ग़ालिब को गुजरे सौ साल से ज्यादा हो गए हैं. अभी भी वो ताजा है और दिल पर यों असर करता है जैसे कल का प्रतिभाशाली शायर. अब्दुर्रहमान बिजनौरी ने जो खुद बड़े अदीब और नक्काद यानी आलोचक थे, ग़ालिब के बारे में लिखा हैं कि हिंदुस्तान में दो ही इल्हामी किताबें हैं – एक वेद और दूसरी दीवाने ग़ालिब. मेरे ख्याल से वेद अगर आसमान से उतर जमीन पर आया है तो ग़ालिब का दीवान जमीन से उठकर आसमान तक पहुंचा है. और महान ग्रंथ वे ही होते हैं जो अदना कवि या शायर के लिखे हों और दुनिया जीत लें जैसे शेक्सपियर, कालिदास, खय्याम या ग़ालिब.
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महान साहित्यकार अपने वक्त में तो चमकता ही है बाद में भी उसकी रौशनी और सुगंध कम नहीं होती. इस नजर से ग़ालिब बीसवीं सदी का मॉडर्न अपटूडेट शायर है. इसके सबूत में मैं ग़ालिब के सैकड़ों शेर दे सकता हूं पर मैं ऐसा नहीं करूंगा. इसके बदले में किसी मॉडर्न शायर से सवाल पूछना चाहूंगा कि वह ग़ालिब का कोई ऐसा शेर सुनाए जो भाव की दृष्टि से आज पुराना लगे.
मैंने ग़ालिब को हिंदी में पढ़ा है और जो उसने फारसी में लिखा है, मैं फारसी जानने की मजबूरी से समझ नहीं सका. पर जो उसने उर्दू में कहा है वह पढ़कर मैं बहुत झूमा. अगर हिंदी वालों में चोरी और डकैती के जरा भी गुण हैं तो उन्हें चाहिए कि ग़ालिब को उर्दू से चुरा लाएं. और अगर चुराया न जा सके तो सारी उर्दू जुबान चुरा लाएं. शेक्सपियर, मिल्टन और शॉ की खातिर अंग्रेजी के सभी नाज नखरे और ठसक बर्दाश्त की है, रवींद्र और शरतचंद्र की खातिर बांग्ला की की है तो ग़ालिब की खातिर उर्दू की सही. फिर उर्दू तो एक तरह से हिंदी ही है. वे लोग जहाजों में कूच कर गए जो दोनों में अलग रखने में बड़ी होशियारी बरतते थे.
मैं जब उर्दू और हिंदी को एक कहता हूं तो मैं जानता हूं कि यह जुमला किस तरह करंट मारता है बाज लोगों को. मगर मैं कहता हूं क्योंकि मेरी जुबान न संस्कृत से लदी है न फारसी से. भाषा जिसका एक छोर अरबी-फारसी को छुए, दूसरा छोर संस्कृत को, एक ही है जिसे चाहें आप हिंदी कहिए या उर्दू.
उर्दू तब कहते जब उसकी लिपि देवनागरी से बदल जाती है और फारसी हो जाती है. मैं देवनागरी लिपि जानता हूं, इस वजह से हिंदी का लेखक हूं अगर यही जुबान उर्दू में लिखता तो उर्दू का होता. जैसे प्रेमचंद एक ही बात लिखकर दो भाषाओं के लेखक कहे जाते हैं और कृष्णचंद्र की बांसुरी हिंदी में चैन से बजती है. मैंने अमीर खुसरो, मीर, सौदा, जौक, ग़ालिब, अमीर मीनाई, दाग, हाली, अकबर, जिगर, जोश, फिराक, साहिर और मजाज को हिंदी में पढ़ा है. देवनागरी लिपि में.
मैंने अजीमबेग चुगताई, रतनलाल सरशार, शफीकुर्रहमान, शौकत थानवी, कृष्णचंद्र अहमद नदीम कासमी, इस्मत चुगताई को हिंदी में पढ़ा है. कहे कोई साला कि नहीं पढ़ा है! कुछ लफ्ज नहीं समझा हूं तो भाई कुछ लफ्ज तो मैं सूर तुलसी बिहारी के भी नहीं समझा. अगर मैं चाहूं तो अपनी नासमझी के कारण इन्हें दो जुबान मान लूं. मैं जितना उर्दू के करीब आता हूं मैं उसे अपनी जुबान पाता हूं. जैसे मैं अपने घर के एक कमरे में आ गया जहां कम आया करता था. नहीं समझता हूं तो यों कि पांचवीं क्लास के लड़के नवीं की किताब नहीं समझते और समझ भी लेते हैं तो अक्सर उसका कुछ हिस्सा.
इसी तरह मैंने उर्दू को समझा, पराई जुबान नहीं अपनी जुबान समझकर. जो नहीं समझ पाया वह समझने की कोशिश जारी है. ग़ालिब इस तरह मुझे एक शानदार दरवाजे की तरह लगता है जो मुझे खींचकर एक बाग में ले जाता है जहां बहुत फूल हैं और बहुत रंग. हिंदी के दोस्तों को इस बाग की जानकारी नहीं होती. मीर की तरह खिड़कियां बंद किए बैठे हैं और पूछने पर कि आप यह बाग वाली खिड़की क्यों नहीं खोलते तो आश्चर्य में कहते हैं कि – हांए! क्या उधर बाग भी है.
ग़ालिब को मैं कवि के नाते ही नहीं एक गद्य लेखक के नाते भी महान मानता हूं. मैंने ग़ालिब के पत्र हिंदी में पढ़े हैं और मैं समझता हूं कि हर लेखक को जो यह सीखना चाहता हो कि जिंदगी कैसे लिखी जाती है, वे पत्र पढ़ना चाहिए. जैसे यह टुकड़ा –
‘मियां, बड़ी मुसीबत में हूं. महलसरा की दीवारें गिर गई हैं. तुम्हारी फूफी कहती है कि हाय दबी, हाय मरी. दीवानखाने का हाल महलसरा से बदतर है. मैं मरने से नहीं डरता. फक्रदाने राहत से घबरा गया हूं. छत छनती है. अब्र दो घंटे बरसे तो छत चार घंटे बरसती है. मालिक अगर चाहे कि मरम्मत करे तो क्योंकर करे; मेह खुले तो सब कुछ हो और फिर असनाए मरम्मत में किस तरह बैठा रहूं.’
बहुत मीठी और प्रवाहपूर्ण भाषा जो रोजमर्रा की जिंदगी से उठती है और कवि की पूरी जिंदगी का आइना बन जाती है. महीन से महीन तरंग को वे अपने चुस्त जुमलों में समेट लेते थे. गदर के बाद दिल्ली के हाल बयान करते हुए जो खत उन्होंने लिखे थे वे हमारे इतिहास की संपत्ति हैं. सारे खत उनकी जिंदगी की कहानी कहते हैं. वे खत जो उन्होंने किसी दोस्त या शागिर्द को लिखे थे अब ऐसा लगता है हम सबके नाम लिखे थे. वे गद्य के लाजवाब नमूने हैं.
मैं इसलिए ग़ालिब का तरफदार हूं कि मुझे वह एक मस्ती देता है. जो मस्ती कबीर में है वहीं ग़ालिब में. महान साहित्यकार और महान व्यक्तित्व की यह सबसे बड़ी पहचान है कि वे वर्तमान को संवार देने की क्षमता रखते हैं.
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