यह पिछले साल फरवरी में 11 तारीख की बात है. 31 साल की नीता (बदला हुआ नाम) अपने घर में सो रही थीं. रात के तकरीबन साढ़े ग्यारह बजे अचानक ही बाहर से लड़ाई-झगड़े की आवाजें आने लगीं. नीता जब अपनी सास के साथ बाहर निकलीं तो देखा कि उनका देवर एक लड़के साथ गाली-गलौज कर रहा है. उसका कहना था कि नीता के इस लड़के के साथ अवैध संबंध हैं. नीता ने जब इस बात से इनकार किया तो देवर ने उन्हें वहीं पीटा.
दो दिन बात ही एक जाति पंचायत बुलाई गई. यहां नीता को अपनी बेगुनाही साबित करनी थी. नीता इस पंचायत के बारे में बताती हैं, ‘पंचायत के लोगों ने मेरी बेगुनाही साबित करने के लिए एक शर्त रखी. उन्होंने कहा कि एक किलो की एक कुल्हाड़ी रातभर आग के बीच रखी जाएगी. अगले दिन मेरा बड़ा बेटा गर्म कुल्हाड़ी को हाथ में लेकर सात मीटर तक का फासला तय करेगा. इस दौरान उसका हाथ नहीं जला तो मैं निर्दोष मानी जाऊंगी.’
'पंचायत के मुताबिक मेरे बेटे को रातभर गर्म की गई कुल्हाड़ी हाथ में लेकर कुछ दूरी तय करनी थी. इसमें यदि उसका हाथ नहीं जलता तो मुझे निर्दोष माना जाता'
कंजरभाट समुदाय से आने वाली नीता के पति की कुछ साल पहले मौत हो चुकी है. उनके दो लड़के हैं जिनमें एक 10 साल का है और दूसरा 12 साल का. उस दिन नीता ने पंचायत की इस शर्त को मानने से सीधे-सीधे मना कर दिया. इस पर जाति पंचायत ने दूसरी विधि सुझाई. इसके अनुसार नीता को निर्वस्त्र होकर अपने शरीर पर सवा मीटर का कपड़ा लिए एक गोल घेरे में 107 कदम चलना था. इस दौरान दो औरतें उन्हें कपास की लकड़ियों और आटे के गर्म गोलों से मारतीं. इस सबके बाद उन्हें पंचों के सामने दूध और पानी से नहाना पड़ता. पंचायत का कहना था कि यदि वे यह शर्त मानती हैं तो पंचायत उन्हें शुद्ध मानते हुए माफ कर देगी.
नीता पंचायत के इस परीक्षण के लिए भी तैयार नहीं हुईं. तब से वे पंचायत द्वारा सुनाई सजा को भुगत रही हैं. वे बताती हैं, ‘पंचायत ने मुझे मेरे घर से निकाल दिया. मजबूरी में मुझे अपने मां-बाप के घर रहना पड़ रहा है.’ नीता फिलहाल अपने दो बच्चों के साथ नासिक के ओझर में रह रही हैं. इस पूरी घटना का एक और त्रासद पहलू यह है कि कंजरभाट जाति पंचायत नीता और उनके परिवार द्वारा उसकी बात न मानने के एवज में अब तक जुर्माने के रूप में 90,000 रुपये वसूल चुकी है. इसके अलावा नीता और उनके मां-बाप को आज भी धमकियां मिलती हैं.
नीता के मुताबिक उन्होंने पहली बार इस घटना की शिकायत नंदुरबार पुलिस थाने में फरवरी में ही दर्ज करवाने की कोशिश की थी लेकिन, उनकी शिकायत दर्ज नहीं हुई. इसी फरवरी में उन्होंने ओझर में जाति पंचायत के खिलाफ फिर से शिकायत दर्ज करवाई थी. यहां से यह शिकायत नंदुरबार थाने में भेजी गई. हालांकि अभी तक इसपर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है. नीता बताती हैं, ‘पुलिस ने आरोपितों को गिरफ्तार नहीं किया. उसने जाति पंचायत से बस यह प्रतिज्ञापत्र भरवा लिया है कि वे आगे से ऐसा कुछ नहीं करेंगे. पुलिस कहती है कि गवाह लाओ, अब मैं जाति पंचायत के खिलाफ कहां से गवाह लाऊं.’ इस मामले पर जब हमने संबंधित थाने के पुलिस उपनिरीक्षक दत्तात्रेय गुल्लिंग से बात की तो उनका कहना था, ‘हमारी जांच चल रही है, लेकिन कोई गवाह नहीं मिल रहा है. हमने आरोपितों को थाने बुलाकर उनसे प्रतिज्ञापत्र ले लिया है. उनकी अग्रिम जमानत के खिलाफ भी हमने आपत्ति जताई है. जल्दी ही हम उन्हें गिरफ्तार कर लेंगे.’
कंजरभाट जाति पंचायत द्वारा नीता के उत्पीड़न का मामला महाराष्ट्र में अपनी तरह का अकेला मामला नहीं है. यहां कई जातियां हैं जहां जाति पंचायत कानून से ऊपर समझी जाती है
नीता की शिकायत में नंदुरबार जाति पंचायत के एक सदस्य दीपक तमायची का नाम भी शामिल है. वे अपने ऊपर लगे आरोप को गलत बताते हैं. दीपक कहते हैं, ‘यह सब झूठ है. हमारे यहां पंचायत नहीं लगती और न मैं किसी पंचायत का सदस्य हूं.’ हालांकि सत्याग्रह के पास मौजूद जाति पंचायत के दस्तावेज दीपक की बात को झुठलाते हैं. इन दस्तावेजों के मुताबिक वे कंजरभाट समाज की महाराष्ट्र राज्य पंच कमिटी के सदस्यों में से एक हैं.
महाराष्ट्र में कई जाति पंचायतें हैं
कंजरभाट जाति पंचायत द्वारा नीता के उत्पीड़न का मामला महाराष्ट्र में अपनी तरह का अकेला मामला नहीं है. यहां कई जातियां हैं जहां आज भी जाति पंचायतें कानून से ऊपर समझी जाती हैं. राज्य में बेराढ़, कंजरभाट, रामोशी, कैकाड़ी, राज पारधी, फासे पारधी, वडार, भाटमा, वैदु, कोल्हाटी, जोशी, गोंधाली, घिसाड़ी, बेलदार, बेसतर, राजपूत भाटमा आदि घुमंतु जनजातियां पाई जाती हैं. विमुक्त, घुमंतु और अर्ध-घुमंतु जनजातियों (एनसीडीएनटी) आयोग के मुताबिक महाराष्ट्र में इनकी आबादी का कुल आंकड़ा तकरीबन डेढ़ करोड़ है.
स्थानीय भाषा में इन पंचायतों को गावकी कहा जाता है. इनका एक अपना संविधान होता है. इसे ‘घटना’ कहा जाता है और सारे फैसले इसी के मुताबिक होते हैं.
महाराष्ट्र की जाति पंचायतें 2013 में सबसे पहले राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आई थीं. यह उस साल जुलाई की बात है. तब नासिक में एकनाथ कुंभारकर ने अपनी 18 साल की बेटी प्रेमिला की गला घोंटकर हत्या कर दी थी. कुंभारकर भटके जोशी जनजाति में आते हैं. प्रेमिला ने अंतरजातीय शादी की थी और इस वजह से जाति पंचायत ने उनके परिवार का बहिष्कार कर दिया था. पंचायत का कहना था कि यदि एकनाथ को अपनी जाति में वापस आना है तो उन्हें अपनी बेटी की हत्या करनी होगी. यही निर्देश प्रेमिला की हत्या की वजह बना. इस घटना को उजागर करने में डॉ नरेंद्र दाभोलकर और उनकी महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति की काफी महत्वपूर्ण भूमिका थी.
स्थानीय भाषा में इन पंचायतों को गावकी कहा जाता है. इनका एक अपना संविधान होता है. इसे ‘घटना’ कहा जाता है और सारे फैसले इसी के मुताबिक होते हैं
इस घटना के बाद जाति पंचायतों की बर्बरता के और भी कई उदाहरण सामने आए. नवंबर, 2014 में रायगढ़ जिले के खाजणी गांव की 35 वर्षीय मोहिनी तलेकर ने जाति पंचायत के बहिष्कार से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी. दरअसल मोहिनी ने अपने गांव होली से जुड़े एक कार्यक्रम में बच्चों को जाने से मना कर दिया था और उनके इस फैसले से नाराज पंचायत ने उनके परिवार का बहिष्कार का फैसला सुनाया था.
एक मामला तो इसी साल जनवरी का है. दीपक भोरे गोंधाली समुदाय से आते हैं. उन्होंने तकरीबन दो साल पहले अपने पिता के इलाज के लिए गोंधाली समाज की जाति पंचायत से 75,000 रुपये उधार लिए लिए थे. उन्होंने पंचायत को 10,000 रुपये तो लौटा दिए लेकिन बाकी पैसा वे समय पर नहीं लौटा पाए. दीपक के चाचा सुभाष उगले बताते हैं, ‘दीपक ने बाकी पैसे लौटाने के लिए कुछ मोहलत मांगी थी. लेकिन पंचायत नहीं मानी और उसे परेशान करना शुरू कर दिया. उसके घर का पूरा सामान लूट लिया.’ अब पंचायत बाकी रुपये पर ब्याज लगाकर दीपक से पांच लाख रुपये वसूलना चाहती है. सुभाष बताते हैं, ‘ दीपक ने जब इतने रुपये लौटाने पर असहमति जताई तो पंचायत सदस्यों ने इसके बदले उसकी पत्नी से शारीरिक संबंध बनाने की मांग रखी.’ अब दीपक अपनी पत्नी के साथ नासिक आ गए हैं और सुभाष के साथ ही रहते हैं.
यह मामला उजागर होने के बाद राज्य में काफी हो-हल्ला मचा था. बाद में सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से गोधाली पंचायत को बंद करा दिया गया.
महिलाएं जाति पंचायतों के फैसलों की सबसे बड़ी शिकार होती हैं
जाति पंचायतों के सदस्यों में महिलाओं की भागीदारी ना के बराबर होती है लेकिन सबसे ज्यादा शोषण उन्हीं का होता है. कंजरभाट समुदाय की एक महिला नाम न बताने की शर्त पर जानकारी देती हैं, ‘हमारी जाति में शादी के बाद लड़कियों के कुंवारे होने की जांच होती है. शादी की रात लड़के के परिवार की महिलाएं यह जांच करती हैं. इसके बाद लड़के को उसके साथ कमरे में भेजा जाता है. उनके बिस्तर पर एक सफेद कपड़ा बिछाया जाता है. शादी के अगले दिन यदि इसपर खून के निशान मिलते हैं तो लड़की को पवित्र माना जाता है.’
कंजरभाट समुदाय में शादी के अगले दिन पंचायत की बैठक होती है. यहां लड़के से पूछा जाता है कि लड़की का ‘चरित्र’ ठीक है या नहीं
कंजरभाट समुदाय में शादी के अगले दिन पंचायत की बैठक होती है. यहां लड़के से पूछा जाता है कि लड़की का ‘चरित्र’ ठीक है या नहीं. बिस्तर के ऊपर बिछे सफेद कपड़े को पंचायत को सौंपा जाता है. इसपर खून के निशान होते हैं तो पंचायत शादी को मान्यता देती है नहीं तो लड़की को वापस उसके घर भेज दिया जाता है. फिर इस लड़की की शादी कभी नहीं हो पाती.
इस क्षेत्र में काम कर रहे एक सामाजिक कार्यकर्ता नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं, ‘कौमार्य परीक्षण बहुत गलत प्रथा है लेकिन पंचायतों के डर की वजह से कोई इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाता. ये पंचायतें तो हत्या और बलात्कार तक के मामलों में फैसला सुना देती हैं और सबको उन्हें मानना पड़ता है.’ अखिल भारतीय सहंसमल भांतु समाज संघ (इसके अंतर्गत कंजरभाट, सांसी, भेड़कूट आदि जातियां आती हैं) के सलाहकार मूरचंद भाट इन आरोपों से इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘लोग पंचायतों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बोलते हैं. पंचायतों में भी गुट होते हैं जो एक दूसरे को नुकसान पहुंचाने के लिए बदनामी करते हैं.’
कोल्हापुर में रहने वाले जाति पंचायत के एक सदस्य से जब हमने बलात्कार और हत्या के मामलों में पंचायती कार्रवाई के बारे में पूछा तो उनका कहना था, ‘हत्या के मामले में दोषी पीड़ित परिवार को मुआवजा देता है. बलात्कार के मामले में दोषी को पीड़िता से शादी करनी पड़ती है या अपने निर्दोष होने के लिए एक रस्म पूरी करनी पड़ती है. इस धीजबोला कहा जाता है. जिस व्यक्ति पर आरोप लगा है उसे लोहे की गर्म छड़ लेकर 21 कदम चलना पड़ता है. इस दौरान यदि उसके हाथ में जलने के निशान आ गए तो इसका मतलब है कि वो दोषी है.’
महाराष्ट्र में यदि जाति पंचायतों की बर्बरता आज भी देखने को मिल जाती है तो इसकी एक बड़ी वजह ये है कि यहां इससे जुड़े कोई विशेष कानून नहीं हैं
कृष्णा चांदगुड़े महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के सदस्य हैं. उनका संगठन 2013 से जाति पंचायतों के खिलाफ अभियान चला रहा है. अब तक उनका संगठन 11 जाति पंचायतों को भंग करवा चुका है. वे बताते हैं, ‘इन पंचायतों के नाम पर लोगों का भारी शोषण किया जाता है. क्रूर सजाएं दी जाती हैं. यहां भी ज्यादातर मामलों में महिलाएं इनका शिकार बनती हैं और उनकी कोई सुनवाई नहीं होती. यहां ऐसी सैकड़ों घटनाएं हुई हैं लेकिन कभी इनकी शिकायत पुलिस में दर्ज नहीं हो पाई.’
सामाजिक कार्यकर्ता संतोष पवार ने पारधी समाज की जाति पंजायतों के ऊपर मराठी भाषा में ‘पारद्या ची पंचायत’ शीर्षक से किताब लिखी है. वे बताते हैं, ‘इन पंचायतों के फैसले ज्यादातर महिलाओं के मामले में होते हैं और उनके खिलाफ जाते हैं. यहां ऐसी क्रूर सजाएं देने के उदाहरण मौजूद हैं कि सुनकर रूह कांप जाए. यदि पंचायत के बीच किसी औरत के खिलाफ अवैध संबंध का मामला आता है तो उसे खौलते तेल में हाथ डालकर अपनी बेगुनाही साबित करनी पड़ती है. ऐसे लोगों और परिवारों का आजीवन जाति बहिष्कार कर दिया जाता है.’
महाराष्ट्र में यदि जाति पंचायतों की बर्बरता आज भी देखने को मिल जाती है तो इसकी एक बड़ी वजह ये है कि यहां इससे जुड़े कोई विशेष कानून नहीं हैं. 1949 में यहां एक कानून बनाया गया था लेकिन इसे 1963 में खत्म कर दिया गया. 1985 में सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ विधानसभा में एक अध्यादेश पारित किया गया था लेकिन यह कभी कानून की शक्ल नहीं ले सका. 2013 में महाराष्ट्र के गृह मंत्रालय ने लोगों का सामाजिक बहिष्कार रोकने के लिए एक नोटिफिकेशन जारी किया था. इसके मुताबिक इस तरह की घटनाओं पर भारतीय दंड संहिता की कुछ धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज किए जाने का प्रावधान था लेकिन राज्य में यह इसलिए अप्रभावी है क्योंकि जाति पंजायतों से जुड़ी घटनाएं बमुश्किल ही उजागर हो पाती हैं.
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