के बाकी हिस्सों में इस घटना पर सांप्रदायिक तनाव देखा जा रहा था लेकिन जम्मू-कश्मीर में शुरुआत में ऐसा नहीं था. श्रीनगर में जब विरोध प्रदर्शन हुए तो मुसलमानों के साथ-साथ हिंदू और सिख भी इनमें शामिल थे. केंद्र सरकार के लिए तात्कालिक रूप से बस यही राहत की बात थी. इस समय जम्मू कश्मीर में एक नए संगठन – आवामी एक्शन कमेटी (एएसी) का भी गठन किया गया. इसके नेता 19 साल के मीरवाइज मौलवी फारुक थे जो हुर्रियत कॉन्फरेंस के नरमपंथी धड़े के अध्यक्ष मीरवाइज उमर फारुख के पिता थे. एएसी ने अपने गठन के साथ ही पूरे आंदोलन की कमान संभाल ली.

सीबीआई प्रमुख इस मामले की जांच पर पूरी नजर रखे हुए थे लेकिन हर दिन बीतने के साथ ऐसा लग रहा था कि यदि जांच किसी नतीजे पर नहीं पहुंची तो हालात विस्फोटक हो जाएंगे. कश्मीर का माहौल बिगाड़ने में पाकिस्तान कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहा था. वहां के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान रेडियो पाकिस्तान पर दोहरा रहे थे कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है.

‘सभी को पता था कि हजरतबल के खादिम को बलि का बकरा बनाया गया है. यह माना जाता है और बाद में इस बात की पुष्टि भी हुई कि पवित्र अवशेष को गायब करवाने के पीछे कोई साजिश नहीं थी’

अब तक इस घटना को नौ दिन बीत चुके थे. माहौल लगातार तनावपूर्ण बना हुआ था लेकिन चार जनवरी को अचानक सबकुछ बदल गया. दोपहर में रेडियो कश्मीर पर एक विशेष प्रसारण हुआ. राज्य के प्रधानमंत्री शमसुद्दीन ने आम जनता को संबोधित करते हुए कहा, ‘आज हमारे लिए ईद है. मैं आपको यह बताते हुए बहुत खुश हूं कि पवित्र अवशेष बरामद कर लिया गया है.’ यह बरामदगी किसी दूसरी जगह से नहीं हुई थी. मू-ए-मुकद्दस दरगाह में जहां से चोरी हुआ वहीं वापस रख दिया गया था. इसके बाद कुछ समय तक लोगों को इससे मतलब नहीं रहा कि पैगंबर का अवशेष वापस कैसे आया. लोगों के लिए उसकी वापसी की खबर ही सबसे बड़ी थी. शहर में तुरंत मिठाई बांटी जाने लगी. राज्य में उस दिन ईद जैसा माहौल बन गया.

लेकिन संकट पूरी तरह टला नहीं था. अब सवाल यह था कि पुलिस जिस मू-ए-मुकद्दस को खोजने का दावा कर रही है वह असली है कि नहीं इसकी जांच कैसे हो? एएसी की मांग थी कि सार्वजनिक रूप से इसकी शिनाख्त की जाए. ऐसा न होने पर उसने राज्य में विरोध प्रदर्शन जारी रखने की धमकी दी. सरकार इस विवाद को अब और आगे नहीं बढ़ाना चाहती थी. दोनों पक्षों के बीच तकरीबन एक महीने तक गतिरोध जारी रहा.

केंद्र सरकार की तरफ से इस विवाद को निपटाने जिम्मेदारी लालबहादुर शास्त्री को सौंप दी गई. उन्होंने इस मसले पर सभी पक्षों से बातचीत की जिसके बाद सरकार ने एएसी की मांग मान ली. छह फरवरी को जनता के सामने मू-ए-मुकद्दस के आम दीदार का कार्यक्रम आयोजित किया गया. उस दिन दरगाह के सामने सैकड़ों की संख्या में लोग जमा थे. सभी पक्षों की सहमति से जम्मू-कश्मीर के आध्यात्मिक नेता मिराक शाह कशानी को मू-ए-मुकद्दस की शिनाख्त के लिए चुना गया और जैसा हमने इस लेख की शुरुआत में बताया कि किस तरह शिनाख्त के पहले का वह एक मिनट राज्य और केंद्र दोनों के लिए काफी महत्वपूर्ण हो गया था.

कुछ लोगों का यह भी कहना है कि जम्मू-कश्मीर के पूर्व वजीरे आजम, पंडित नेहरू के बेहद करीबी थे इसलिए उनको इस पूरे प्रकरण से बचाया गया

अब यह तो निश्चित हो गया कि सीबीआई और पुलिस ने असली मू-ए-मुकद्दस ही बरामद किया था. उसे वापस दरगाह में स्थापित भी कर दिया गया. लेकिन कुछ सवाल अभी भी अनुत्तरित थे. मू-ए-मुकद्दस अपनी जगह वापस कैसे आया? यह चोरी किसने की थी और उसका मकसद क्या था?

गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा ने फरवरी, 1964 में लोकसभा में जो जानकारी दी उसके मुताबिक दरगाह के एक खादिम (दरगाह की देखरेख करने वाला व्यक्ति) ने यह पवित्र अवशेष चोरी किया था. इसमें उसके एक रिश्तेदार ने उसकी मदद की थी. नंदा के मुताबिक एक और व्यक्ति जो इस साजिश में शामिल था, वह पाकिस्तान आता-जाता रहता था. बाद में इन तीनों लोगों पर मुकदमा चलाया गया. नंदा ने यह भी बताया कि जब खादिम दरगाह में वह पवित्र अवशेष दोबारा रखने के बाद भाग रहा था तब उसे हिरासत में लिया गया. यह सरकार का पक्ष था जिसे एएसी ने कभी नहीं माना. इसकी भी एक वाजिब वजह थी. दरअसल यह बात स्पष्ट नहीं की जा रही थी कि चोरी के पीछे इन लोगों का मकसद क्या था.

उस समय लोगों की आम राय थी कि पवित्र अवशेष बख्शी गुलाम मोहम्मद ने गायब करवाया था. यह भी कहा जाता है कि मू-ए-मुकद्दस चोरी नहीं हुआ था बल्कि कुछ समय के लिए दरगाह से बाहर ले जाया गया. इंदर मल्होत्रा द इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं, ‘लगभग सभी को पता था कि हजरतबल के खादिम को बलि का बकरा बनाया गया है. यह माना जाता है और बाद में इस बात की पुष्टि भी हुई कि पवित्र अवशेष को गायब करवाने के पीछे कोई साजिश नहीं थी बल्कि बख्शी परिवार की एक मरणासन्न महिला इसका दीदार करना चाहती थी और इसीलिए इसे गायब किया गया.’ सरकार और सीबीआई ने कभी बख्शी गुलाम मोहम्मद को इस प्रकरण में शामिल नहीं बताया. कुछ लोगों का यह भी कहना है कि जम्मू-कश्मीर के पूर्व वजीरे आजम, पंडित जवाहरलाल नेहरू के बेहद करीबी थे इसलिए उनको इस पूरे प्रकरण से बचाया गया.

कुछ लोग मानते हैं कि पवित्र अवशेष गायब करवाने में नेशनल कॉन्फ्रेंस के एक धड़े का हाथ था. वह इसके जरिये शमसुद्दीन सरकार और उनके जरिए बख्शी गुलाम मुहम्मद को कमजोर करना चाहता था

जानकारों का एक धड़ा यह भी कहता है कि पवित्र अवशेष गायब करवाने में नेशनल कॉन्फ्रेंस के एक गुट का हाथ था. वह इसके जरिये शमसुद्दीन सरकार और उनके जरिए बख्शी गुलाम मोहम्मद को कमजोर करना चाहता था. बाद में हुआ भी यही. शमसुद्दीन को इस घटना के बाद वजीरे आजम का पद छोड़ना पड़ा.

इस पूरी जांच और उसके नतीजे पर आज तक रहस्य इसलिए भी बना है कि खुद बीएन मलिक ने पवित्र अवशेष की बरामदगी के बारे कुछ नहीं कहा. वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, ‘यह एक खुफिया अभियान था...पवित्र अवशेष अपनी जगह पर वापस कैसे आया इस वाकये को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता.’ बीएन मलिक की अब मृत्यु हो चुकी है. यदि हम उनकी आत्मकथा की इन पंक्तियों को उनका सबसे विश्वसनीय बयान मानें तो मू-ए-मुकद्दस की चोरी और उसकी बरामदगी के रहस्य से अब शायद ही कभी पर्दा हटे.