अगस्त 2001 की बात है. श्रीलंका में हो रही तीन देशों की एकदिवसीय सीरीज में भारत को न्यूजीलैंड से एक अहम मुकाबला खेलना था. जीतने वाली टीम फाइनल में पहुंचती. लेकिन ऐन मौके पर सलामी बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर के पैर में लगी चोट ने टीम की परेशानी बढ़ा दी. ऐसे में कोच जॉन राइट और कप्तान सौरव गांगुली ने एक अप्रत्याशित दांव खेला. उन्होंने फैसला किया कि ओपनिंग एक नए खिलाड़ी से करवाई जाए. इस खिलाड़ी ने तब तक 15 वन डे मैचों में करीब 15 की औसत से कुल 169 रन बनाए थे.

न्यूजीलैंड के 264 रन के जवाब में भारत ने खेलना शुरू किया. पारी की पहली ही गेंद पर इस खिलाड़ी ने जबर्दस्त चौका जड़ दिया. इसके बाद तो जैसे बाउंड्रियों की बरसात होने लगी. जल्द ही यह खिलाड़ी अर्धशतक तक पहुंच गया और देखते ही देखते उसने अपना शतक भी पूरा कर लिया. 69 गेंदों में 19 चौकों और एक छक्के की मदद से खेली गई इस विस्फोटक पारी का ही कमाल था कि आखिर में भारत सात विकेट से मैच जीत गया. इस मैच ने न सिर्फ तब 22 साल के वीरेंद्र सहवाग की भारतीय टीम में जगह पक्की की थी बल्कि क्रिकेट को धर्म मानने वाले भारत को एक नया सितारा भी दे दिया था.

उन्हीं सहवाग ने जब अपने जन्मदिन यानी 20 अक्टूबर 2015 को अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास लेने का ऐलान किया तो बहुतों के लिए यह खबर हैरानी से ज्यादा दुख बनकर आई. हैरानी इसलिए कम थी कि सहवाग लंबे समय से अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से बाहर ही थे और उनकी वापसी होगी, इसकी उम्मीद अब बहुत धुंधली हो चुकी थी. दुख इसलिए कि इस महान खिलाड़ी को मैदान में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच खेल को अलविदा कहने का मौका नहीं मिला. एक समय कोई नहीं सोच सकता था कि सहवाग जैसे दिग्गज की विदाई यूं होगी.

तकनीक और परंपरा से ज्यादा सहवाग का खेल शरीर की सहज प्रतिक्रिया से चलता था. यही खूबी उऩ्हें शीर्ष पर ले गई और इसी के चलते उनका करियर ग्राफ तेजी से नीचे भी आया.

अपने करीब डेढ़ दशक लंबे अंतर्राष्ट्रीय करियर में सहवाग ने 104 टेस्ट मैचों में 23 शतकों के साथ 8586 रन बनाए हैं. इनमें दो तिहरे शतक शामिल हैं और यह उपलब्धि दुनिया में सिर्फ चार बल्लेबाजों के नाम है. इन चार में से भी सबसे तेज तिहरा शतक उन्होंने ही लगाया है. 2008 में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका जैसी टीम के खिलाफ 278 गेंदों में तीन सौ रन ठोक डाले थे. सहवाग ने 251 वनडे मैच खेले और 15 शतकों के साथ 8273 रन बनाए. एकदिवसीय मैचों में उनके नाम एक दोहरा शतक भी दर्ज है और तब यह कारनामा करने वाले वे सिर्फ दूसरे खिलाड़ी थे.

तकनीक और परंपरा से ज्यादा सहवाग का खेल शरीर की सहज प्रतिक्रिया से चलता था—आंख और हाथ के बीच उस तालमेल से जिसे क्रिकेट की भाषा में हैंड-आई कोऑर्डिनेशन कहा जाता है. यही खूबी उऩ्हें शीर्ष पर ले गई और इसी के चलते उनका करियर ग्राफ तेजी से नीचे भी आया. उम्र बढ़ने और नजर कमजोर होने के साथ यह तालमेल उनका साथ छोड़ता गया और उनके प्रदर्शन में गिरावट आती गई. दो साल पहले सहवाग टीम से बाहर हुए तो फिर वापस नहीं आ सके. नहीं तो क्रिकेट के कई दिग्गज मानते हैं कि इस अतुलनीय प्रतिभा में और भी कई रिकॉर्ड तोड़ने की क्षमता थी.

हालांकि रिकॉर्डों की परवाह करते तो सहवाग वह न होते जिसके लिए उन्हें जाना जाता है. वे कहते भी थे कि बैटिंग करते हुए वे ज्यादा नहीं सोचते. उनकी कई पारियां इसका उदाहरण हैं. उदाहरण के लिए 2004 में पाकिस्तान के मुल्तान में हो रहे टेस्ट मैच में वे गेंदबाजों की धुनाई कर रहे थे. दूसरे छोर पर खड़े तेंदुलकर लगातार उन्हें समझा रहे थे कि वे तिहरे शतक की ऐतिहासिक उपलब्धि के करीब हैं और थोड़ा संभलकर खेलें. लेकिन 294 के स्कोर पर उन्होंने बल्ला घुमाया और छक्का मारकर तिहरा शतक पूरा किया. क्रिकेट के पंडितों के मुताबिक ऐसा सिर्फ सहवाग ही कर सकते थे जो आगे या पीछे की नहीं बल्कि सिर्फ मौजूदा पल की सोचते थे. सहवाग का कहना भी था कि अगर उन्हें लगता है कि बॉल पर छक्का लग सकता है तो फिर वे यह नहीं सोचते कि वे शतक के करीब हैं या तिहरे शतक के.

एक समय कोई नहीं सोच सकता था कि इस महान खिलाड़ी को मैदान में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच खेल को अलविदा कहने का मौका नहीं मिलेगा.

यही बात उन्हें महान डॉन ब्रैडमैन के करीब ला खड़ा करती थी. इसलिए टेस्ट क्रिकेट में सिर्फ ब्रैडमैन और सहवाग ही हैं जो तीन बार 290 के आंकड़े के पार जाने में कामयाब रहे. करियर के शुरुआती दौर में सहवाग को दूसरा तेंदुलकर भी कहा जाता था. दूर से देखने पर दोनों की कदकाठी और बल्लेबाजी एक जैसी ही लगती थी. करियर के आखिरी चरण में सचिन ने अपनी शैली बदल ली. उनके खेल से वह बेपरवाह आक्रामकता जाती रही जो एक दौर में उनकी पहचान हुआ करती थी. तब सचिन के प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग था जो चाहता था कि वे सहवाग जैसा खेलें. सहवाग के लिए इससे बड़ी तारीफ भला क्या होगी. हालांकि सचिन के प्रशंसकों को ही नहीं, खुद सचिन को भी सहवाग का खेल देखकर सबसे ज्यादा आनंद आता था. कई मौकों पर उन्होंने यह बात कही भी.

सहवाग हमेशा अपने हमलावर अंदाज के लिए जाने जाते रहे. ब्रेट ली की जिस बाउंसर को राहुल द्रविड़ सीधे बल्ले से सुरक्षात्मक श़ॉट खेलकर पैरों के पास गिरा देते, उसी गेंद को खेलते हुए सहवाग शरीर को थोड़ा पीछे ले जाते और बल्ले से जोरदार प्रहार करके उसे स्लिप्स की तरफ सीमा रेखा के पार भेज देते. तकनीक को कम तरजीह देने के बावजूद उनका रिकॉर्ड कई मायनों में तकनीक के महारथी ओपनरों से बेहतर दिखता है. टेस्ट मैचों में सहवाग का औसत सुनील गावस्कर से ज्यादा है. यही नहीं, सहवाग ने जो शतक लगाए हैं उनमें से 75 फीसदी ऐसे हैं जिनमें उनका स्कोर 150 से ज्यादा रहा है. दूसरी तरह से देखें तो इस आंकड़े में उनका ट्रेडमार्क बेपरवाह अंदाज भी झलकता है, नहीं तो इनमें से कई आराम से दोहरे शतक भी हो ही सकते थे.

बेहतर बल्लेबाजी के टिप्स मांगने वालों के लिए सहवाग एक ही मंत्र होता था—विकेट पर आया तो रोको, बाकी सबको ठोको. इसलिए उनका खेल प्रशंसा से ज्यादा विशुद्ध आनंद का विषय होता था. अपने पहले ही टेस्ट मैच में शतक ठोकने वाले इस बल्लेबाज ने टेस्ट मैचों में तेज बल्लेबाजी की नई लीक चलाई. जो नई गेंद गेंदबाजों का हथियार होती थी उसकी बखिया उखाड़ने में सहवाग का कोई सानी नहीं था. शायद इसीलिए उनके संन्यास पर फिल्म अभिनेता रितेश देशमुख की प्रतिक्रिया थी, ‘मैंने बल्लेबाजों को गेंद से डरते देखा है, लेकिन गेंद सिर्फ सहवाग से डरती थी.’