आदमी तो आदमी, समय भी सहवाग के खेल को प्यार करता था. नहीं तो ऐसा भी कभी होता है कि कोई चीज एक ही पल में दो जगहों पर नजर आए? सहवाग जब खेल रहे होते थे तो बेचारी गेंद एक ही पल में बल्ले के पास और सीमा-रेखा के बाहर दिखती थी.

कुछ एहसास व्याख्या के दायरे से दूर होते हैं. कोई कला आपको पसंद आती है, आप उसे लिखकर या बोलकर समझाना चाहते हैं पर आप से शब्द छूट-छूट जाते हैं. सहवाग का खेल भी ऐसा ही था. उन्हें खेलते हुए न जाने कितने दिन, महीने और बरस बीत गए होंगे तब जाकर ‘थर्डमैन’ के क्षेत्ररक्षकों को यह भान हुआ होगा कि सहवाग के ‘अपर कट’ उनके लिए नहीं होते. सीमा-रेखा के बाहर किसी भी दर्शक के लिए होते हैं.
सजीली आक्रामकता से हैरान-परेशान लोग सहवाग को सिर्फ और सिर्फ ‘अग्रेसिव’ बता कर छोड़ देते हैं. ऐसे लोगों का प्रिय शब्द ‘मगर’ होता है. ये भी ‘मगर’ वो भी. ऐसा भी ‘मगर’ वैसा भी. उन्हें इस प्रश्न का उत्तर नहीं पता कि सिर्फ आक्रामकता के सहारे शतक, दोहरा शतक या तिहरा शतक बनाया जा सकता है क्या? सिर्फ आक्रामकता के सहारे पूरा का पूरा सत्र बिना बाउंड्री लगाए खेला जा सकता है क्या?
कवर ड्राइव पर उनकी ताकत और उनकी तेजी, गेंद से उसकी ऊंचाई छीन लेती थी जिस वजह से गेंद गोली की मानिंद सीमा-रेखा की तरफ छूटती थी.
दरअसल सहवाग क्रिकेट के योगी हैं. एक समय गावस्कर ने कहा था कि आज की तारीख में सिर्फ सहवाग को पता है कौन सी गेंद के साथ कैसा बर्ताव करना है. यह बरतने से आता है. यह नजफगढ की गलियों से आता है. नजफ़गढ़ से दिल्ली रोज आने और जाने के थकाऊ उपक्रम से आता है. यह सब हवा के तीर नहीं हैं. यह शायद यों ही नहीं कि सारे क्रिकेटर जब दूसरे व्यवसायों में हाथ आजमा रहे थे तो सहवाग ने रेस्टोरेंट या क्रिकेट किट की कंपनी की बजाय स्कूल खोलना मुनासिब समझा.
अमूमन लोग यह कहते हुए मिल जाते हैं कि सहवाग ने सिर्फ एशिया की पिचों पर ही रन बनाए. यह कहना ऐसे है जैसे कोई कहे कि सूरज सिर्फ पूरब में निकलता है या अनुराग कश्यप अपराध कथाओं पर ही फिल्में बनाते हैं या फिर बोरहेस ने सिर्फ कहानियां लिखीं. बात, जनाब, यह है कि जो किया वह कैसा किया!
फिर भी इन महानुभावों के लिए यह तथ्य: जिस किसी को भारतीय टीम के 2003 वाले न्यूजीलैंड दौरे की याद होगी वह सहवाग के खेल की समझ को समझ सकता है. सात मैचों की श्रृंखला में कीवी खिलाड़ी भारतीय खिलाड़ियों से हर मोर्चे पर बीस थे. पांच मैच न्यूजीलैंड के खाते में गए थे और सांत्वना पुरस्कार की तरह दो मैच भारतीय जीत पाए थे. सारी करामात हरी घास वाली पिच का था. सस्ते में निपटती भारतीय टीम के खिलाड़ी बीस-बाईस रन बनाकर राहत की लम्बी सांस लेते थे. लेकिन जिन दो मैचों में विजय हासिल हुई थी उनमें सहवाग के शतक थे. सोचिए. न्यूजीलैंड की हरी घास वाली पिच जहां बाकी के धुरंधर बीस से बाईस रन बना पा रहे थे, सहवाग ने दो कमाल के शतक लगाए.
सहवाग पांव कम चलाते थे क्योंकि आंखें सदैव गेंद पर होती थी. यह प्रकृति प्रदत्त था कि वे गेंदबाज के हाथ से छूटती गेंद को छूटने के वक्त ही पहचान लेते थे. उनका पराक्रम ऑफ़ साइड में दीखता था. जब सहवाग क्रीज पर हुआ करते थे तो विपक्षी कप्तान कई मर्तबा ऑफ़ साइड में सात खिलाड़ियों के साथ पाए गए. लेकिन सहवाग से पार पाना उनके लिए मुश्किल हो जाता था. कवर ड्राइव लगाते सहवाग की ताकत और तेजी गेंद से उसकी ऊंचाई छीन लेती थी जिस वजह से वह गोली की मानिंद सीमा-रेखा की तरफ छूटती थी.
सहवाग टीवी से, रेडियो से या अख़बार से या विश्लेषण से नहीं समझे जा सकते. वे उन पलों से समझे जायेंगे जहां उन्होंने मैच का रुख बदल दिया
विश्व कप 2003 का फाइनल. सारे धुरंधर धराशायी. सहवाग एक छोर पर टिके हुए. ब्रेड हॉग की लेग स्पिन. हर खेल प्रेमी को याद होगा गेंद ‘लेगस्टम्प’ की लाइन में गिरी. तेज घुमाव लिए ऑफ स्टम्प को चूमने के लिए भागती गेंद को सहवाग ने ‘अगेंस्ट द स्पिन’ खेलकर मिड ऑन के ऊपर से छक्का मारा था. हुई तो अपनी हार थी पर 81 रनों की वह साहसी पारी भूली नहीं जाती.
फकीराना अंदाज वाले वीरेंद्र सहवाग का जिक्र सबसे पहले 1996 के विश्व कप में सुनने को मिला था. वजह थी: विश्वकप के लिए तैयार टीम में उनका न चुना जाना. क्रिकेट सम्राट के एक पन्ने पर इसका उल्लेख था, साथ ही यह भी दर्ज था कि यह खिलाड़ी ‘डिट्टो’ सचिन की तरह खेलता है. तीन साल बाद उन्हें पाकिस्तान के खिलाफ मौका मिला. पर सहवाग की पहचान 2001 में ही हो पाई. आस्ट्रेलिया के खिलाफ. चौथा मैच. अट्ठावन रन. और पैर में मोच के चलते फिर टीम से बाहर.
आगे का सारा सहवाग लोगों के मन मस्तिष्क में दर्ज है. अतीत की तरह. आप बैठे बिठाए सहवाग के किसी ‘शॉट’ को याद कर मुस्कुरा उठते हैं और सामने वाला सोचता रह जाता है. सहवाग टीवी, रेडियो या अख़बार के आकलनों या फिर किसी विश्लेषण से नहीं समझे जा सकते. वे उन पलों से समझे जायेंगे जहां उन्होंने मैच का रुख बदल दिया. सहवाग की बदौलत कभी कोई स्कोर बड़ा नहीं लगता. सहवाग वो है जो पारी की आख़िरी गेंद पर छक्का मारता है और जैसे ही वह गेंद ‘नो बॉल’ करार दी जाती है, मुस्कुराने लगता है. क्योंकि उसे गेंद का हश्र मालूम है. हमें लगता है हमें भी अगली गेंद का हश्र मालूम है, पर नहीं. सहवाग आख़िरी गेंद, जो अतिरिक्त थी, उसे अपनी जगह पर ही खेल देते हैं. बिना किसी रन के.
सहवाग चाहते तो बाद के दिनों में अपना खेल बदल सकते थे. धीमे खेलना शुरू कर सकते थे. पर उन्होंने अपनी स्वाभाविक शैली का दामन नहीं छोड़ा
सहवाग की असफलताएं उन्हें महान बनाती हैं. वे चाहते तो बाद के दिनों में अपना खेल बदल सकते थे. धीमे खेलना शुरू कर सकते थे. पर उन्होंने अपनी स्वाभाविक शैली का दामन नहीं छोड़ा. यह भूलना नहीं चाहिए कि सहवाग ने सचिन, गांगुली, द्रविड़ और लक्ष्मण जैसे महान खिलाड़ियों के बीच अपनी जगह बनाई. इसमें समय बहुत लगा. द्रुत सहवाग को विलंबित शुरुआत मिली. उम्र जब हावी होने लगी तो उसका असर उनके खेल पर दिखने लगा.
अपने प्रिय खिलाड़ियों को याद करते हुए किसी गलीज बात का जिक्र करना भी नाशुक्रेदारी है. फिर भी कहना होगा कि सहवाग अगर ‘डिप्लोमेटिक’ होते और धोनी का आकार अचानक से विशाल न हो गया होता तो हम संघर्ष करते सहवाग को अभी भी कुछ दिन तक देख सकते थे. लेकिन वह सहवाग ही क्या जो अपना सहवागपना छोड़ दे... वरना यह नहीं होता कि अपने करियर के आख़िरी साल में अपने ही गढ़ ( यानी दिल्ली ) से खेलने को न मिले. आख़िरी वर्ष का खेल सहवाग ने हरियाणा से खेला. और क्या इत्तेफाक कि आख़िरी मैच भी दिल्ली के खिलाफ खेला, वही दिल्ली जिसके साथ अपने करियर के सभी 191 मैच खेले, सिवाय आख़िरी के...उम्मीद है सहवाग ने इसे भी एक पल की तरह लिया होगा. जैसे गेंद एक पल के लिए उनके पास आती थी. गेंद पर स्ट्रोक या गेंद का निकल जाना, वह सब सहवाग के लिए एक पल भर था. क्षणभंगुर.
सहवाग एक दौर की तरह आए और हमारी स्मृतियों में कौंध की तरह बस गए. यह कहना गलत है कि सहवाग रिटायर हो गए हैं. उनके चाहने वालों की स्मृति में उनका खेल जारी रहेगा.
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