किताब का एक अंश : ‘क्यों नहीं चलने देते तुम मुझे? क्यों मुझे रह-रहकर नजरों से नंगा करते हो? क्यों तुम्हें मैं अकेली चलती नहीं सुहाती? मेरे महान देश के महान नारी-पूजको, जवाब दो. मेरी महान संस्कृति के रखवालो, जवाब दो! मुझे बताओ मेरी कल्चर के ठेकेदारों, क्यों इतना मुश्किल है एक लड़की का अकेले घर से निकलकर चल पाना? जो समाज एक लड़की का अकेले सड़क पर चलना बर्दाश्त नहीं कर सकता, वह समाज सड़ चुका है. वह कल्चर जो एक अकेली लड़की को सुरक्षित महसूस नहीं करा सकती, वह गोबर कल्चर है. उस पर तुम कितने ही सोने-चांदी के वर्क चढ़ाओ, उसकी बास नहीं रोक पाओगे, बल्कि और धंसोगे. मेरी बात सुनो, इस गोबर को जला दो!’
किताब - आजादी मेरा ब्रांड
लेखिका - अनुराधा बेनीवाल
प्रकाशन - सार्थक
मूल्य - 199 रुपये
तसलीमा नसरीन अपनी किताब ‘नष्ट लड़की नष्ट गद्य’ में लिखती हैं, ‘नष्ट लड़की ही दुनिया की सबसे सुखी लड़की होती है…’ ‘नष्ट’ माने ‘गंदी लड़की’, बिगड़ैल, आवारा, बेपरवाह, जो सिर्फ अपनी सुनती है. जिसे परिवार और समाज की मर्यादा, संस्कार, धर्म कोई अपनी बेड़ी में नहीं जकड़ सकता. जिसे जीने की लत लग जाए.

अनुराधा बेनीवाल एक ऐसी ही लड़की है जिसने खुद को जीने की लत लगवाई है. एक ऐसी लड़की जिसने साल-दर-साल अपने ‘अच्छी लड़की’ होने का सर्टिफिकेट रिन्यू कराया लेकिन एक दिन अचानक एक अंजान लड़की की संगत में आते ही खुद अपना ‘अच्छी लड़की’ होने का सर्टिफिकेट फाड़ दिया. इस बात का अनुराधा को कोई अफसोस भी नहीं है, ‘अच्छी और बुरी लड़की का भेद ही उसे जैसे नहीं मालूम था! उसकी लत मुझे तब कुछ यूं लगी कि मैं जल्दी ही उस बुरी लड़की की साथी बन गई. सच बताऊं, मुझे तो वह बहुत अच्छी लगती थी. आज तक की सब अच्छी लड़कियों से अच्छी!’
यह घुमक्कड़शास्त्र भारत की उन तमाम स्त्रियों के लिए स्वंतत्रता का घोषणापत्र-सा मालूम पड़ता है जो अपने एकतरफा संस्कार, धर्म, मर्यादाओं की बेडि़यों में कैद हैं
अनुराधा की किताब ‘आजादी मेरा ब्रांड’ यूं तो एक यात्रा-वृतांत है पर असल में यह समाज में विमर्श पैदा करती किताब है. यहां नारीवाद जैसा कोई वाद नहीं है लेकिन पूरी किताब लड़कियों के सम्मान के साथ जिंदा रहने, अपनी निजता और स्पेस खोजने की वकालत करती है. सबकुछ भूलकर घूमने की हिमायत करती है. सिर्फ घूमने के दम पर अनुराधा खुद लड़कियों और पूरे समाज की सोच को बदलने की बात करती हैं, ‘तुम चलोगे तो तुम्हारी बेटी भी चलेगी और मेरी बेटी भी. जब सब साथ चलेंगी तो सब आजाद, बेफिक्र और बेपरवाह ही चलेंगी. दुनिया को हमारे चलने की आदत हो जाएगी. अगर नहीं होगी तो आदत डलवानी पड़ेगी, डरकर घर में मत रह जाना. तू खुद अपना सहारा है. तुम अपने-आप के साथ घूमना. अपने तक पहुंचने और अपने-आप को पाने के लिए घूमना; तुम घूमना!‘
इस किताब को आप जितना पढ़ते जाते हैं, आपके दिमाग के साथ-साथ पैर घूमने के लिए मचलने लगते हैं. यह घुमक्कड़शास्त्र भारत की उन तमाम स्त्रियों के लिए स्वंतत्रता का घोषणापत्र-सा मालूम पड़ता है जो अपने एकतरफा संस्कार, धर्म, मर्यादाओं की बेडि़यों में कैद हैं. अपने देश में जहां एक गली से मुख्य सड़क तक आने के लिए कार में लिफ्ट लेने की हिम्मत नहीं होती, अनुराधा ने नौ-दस देश ‘हिच हाईक’ (लिफ्ट लेकर एक जगह से दूसरी जगह जाना) करते घूम लिए!
अनुराधा न कोई लेखिका हैं और न ही कोई समाज विज्ञानी पर स्त्रियों की दुखद स्थिति को लेकर, पुरुषों और समाज में सकरात्मक बदलाव की जरूरत को लेकर उनके सरोकार गहरे हैं. पूरी किताब में जब तब किसी न किसी बहाने उनके ये सरोकार सामने आते हैं, ‘सहूलियत के अनुसार सबसे पहले आदमी ढलता है, संस्कृति का बोझ औरतों को सौंपकर. फिर धीरे-धीरे महिलाएं भी बदलती हैं, लड़-झगड़कर. आपने कभी गौर किया है, आदमी को अपनी सहूलियतों के अनुसार ढलने के लिए किसी से लड़ना नहीं पड़ता. वह जैसे चाहे बदल जाता है क्योंकि उसके ऊपर संस्कृति को ढोने का भार नहीं होता. उसे अपने शर्ट्स या टी-शर्ट को जस्टिफाई नहीं करना पड़ता. लेकिन एक महिला को पर्दे से निकलने के लिए जाने कितने झंडे उठाने पड़ते हैं.’
अनुराधा जानना चाहती हैं कि लाखों मील की दूरी पर बसे देशों में आखिर वह क्या चीज है जो वहां की महिलाओं को इतनी आजादी, सुरक्षा, आत्मनिर्भरता, बेपरवाही और बेफिक्री देती है
अनुराधा इस समाज की आंख में आंख डालकर बहुत सारे सवाल पूछती हैं, ‘आखिर एक लड़के को एक लड़की के साथ बेहतर जीवन जीने की तैयारी पहले से क्यों नहीं करनी चाहिए?’ यह देखकर कुछ जलन सी होती है कि जितनी सुरक्षा हमें अपने घर और अपने देश के भीतर नहीं मिलती, उससे कहीं ज्यादा सुरक्षित लेखिका खुद को अंजान देश के अंजान लोगों के बीच पाती है. अनुराधा यूरोप के 13 शहरों में अंजान लोंगों के घर रुकीं. अंजान लोगों के साथ कार में लंबी यात्रा की.
हम अपने देश की राजधानी में देर रात अकेले टैक्सी लेने की हिम्मत नहीं कर सकते. लेकिन अनुराधा बेवक्त, रात के किसी भी पहर टैक्सी लेती हैं. प्राग में जब आधी रात को टैक्सी लेकर लेखिका ड्राइवर से वहां लड़कियों की सुरक्षा के बारे में सवाल करती हैं तो ड्राइवर को उनका यह सवाल ही समझ नहीं आता कि वे किस तरह की असुरक्षा की बात कर रही हैं! बेहद खुलकर पूछने पर जवाब मिलता है कि पिछले 40 सालों से वहां ऐसी कोई आपराधिक घटना हुई ही नहीं.
यूरोप के अलग-अलग देशों के ये शहर घूमने के बाद, भरपूर आजादी और अजनबियों के बीच सुरक्षा को आकंठ जी लेने के बाद भी इस घुमक्कड़ के मन में एक टीस गहराती जाती है. वह टीस है अपने देश, अपनी धरती, अपने शहर में, अपनी गलियों में सुरक्षित और बेपरवाह घूमने की.
अनुराधा जानना चाहती हैं कि लाखों मील की दूरी पर बसे देशों में आखिर वह क्या चीज है जो वहां की महिलाओं को इतनी आजादी, सुरक्षा, आत्मनिर्भरता, बेपरवाही और बेफिक्री देती है. लेखिका उस अंजान चीज को अपने देश की हवा और मिट्टी में मिला देना चाहती है पर थक हारकर वापस आने पर भी उसे वह चीज नहीं मिलती, ‘चीख़ते-चीख़ते अब मैं रोने लगी थी. मैं वह चीज लिए बिना नहीं जाऊंगी. मैं रास्ते में चलते लोगों से वह चीज मांगती रही. प्लीज, मुझे वह चीज दे दो. मैं अपने देश ले जाना चाहती हूं. मैं अपने देश में जीना चाहती हूं. मैं अपने देश में चल सकना चाहती हूं. वैसे, जैसे चलना चाहिए किसी भी मनुष्य को, क्या मर्द, क्या औरत! बेफिक्र, बेपरवाह, स्वतंत्र मन और स्वतंत्र विचार से, स्वतंत्रता के अहसास से!’
यह किताब टूरिस्ट और घुमक्कड़ के बीच का फर्क बड़ी सहजता और भोलेपन से समझाती है. शहर टूरिस्टों को लूटता है, जबकि घुमक्कड़ों से दोस्ती करता है
यह किताब टूरिस्ट और घुमक्कड़ के बीच का फर्क बड़ी सहजता और भोलेपन से समझाती है. शहर टूरिस्टों को लूटता है, जबकि घुमक्कड़ों से दोस्ती करता है, ‘जब आप थोड़े समय के लिए ही किसी नए शहर में होते हैं तो होटल में रहकर सिर्फ पोस्टकार्ड वाला शहर ही देख पाते है. शहर की आत्मा छुपी रह जाती है. आप टूरिस्ट होते हैं तो शहर भी आपको टूरिस्ट जैसे ही ट्रीट करता है. वह आपसे पैसे भी ज्यादा लेता है. लेकिन अगर आप शहर में टूरिस्ट नहीं, दोस्त के जैसे रहते हैं तो शहर भी आपको दोस्त जैसे ही ट्रीट करता है.’
अनुराधा की यह किताब दो तरह की यात्राओं का बयान है. एक यात्रा खुद के भीतर की, खुद को जानने और खुद तक पहूंचने की, इस भरी भीड़ में अपने स्पेस को खोजने की और दूसरी बाहरी दूनिया को बेवजह देखने की. घुमक्कड़ी कैसे जीवन की सबसे बड़ी पाठशाला है, यह इस किताब इसका बेहद खूबसूरत उदाहरण है.
यह किताब किसे पढ़नी चाहिए -
1- गांव, कस्बे, छोटे-बड़े शहर की हर लड़की को जो समाज में, दुनिया में अपनी जगह ढूंढ़ने और बनाने के लिए तड़प रही है.
2- कम बजट में दुनिया घूमने की चाह रखने वालों को
3- उन लोगों को जिन्हें भ्रम है कि औरतों की इज्जत इस देश से ज्यादा दुनिया में कहीं नहीं होती.
यह किताब किसके लिए नहीं है -
जो लोग स्त्रियों/लड़कियों के स्पेस से, उनकी आजादी, सोच, आत्मनिर्भरता और बेपरवाही से खौफ खाते हैं, उन्हें इससे दूर रहना चाहिए.
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