‘रहस्य और रोमांच हिंदुस्तानियों की जिंदगी को बहुत आसानी से प्रभावित और आंदोलित करते हैं, और ये दोनों बातें सुभाष चंद्र बोस के जीवन का अभिन्न हिस्सा रहीं’ ...
1959 में प्रकाशित किताब ‘द स्प्रिंगिंग टाइगर’ में यह बात लिखते हुए प्रख्यात ब्रितानी लेखक टोए ह्यूग को शायद ही इस बात का यकीन रहा होगा कि सुभाष चंद्र बोस के जिस रहस्य और रोमांच भरे जीवन का वे हवाला दे रहे हैं, वही रहस्य और रोमांच उनकी मौत के साथ इस तरह, इतने लंबे समय तक चिपका रहेगा. लेकिन हकीकत यही है. भारत सरकार के पास नेताजी से जुड़ी लगभग डेढ सौ फाइलों और 70 हजार दस्तावेजों का भारी भरकम भंडार मौजूद है. लेकिन इसके बाद भी किसी को नहीं पता कि 1941 में अंग्रेजी हुकूमत को चकमा देकर सात समुंदर पार निकल जाने वाले आजाद हिद फौज के इस ‘कमांडर’ का आखिर हुआ क्या?
एक रिपोर्ट के मुताबिक सरकार के पास नेताजी की मौत से जुड़ी 150 फाइलें हैं. इनमें से 37 फाइलें पीएमओ , 77 आईबी तथा 39 विदेश मंत्रालय के पास हैं. इसके अलावा गृहमंत्रालय के पास सत्तर हजार पन्नों का भारी भरकम पुलिंदा भी मौजूद है.
पिछले दिनों आईबी की दो फाइलों के सार्वजनिक हो जाने के बाद एक बार फिर से यह सवाल सबके सामने मुंह बाये खड़ा है. इन फाइलों से जो चौंकाने वाली जानकारी मिली है उसके मुताबिक आजाद भारत में करीब दो दशक तक आईबी ने नेताजी के परिवार की जासूसी की थी. इस जासूसी का असल उद्देश्य किसी को नहीं मालूम. लेकिन अटकलें और आरोप लगाए जा रहे हैं कि यह पंडित जवाहर लाल नेहरू के इशारे पर की गई थी, क्योंकि उन्हें डर था कि कहीं नेता जी जीवित तो नहीं हैं और अचानक सामने आकर उनके लिए चुनौती तो नहीं बन जाएंगे? सवाल वर्तमान केंद्र सरकार की मंशा पर भी लगाए जा रहे हैं कि इतनी फाइलों में से सिर्फ वे ही क्यों सार्वजनिक हुईं जिनसे पंडित नेहरू पर आरोप लगाए जा सकते हैं. लेकिन सच यह है कि ये फाइलें पिछली यूपीए सरकार की गलती की वजह से राष्ट्रीय अभिलेखागार में पहुंचकर आम आदमी की पहुंच के दायरे में आ गईं.
अपनी जासूसी होने का पता लगने के बाद से अचरज में पड़े नेताजी के परिजनों ने केंद्र सरकार से इस पूरे मामले की जांच करने की मांग की है. उन्होंने यह मांग भी की है कि नेताजी की मौत से जुड़ी जितनी भी फाइलें सरकार के पास हैं, उन सभी को सार्वजनिक किया जाए. इतिहासकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और कई अन्य नामी-गिरामी लोगों ने भी नेताजी के परिजनों की इस मांग का समर्थन किया है. इनका मानना है कि इन दस्तावेजों के सार्वजनिक हो जाने से नेताजी की मौत का रहस्य तो खुलेगा ही साथ ही यह पता भी लग जाएगा कि उनके परिजनों की जासूसी क्यों करवाई गई थी.
केंद्र सरकार ने फिलहाल इस मुद्दे पर कुछ भी कहने से इनकार कर दिया है. ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि इसके पीछे उसकी आखिर क्या मजबूरी हो सकती है? वह भी तब जबकि केंद्र की सत्ता में आने से पहले भारतीय जनता पार्टी के कई नेता यह वादा कर चुके थे कि अपनी सरकार बनने की सूरत में वे इन सभी फाइलों को सार्वजनिक कर देगें. वर्तमान गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने तो पिछले साल नेताजी की 117वीं जयंती के दिन उनके जन्मस्थान कटक जाकर खुद यह बात कही थी. लेकिन सत्ता में आने के बाद राजनाथ सिंह ने इन फाइलों को सार्वजनिक करने से साफ इंकार कर दिया. यहां तक कि नेताजी की मौत को लेकर आरटीआई के तहत मांगी गई जानकारी को भी केंद्र सरकार ने देने से इंकार कर दिया है.
वर्तमान गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने तो पिछले साल नेताजी की 117वीं जयंती के दिन उनके जन्मस्थान कटक जाकर खुद यह बात कही थी. लेकिन सत्ता में आने के बाद राजनाथ सिंह ने इन फाइलों को सार्वजनिक करने से साफ इंकार कर दिया
इसी साल फरवरी में जानेमाने आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल के आरटीआई आवेदन पर सरकार के जवाब में कहा गया है कि इन फाइलों के सार्वजनिक होने से कुछ देशों के साथ भारत के मैत्री संबंध खराब हो सकते हैं. सरकार ने लगभग यही जवाब ‘नेताजी मिशन’ नाम के एक संगठन को भी दिया है. यह संगठन नेताजी की मौत से जुड़ी फाइलों को सार्वजनिक किये जाने को लेकर लंबे समय से संघर्षरत है.
सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 8 के तहत सरकार किसी देश के साथ संबंध खराब होने की आशंका होने पर सूचना देने से इंकार तो कर सकती है. लेकिन क्या यह जबाव नेता जी की मौत को लेकर कुछ नई तरह के सवाल खड़े नहीं करता? सवाल यह कि क्या नेताजी की मौत के पीछे किसी ऐसे देश का हाथ था, जिससे भारत के दोस्ताना रिश्ते हैं? और यदि ऐसा है तो क्या नेताजी की मौत के लिए जिम्मेदार रहे देश के साथ दोस्ती बनाये रखना इतना जरूरी है?
रूस का हाथ?
हो सकता है कि कई लोगों को ये दोनों सवाल कोरी कल्पना लगें, लेकिन कई लोगों को इनमें पूरा यकीन भी है. ऐसा मानने वालों में भारतीय जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी भी हैं. उन्होंने तो बाकायदा दावा भी किया है कि नेताजी की मौत के पीछे रूस का हाथ था. उनका आरोप है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में आजाद हिंद फौज की हार के बाद जब नेताजी रुस पहुंचे तो नेहरू के कहने पर स्टालिन ने उन्हें बंदी बना लिया था, जिसके बाद उन्हें साइबेरिया में फांसी दे दी गई थी. ऐसा दावा करते हुए सुब्रमण्यम स्वामी यह आरोप भी लगाते हैं कि नेताजी के परिजनों की जासूसी किये जाने के पीछे नेहरू का ही हाथ था. वे कहते हैं, ‘नेहरू को स्टालिन पर यकीन नहीं था, यही वजह है कि नेताजी की मौत की सूचना मिलने के बाद भी उन्होंने नेताजी के परिजनों की जासूसी जारी रखी.’
उनका आरोप है कि द्वितीय विश्वयुद्ध में आजाद हिंद फौज की हार के बाद जब नेताजी रुस पहुंचे तो नेहरू के कहने पर स्टालिन ने उन्हें बंदी बना लिया था, जिसके बाद उन्हें साइबेरिया में फांसी दे दी गई थी
नेताजी के परिजनों की बात करें तो वे भी उनकी मौत को लेकर नेहरू को ही जिम्मेदार ठहराते आये हैं. उनके अलावा नेताजी के जीवन पर किताब लिखने वाले लेखक अनुज धर भी नेहरू की भूमिका को कठघरे में खड़ा कर चुके हैं. लेकिन कई जानकारों को इसमें किसी और का हाथ नजर आता है. उनका तर्क है कि यदि नेताजी की मौत में पंडित नेहरू का ही हाथ होता तो भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार इन फाइलों को कब का सार्वजनिक कर चुकी होती. ऐसा करने से उसे दो तरह के सियासी लाभ होते. एक, कांग्रेस पार्टी की बची-खुची जमीन भी नेस्तनाबूद हो जाती और दूसरा नेताजी की मौत से जुड़े राज सामने लाने का श्रेय भी उसे मिल जाता. देखा जाए तो इन तर्कों में वाकई में दम नजर आता है. ब्रिटेन की कारस्तानी? कई लोगों को नेताजी की मौत के पीछे ब्रिटिश सरकार का हाथ भी नजर आता है. ऐसा मानने वाले यह आशंका जताते हैं कि 1941 में जब नेताजी अंग्रेजों की नजरबंदी को आइना दिखाते हुए भारत से निकलने में कामयाब हुए तो अंग्रेजों को अंदाजा हो गया कि वे उनके लिए किस कदर खतरा बन सकते हैं. ऐसे में बहुत संभव है कि ब्रिटिश एजेंटों ने किसी देश के साथ मिल कर उनकी हत्या कर दी हो. हालांकि बहुत से लोगों को इस तर्क में उतना दम नजर नहीं आता. हवाई दुर्घटना का अंतिम सत्य? बहरहाल नेताजी की मौत को लेकर अब तक जो सार्वजनिक जानकारी मौजूद है उसकी ही यदि बात करें तो उसके मुताबिक नेताजी की मौत 18 अगस्त 1945 को एक हवाई दुर्घटना में हुई थी. बताया जाता है उन्हें अंतिम बार टोक्यो हवाई अड्डे पर ही देखा गया था. लेकिन इस घटना को लेकर कई तरह के सवाल सामने आ चुके हैं. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि न तो नेताजी का शव बरामद हो पाया था और न ही उनके शव की कोई अंतिम तस्वीर अब तक सामने आई है. सत्याग्रह की ही पुरानी रिपोर्ट, ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस कहां गायब हो गए?’ में भी कई सवालों का जिक्र मौजूद है.
यदि नेताजी की मौत में पंडित नेहरू का ही हाथ होता तो भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार इन फाइलों को कब का सार्वजनिक कर चुकी होती. ऐसा करने से उसे दो तरह के सियासी लाभ होते
यदि इसी हवाई दुर्घटना को नेताजी की मौत का कारण मान लिया जाए, तो भी सवाल खड़ा होता है कि इस सूचना को सार्वजनिक करने में सरकार को क्या दिक्कत है? क्या किसी देश के हवाई जहाज के दुर्घटनाग्रस्त होने की जानकारी सार्वजनिक करना उस देश के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों को खराब करने का कारण बन सकता है?
साफ है कि मामला कुछ और ही है, और उसका पता तभी लग सकता है जब ये फाइलें सार्वजनिक हो जाएं. लेखक अनुज धर भी यही मानते हैं कि उऩकी मौत 18 अगस्त 1945 को नहीं हुई थी. इसके अलावा नेताजी के साथ आजाद हिंद फौज में शामिल रहे कई सिपाही भी इस तथ्य को गलत बता चुके हैं. ऐसे ही एक सिपाही से तो खुद प्रधानमंत्री पिछले साल लोकसभा चुनाव से पहले मिल चुके हैं. अपने चुनाव क्षेत्र बनारस में आठ मई को रैली करने पहुंचे मोदी ने तब बकायदा मंच पर झुककर उनके पैर छुए थे. 103 साल के हो चुके उस बुजुर्ग का नाम कर्नल निज़ामुद्दीन है. खुद को नेताजी का चालक बताने वाले निजामुद्दीन का दावा है कि बोस की मौत को लेकर हवाई दुर्घटना वाली बात पूरी तरह से झूठी है. उन्होंने तब यह उम्मीद भी जताई थी कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद उन सभी फाइलों को सार्वजनिक कर देंगे, जिसके बाद नेताजी की मौत का राज खुल जाएगा.
ऐसे में सवाल फिर से वहीं आकर खड़ा हो जाता है, कि आखिर इन फाइलों में ऐसा कौन सा राज दफन है जिसे सबको सार्वजनिक करने को लेकर केंद्र सरकार डर रही है.
तहखाने में कितने और कैसे-कैसे दस्तावेज?
नेताजी की मौत से जुड़े दस्तावेजों की बात करें तो एक रिपोर्ट के मुताबिक सरकार ने पिछले साठ सालों में उनकी मौत से जुड़ी लगभग डेढ सौ फाइलें तैयार की हैं. इन फाइलों में 37 फाइलें अकेले प्रधानमंत्री कार्यालय के पास हैं. इन 37 फाइलों में 4 टॉप सीक्रेट, 20 सीक्रेट, 5 कॉन्फिडेंशियल तथा 8 अनक्लासिफाइड हैं. इसके अलावा आईबी के पास 77 तथा विदेश मंत्रालय के पास 39 फाइलें हैं, इन 39 फाइलों में भी 8 को टॉप सीक्रेट की श्रेणी में रखा गया है. इसके अलावा केंद्रीय गृहमंत्रालय के पास सत्तर हजार पन्नों का भारी भरकम पुलिंदा भी मौजूद है. ये सभी दस्तावेज यदि सार्वजनिक हो जाते हैं तो कल्पना की जा सकती है कि नेताजी के बारे में ऐसी कितनी जानकारियां सामने आ सकती हैं, जो बीते हुए कल से लेकर आने वाले कल तक की एक अलग तस्वीर खींच देंगीं.
लेकिन पारदर्शिता, राष्ट्रहित, आजादी के नायकों का सम्मान और न जाने किन-किन बातों का दम भरने वाली केंद्र सरकार ऐसा कब तक करेंगी, यह कहना बेहद मुश्किल लगता है. सवाल तो यह भी है कि सरकार ऐसा करेगी भी या नहीं?
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