हमारे समय की बहुत सारी त्रासदियों की तरह छह दिसंबर 1992 की याद भी धीरे-धीरे एक कर्मकांड में बदलती जा रही है. अस्सी-नब्बे के उस दौर में जब अयोध्या आंदोलन की परिणति बाबरी मस्जिद गिराए जाने के रूप में हुई, तब असहिष्णुता की मौजूदा बहस नहीं थी, लेकिन समाज के बीच रेखा खींचने का एक बहुत आक्रामक किस्म का प्रयत्न चल रहा था. अनुभवहीन राजीव गांधी को तब अंदाज़ा नहीं था कि शाह बानो प्रसंग में अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की गली से गुजरने के बाद वे राम मंदिर के ताले खुलवा कर बहुसंख्यक तुष्टीकरण की जिस खतरनाक सड़क पर पांव रख रहे हैं, वह बारूदी सुरंगों से पटी पड़ी है जिनका रिमोट कंट्रोल संघ परिवार के हाथ में है.
इसलिए जैसे ही राम मंदिर के कपाट खुले, संघ परिवार सक्रिय हो गया और उसके साथ भारतीय जनता पार्टी खड़ी हो गई जो उन दिनों गैरकांग्रेसवाद की राजनीति में जनता दल के साथ मिलकर एक ध्रुव बना रही थी. बाद में जब अपनी राजनीतिक मजबूरियों के चलते विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने का जो नया ब्रह्मास्त्र छोड़ा उससे बीजेपी की समझ में आ गया कि बहुसंख्यकवाद की जिस राजनीति को वह अपना एजेंडा बनाने चली है, वह इस पिछड़ा राजनीति के उभार से तार-तार हो सकती है.
तो इन दिनों बहुत लाचार और मासूम से दिखने वाले लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ से अयोध्या तक एक सजा हुआ ट्रक लेकर निकल पड़े जिसे रथ बताया गया. जहां-जहां से यह रथ गुजरा, वहां-वहां खून की लकीरें बनती चली गईं. आडवाणी को लालू यादव ने तब अयोध्या नहीं पहुंचने दिया और समस्तीपुर में गिरफ़्तार कर लिया. बीजेपी ने वीपी सिंह से समर्थन वापस लिया, चुनाव हुए, चुनावों के दौरान राजीव गांधी मारे गए और फिर नरसिंह राव ने कांग्रेस की अल्पमत सरकार बनाई.
इस दौर में बीजेपी राम मंदिर के नाम पर हिंदुत्ववाद का एजेंडा बनाती रही और उसके कमंडल ने बहुत दूर तक मंडल को खुद में समायोजित कर लिया. यह वह दौर था जब भारत अपने बाज़ार को धीरे-धीरे दुनिया के लिए खोल रहा था और उदारीकरण कहलाने वाली, मगर बेहद अनुदार, आर्थिक प्रक्रिया के पक्ष में अपने-आप राजनीतिक सर्वानुमति बनती चली गई थी.
ढाई दशक पुरानी इस कहानी को आज याद करने का मक़सद उस पूरी राजनीतिक प्रक्रिया को पकड़ना है जो इन वर्षों में विकसित हुई है और आज असहिष्णुता और राष्ट्रवाद तक आ पहुंची है. ध्यान से देखें तो हिंदुत्ववादी राजनीति का चक्का 1991 से 1998 तक के दौर में बड़ी तेज़ी से चलता दिखाई पड़ता है. 1996 में वाजपेयी पहली बार 13 दिन के लिए सरकार बना पाते हैं. 1997 में गुजरात में पहली बार बीजेपी सरकार बनाने में कामयाब होती है जिसे संघ अपनी प्रयोगशाला बताता है. लेकिन इस दौर में बीजेपी यह पा रही है कि उसे गठबंधन की राजनीति लगातार शिकस्त दे रही है. अंततः वह भी इस खेल में शरीक होती है.
यूपी में बीजेपी नागनाथ कहलाने का अपमान भी बर्दाश्त करती हुई बीएसपी से गठबंधन करती है और बिहार में लालू यादव से अलग होने के बाद नीतीश को अपने साथ जोड़ लेती है. महाराष्ट्र में शिवसेना, पंजाब में अकाली दल और अंततः तमिलनाडु में बारी-बारी से द्रमुक दलों से दोस्ती करने के बाद वह केंद्र की सत्ता पर काबिज होती है. अटल बिहारी वाजपेयी पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले पहले गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री बनने की उपलब्धि हासिल करते हैं. यहां तक पहुंचने और टिके रहने के लिए बीजेपी अपने मूल मुद्दों को स्थगित कर देती है - उसे अब न तत्काल राम मंदिर चाहिए, न अनुच्छेद 370 का ख़ात्मा और न ही समान नागरिक संहिता. यही नहीं, हिंदी और स्वदेशी की बात भूल कर वह कांग्रेस और संयुक्त मोर्चे से कहीं ज्यादा जोशोखरोश से भूमंडलीकरण की राह पर चल पड़ती है. इसी दौर में यह भोला भरोसा जागता है कि यह भूमंडल मंडल और कमंडल दोनों को अपने में समा लेगा.
लेकिन भूमंडलीकरण की अपनी विडंबनाएं हैं. उसका शाइनिंग इंडिया बेशक अटल-आडवाणी के साथ खड़ा हो, लेकिन इससे बाहर खड़ा एक विराट भारत इस ‘फील गुड’ के झांसे में नहीं आता - वह केंद्र की सरकार बदल देता है- इस बार गठबंधन के साथ कांग्रेस की वापसी होती है जो अगले दस साल तक चलती रहती है.
इस दस साल में आखिरी तीन साल को छोड़ दें तो लगता ही नहीं कि बीजेपी कहीं खड़ी है. कायदे से इस दौर में यूपीए सरकार ने कई ऐतिहासिक फैसले किए - रोज़गार का अधिकार, सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार और ज़मीन का अधिकार वे बड़े फैसले हैं जिन्होंने शासन को न सिर्फ पारदर्शी बनाया है, बल्कि उस पर गरीबों और पिछड़ों की ज़िम्मेदारी भी डाल दी है. लेकिन आखिरी तीन साल में लगे कई घोटालों के दाग इस सरकार को ले डूबे. भारतीय मध्यवर्ग उचित ही मनमोहन सरकार के ख़िलाफ़ उसी तरह खड़ा हो जाता है जैसे 1989 में वह राजीव सरकार के ख़िलाफ़ खड़ा था.
इस गुस्से को अन्ना का आंदोलन एक सार्वजनिक और विस्फोटक अभिव्यक्ति देता है और इससे जो नई ऊर्जा पैदा होती है वह बीजेपी में जान डाल देती है. इन सबके बीच गुजरात के विकास का वह बहुप्रचारित मॉडल सामने आता है जिसके नायक नरेंद्र मोदी हैं. भारत का उद्योग जगत भी इस नए नायक के लिए बेताब दिखता है. वह यह भूल जाता है कि 1992 के ठीक दस साल बाद 2002 में गुजरात में हुए भयावह दंगों के लिए तब की राज्य सरकार ज़िम्मेदार मानी जाती रही थी और उसे देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी राजधर्म निभाने की सलाह दी थी. उसे बस वह विकास चाहिए जो उसकी झोली भर सके, उसका बाज़ार चमका सके, उसका बैंक बैलेंस बढ़ा सके. अगर किसी तबके को डरा-धमका कर, उसे चुप रखकर, शांति कायम की जा सके और दुकानें चलाई जा सकें तो इसमें उसे कोई हर्ज नहीं लगता.
इसी मोड़ पर 2014 के लोकसभा चुनाव होते हैं, नरेंद्र मोदी की लहर या सूनामी चलती है और पहली बार बहुमत हासिल करके, लेकिन एनडीए को कायम रखने की उदारता दिखाती हुई, बीजेपी केंद्र में सरकार बनाती है. अब वह एजेंडा साफ है जो नब्बे के दशक से बनना शुरू हुआ और जिसमें पहले 1992 की बाबरी मस्जिद आई, 2002 के दंगे आए और 2015 की असहिष्णुता चली आ रही है. राष्ट्रवाद और विकास के बहुत आक्रामक नारों के बीच चुपचाप सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद को बढ़ावा देना इस एजेंडे का हिस्सा है. इस रणनीति के तहत सरकार विकास और आधुनिकीकरण की बात करती है, पार्टी राष्ट्रवाद के नाम पर पाकिस्तान विरोधी उन्माद को हवा देती है, और परिवार राम मंदिर, आरक्षण और गोवध का सवाल उठाता है. इससे ऐसा माहौल बनता है जिसमें विरोध का एक शब्द बोलना भी सामने वाले का गुनाह बन जाए.
संकट यह है कि इन सबके विरोध की जो राजनीति है, वह भी इतने अंतर्विरोधों से ग्रस्त है कि उसे अविश्वसनीय ठहराने में वक़्त नहीं लगता. कांग्रेस हो या लालू-नीतीश - सब पर वे सारे आरोप चिपकते हैं जो बीजेपी पर लगते रहे हैं. फर्क बस इतना है कि कांग्रेस या दूसरे दलों ने जहां फौरी राजनीतिक ज़रूरतों के लिए बहुसंख्यकवाद या अल्पसंख्यकवाद की राजनीति की, वहीं बीजेपी एक सुनियोजित विचारधारा के तहत यह काम करती रही है.
इसलिए जब भाजपा और उसके नेतृत्व की राजनीति पर सवाल खड़े किए जाते हैं तो उनके समर्थक बाकायदा हमला करते हैं - बेशक, इस हमले का प्रकार सामने वाले की हैसियत और पहुंच के हिसाब से बदलता रहता है- किसी को ट्विटर-फेसबुक पर गाली दी जाती है, किसी के ख़िलाफ़ अभद्र चुटकुले बनाए जाते हैं, किसी के ख़िलाफ़ जुलूस निकाला जाता है तो किसी को घर से निकाल कर मार दिया जाता है.
छह दिसंबर 1992 बहुसंख्यकवादी राजनीति के एक ऐसे ही एक हमले का दिन है - यह बताता हुआ कि यह हमला किन ख़तरनाक हदों तक जा सकता है. 27 साल बाद अयोध्या मामले में सु्प्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका है यह सवाल बेमानी हो चुका लगता है कि उन्मादियों की भीड़ ने जो मस्जिद गिराई थी क्या उसे दोबारा बनाया जा सकेगा.
जाहिर है, इस बहुसंख्यकवाद के एक रूप के आगे हम घुटने टेक चुके हैं. इत्तेफाक से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस्लामिक स्टेट या तालिबान जैसे संगठनों की जो करतूतें हैं वे इस बहुसंख्यकवाद को हवा, पानी, खाना और तर्क भी दे रही हैं. वह बड़ी आसानी से याद दिलाता है कि दुनिया में तो धर्म के नाम पर कैसी-कैसी क्रूरताएं हो रही हैं, वह तो बेहद नरम है.
लेकिन यह नरमी उसका राजनीतिक स्वभाव नहीं, उसकी लोकतांत्रिक मजबूरी है. यही वह मोड़ है जहां हमारे लोकतंत्र की ताकत हमारी हिफ़ाजत करती है. वह बीजेपी को मजबूर करती है कि अगर उसे सत्ता पानी है तो अपना विष छोड़ना होगा. छह दिसंबर या ऐसे दूसरे हादसों की किसी कर्मकांडी याद से ज़्यादा ज़रूरी उस प्रतिरोध को बनाए रखना है जो हमारे देश को बहुसंख्यकवाद या अल्पसंख्यकवाद की नकली राजनीति से बाहर लाकर सामाजिक न्याय और बहुलता के स्वाभाविक सिद्धांत से जोड़ता है. वरना बाबरी से दादरी तक जो सिलसिला तरह-तरह के भेस बदलता हुआ चल रहा है, वह समाज को और तोड़ता और तंग करता रहेगा.
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