दर्शन की आधुनिक विचारधाराओं पर फ्रांस के प्रसिद्ध दर्शनशास्त्री अल्बेयर कामू के विचारों का बहुत असर है. उन्हें शून्यवाद का प्रणेता माना जाता है. शून्यवाद के अनुसार मनुष्य जीवन का कोई विशेष उद्देश्य नहीं है. लेकिन ऐसा मानने के बावजूद कामू उदार मानवीय मूल्यों के पक्के समर्थक थे. एक बार किसी ने उनसे नैतिकता पर कुछ सवाल किए तो कामू जवाब था, ‘यदि कोई मुझसे नैतिकता पर किताब लिखने को कहे तो मैं सौ पृष्ठों की किताब लिखूंगा. इसमें से निन्यानबे कोरे होंगे. आखिरी पृष्ठ पर लिखूंगा – मैं इंसानों के लिए सिर्फ एक कर्तव्य समझता हूं और वो है प्यार करना. इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है उसके लिए मैं न कहता हूं.’
कामू नास्तिक थे. उन्होंने आधुनिक समय में नास्तिकवाद को नए सिरे से परिभाषित भी किया. लेकिन इसके बाद भी नैतिकता जिसे हम उदार मानवीय मूल्य कह सकते हैं, को वे जरूरी मानते थे. दुनिया के हर समाज में जब भी धर्म की जरूरत पर सवाल उठाए जाते हैं तो इसके पक्ष में सबसे बड़ा तर्क होता है कि इंसानों को नैतिक बनाने के लिए यह अनिवार्य है. हालांकि कामू जैसे व्यक्तियों का जीवन इस तर्क के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. इसके बाद भी हम में से ज्यादातर लोग इसे मान लेते हैं.
लेकिन अब एक अध्ययन से पता चला है कि यह सही नहीं है. यह अध्ययन पांच से 12 साल की उम्र के तकरीबन 1200 बच्चों के ऊपर किया गया है. धर्म का बच्चों के नैतिक विकास में योगदान नहीं है, इस अध्ययन का निष्कर्ष यह तो बताता ही है साथ में इससे पता चला है कि धार्मिक माहौल बच्चों में उदारता की भावना कम कर सकता है और उनमें ज्यादा कठोर प्रतिक्रिया की भावना पैदा कर सकता है.
विश्व में 5.8 अरब लोग खुद को धार्मिक मानते हैं. इनमें से लगभग सभी ईश्वर को समाज में नैतिकता होने की वजह मानते हैं. प्यू रिसर्च सेंटर के एक अध्ययन के अनुसार भारत में ऐसा मानने वालों की तादाद 70 फीसदी है. यदि ऐसा है तो सामान्य समझ कहती है कि धार्मिक घरों के बच्चे ज्यादा उदार और दूसरों के प्रति दयालु होने चाहिए. लेकिन करेंट बायोलॉजी नाम के जर्नल में प्रकाशित एक शोध के नतीजे इस समझ का समर्थन नहीं करते.
यह शोध यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के ज्यां डीसेटी और उनके सात सहयोगियों ने किया है. इसके लिए लिए उन्होंने विश्व के सात शहरों से बच्चों का चुनाव किया था. ये शहर थे शिकागो (अमेरिका), टोरंटो (कनाडा), जॉर्डन से अम्मान, तुर्की से इस्तांबुल और इजमीर, दक्षिण अफ्रीका से केपटाउन और चीन से गुआंगझाऊ . इन बच्चों में 24 प्रतिशत ईसाई परिवारों से थे जबकि 43 प्रतिशत मुसलमान, 2.5 प्रतिशत यहूदी, 1.6 प्रतिशत बौद्ध, 0.4 प्रतिशत हिंदू, 0.2 प्रतिशत अनीश्वरवादी और 0.5 प्रतिशत ‘अन्य’ परिवारों के बच्चे थे. इनके साथ ही 28 फीसदी बच्चे उन परिवारों के थे जो खुद को ‘गैर धार्मिक’ कहते हैं.
इन बच्चों में उदारता की प्रवृत्ति जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने पहला प्रयोग स्टीकरों के साथ किया. उन्होंने बच्चों को 30 स्टीकरों के सेट में से 10 सबसे अच्छे स्टीकर चुनने को कहा. इसके बाद उनसे कहा गया कि उन्हीं की कक्षा के कुछ साथियों को स्टीकर नहीं मिल पाएंगे और जो बच्चे स्टीकरों को उनसे साझा करना चाहते हैं वे एक लिफाफे में इन्हें डाल दें.
इस प्रयोग के नतीजे बताते हैं कि धार्मिक पृष्ठभूमि से आने वाले बच्चे इस मामले में बेहद अनुदार थे. इस उदारता परीक्षण में मुसलमान और ईसाई परिवारों के बच्चों के अंक एक जैसे थे जबकि गैर धार्मिक परिवारों के बच्चों को उनसे 23 से 28 प्रतिशत ज्यादा अंक हासिल हुए. इसका मतलब है कि ये बच्चे अपने साथियों से ज्यादा उदार निकले.
शोधकर्ताओं ने इस अध्ययन में यह भी पाया कि परिवार जितना धार्मिक था उसके बच्चों में परोपकार की भावना उतनी कम थी. यह बात सभी धर्म के बच्चों के लिए समानरूप से पाई गई. अध्ययन में यह बात भी सामने आई कि अपेक्षाकृत बड़ी उम्र के बच्चे (आठ से 12 साल के बीच) में यह अंतर ज्यादा साफ था और शायद इसकी वजह यह है कि इन बच्चों का धार्मिक अनुभव अपने से छोटों की तुलना में ज्यादा होता है.
दूसरा प्रयोग इन बच्चों में प्रतिक्रिया की कठोरता मापने के लिए किया गया. इन्हें शारीरिक चोट पहुंचाने वाली एक दृश्यावली जिसमें धक्का मारने जैसी घटनाएं शामिल थीं, दिखाई गईं और पूछा गया कि वे इस हरकत को कितना बुरा मानते हैं, उस आधार पर अंक दें.
मुस्लिम बच्चों ने इस हरकत को अंजाम देने वालों को ज्यादा कठोरता से अंक दिए. इसके बाद ईसाई पृष्ठभूमि से आए बच्चों के अंक थे. गैर धार्मिक परिवारों के बच्चों को यह उतना बड़ा अपराध नहीं लगा. इसी तरह से इस हरकत की प्रतिक्रिया में बाकी दो समूहों की अपेक्षा मुस्लिम परिवार के बच्चे ज्यादा कड़ी सजा के हिमायती पाए गए. इन नतीजों के बारे में जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट कहती है कि ये नतीजे नैतिक विकास में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका वाली बात पर गंभीर सवाल उठाते हैं. शोधकर्ताओं ने रिपोर्ट में लिखा है, ‘धर्म को नैतिकता से अलग करने पर इंसानों में सहृदयता कम नहीं होगी बल्कि इसका ठीक उल्टा असर होगा.’
धार्मिक समूह इस अध्ययन को कई आधारों पर खारिज कर सकते हैं. लेकिन यदि हम धर्म के इस असर को वयस्कों के व्यवहार पर रखकर मापें तो वर्तमान विश्व की कुछ घटनाएं अपने आप ही इस शोध का समर्थन करती हैं. हम भारतीय उपमहाद्वीप का ही उदाहरण लें तो भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश बेहद धार्मिक देश हैं लेकिन यहां के समाजों में गैरबराबरी और असहिष्णुता साफ-साफ दिखती है. वहीं ईराक और सीरिया जैसे देशों में तो धर्म को आधार बनाकर ही एक हिंसक युद्ध छेड़ा गया है. यहां सबसे घोर अनैतिक काम जैसे बलात्कार, लूटमार या हत्याएं बेहद आम हैं.
अब इसी का एक दूसरा पक्ष देखते हैं. यूरोपीय देशों में एक बड़ी आबादी नास्तिक है. 2010 का एक सर्वे बताता है कि जर्मनी के सिर्फ 44 फीसदी नागरिक ईश्वर पर भरोसा करते हैं. यानी आधे से ज्यादा जर्मनवासी या तो नास्तिक हैं या धर्म में उनका पक्का यकीन नहीं है. इसे संयोग कहकर खारिज नहीं किया जा सकता कि सीरिया से आने वाले सबसे ज्यादा शरणार्थियों को जर्मनी ने ही अपने यहां पनाह दी. बाकी यूरोप के देश भी ऐसा ही कर रहे हैं. हालांकि इस आधार पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि नास्तिकता नैतिक होने की अनिवार्य शर्त है लेकिन शोध के नतीजों से इसे जोड़ें तो यह जरूर कहा जा सकता है कि धार्मिकता नैतिक होने की बुनियादी शर्त नहीं है.
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