फणीश्वर नाथ रेणु ने अपने उपन्यास ‘परती परिकथा’ के शुरू में ही एक दृश्य रचा है. यह आधी रात में चिड़ियों की आवाज को शब्द और अर्थ देने की एक कोशिश है. रात गहरी हो रही है और नर और मादा चिड़ियों के बीच जैसे संवाद चल रहा है. ‘ये हे ये’ जैसे कह रहा हो - ‘जगी हो कि सो गई.’ फिर मादा चिड़िया की अलसाई नींद में कुनमुनाती आवाज - ‘एह एह ये ये’ - ‘जगी ही तो हूं’. फिर से नर की बोली ‘एह एह एह एह’ जैसे कह रहा हो –‘हां, जगी ही रहना...’ इस प्रयोग में ताजगी भी है, कल्पना भी. नरमी भी है तो सजीवता भी. रस से भरी इस भाषा में प्राण और जीवन जैसे दोनों मिलकर एक हो रहे हों.


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रेणु के लेखन में दृश्य किसी फिल्म की तरह आपके आगे से गुजरते हैं. चरित्र की एक-एक रेखा जैसे खुलती जाती है. कोई नैना जोगिन हो या कोई लाल पान की बेगम (बिरजू की मां), कोई निखट्टू कामगार पर गजब का कलाकार सिरचन हो या चिट्ठी घर-घर पहुंचाने वाला संवदिया हरगोबिंद या फिर ‘इस्स’ कहकर सकुचाता हीरामन और अपनी नाच से बिजली गिराती हीराबाई या फिर पंचलाईट ‘पेट्रोमेक्स’ के आने से खुश, चौंधियाए और डरे हुए गांव के भोले–भाले लोग हों, सबके बारे में यह बात कही जा सकती है.

यहां अगर कोसी-बांध के बनने के समय का विकासशील गांव है तो मैला आंचल का रूढ़ियों और पुरानेपन में जीता एक अनगढ समाज भी. कुल मिलाकर आजादी के बाद के गांवों का एक भरा-पूरा चेहरा. कूखनी चिड़िया (कराहने वाली चिड़िया) सिर्फ रेणु की कहानी में ही मिल सकती है, उनकी रचनाओं में खूब–खूब मिलने वाले पंडुक, महोक और दूसरी जीती-जागती चिड़ियों की तरह.

ऐसे बहुत कम लेखक होते हैं जो अपने जीते जी ही किंवदंतियों का हिस्सा हो जाते हैं. जो अपने समय के रचनाकारों के लिए प्रेरणा और जलन दोनों का कारण एक साथ ही बनते हैं. रेणु ऐसे ही थे. अज्ञेय तो खैर उनके घनिष्ठ मित्र ठहरे. उनके द्वारा उन्हें ‘धरती का धनी कथाकार’ कहा जाना उतनी बड़ी बात नहीं थी. लेकिन रेणु की साहित्यक धारा से बिल्कुल अलग लिखने वालों को भी उनकी कलम की ताकत से इनकार नहीं था.

रेणु ने नई कहानी आंदोलन को खारिज किया था. इस आंदोलन को शुरू करने वाली तिकड़ी में शामिल और नगरीय सभ्यता के मशहूर कहानीकार कमलेश्वर रेणु के बारे में कहते हैं, ‘बीसवीं सदी का यह संजय रूप, रंग, गंध, नाद, आकार और बिंबों के माध्यम से महाभारत की सारी वास्तविकता... सबको बयान करता है.’ निर्मल वर्मा रेणु के समकालीन कथाकार रहे हैं. एकांत के एकालाप और निर्जन को अपने शब्दों में बहुत एहतियात से रचनेवाले इस लेखक के रेणु के बारे में जो विचार थे वे भी कम चौंकाने वाले नहीं हैं - ‘मानवीय दृष्टि से संपन्न इस कथाकार ने बिहार के एक छोटे भूखंड की हथेली पर किसानों की नियति की रेखा को जैसे उजागर कर दिया था.’

एक अचरज वाली बात यह है कि ये सब के सब लेखक संभ्रांत थे. सभी आधुनिक वेश-भूषाधारी और आधुनिकता के पक्षधर. ऐसे में एक धोती-कुर्ताधारी और गांव में रहनेवाले लेखक की इस तरह से की जानेवाली तारीफ कम चौंकाने वाली नहीं है.

रेणु का एकाएक उभरना मठों में बैठे लेखकों के लिए परेशान करनेवाला था. उन्हें प्रसिद्धि जितनी जल्दी मिली, इल्जाम भी उतनी आसानी से हवा में गूंजने लगे. कहा गया कि ‘मैला आंचल’ चोरी की रचना है

रेणु का समय प्रेमचंद के ठीक बाद का था. तब तक एक तरह के आभिजात्यबोध का साहित्य पर कब्ज़ा हो चुका था. भाषा शब्दों और प्रयोगों के खेल में फंसने लगी थी और यह कोई अनहोनी भी न थी. स्वतंत्रता के बाद नया जीवन था, प्रगति के नए-नए सपने थे. ऐसे में सबसे आसान था लीक पर चलकर शहरी और मध्यमवर्गीय जीवन की कहानियां लिखते जाना. पर रेणु ने ऐसा नहीं किया. उन्होंने अपने भीतर से निकलती उस आवाज को सुना, आजादी के बाद दम तोड़ते हुए गांवों की कराह सुनी और अपने लिए रास्ता चुन लिया.

जब मैला आंचल आया तो पहले उपन्यास के रूप में इसने सबको चकित कर दिया था. नामवर सिंह जी ने तब कहा था, ‘पहले उपन्यास के रूप में इसकी परिपक्वता सचमुच चौंकाने वाली है.’ पर धीरे-धीरे यह भेद खुला कि यह उनकी पहली कृति नहीं थी. वे चुपचाप और साहित्य की दुनिया से एकदम किनारे रहते हुए पिछले दस वर्षों कहानियां लिखे जा रहे थे.

एकाएक का उनका उभरना मठों में बैठे लेखकों के लिए परेशान करनेवाला था. प्रसिद्धि जितनी जल्दी मिली, इल्जाम भी उतनी आसानी से हवा में गूंजने लगे. कहा गया कि ‘मैला आंचल’ चोरी की रचना है… इसपर बांग्ला लेखक ‘सतीनाथ चौधरी’ के ‘धोढाई चरितमानस’ की छाया है. आरोप कुछ दूसरी शक्लों में भी थे जैसे कि रेणु में अपना तो कुछ है ही नहीं या प्रेमचंद के गांवों को उन्होंने अपनी प्रसिद्धि के रास्ते के लिए अपनाभर लिया. मैला आंचल पर रेणु को कई तरह से घेरा गया. इस दौरान कई दूसरे लेखकों का भी उल्लेख हुआ. जैसे सांस्कृतिक गरिमा के लिए शोलोखोव का तो स्थानीयता के प्रभाव के लिए बांग्ला लेखक ताराशंकर बंदोपाध्याय का. एक-एक कर मैला आंचल की खूब बखिया उधेड़ी गईं. जाहिर है रेणु आहत भी हुए होंगे. आत्मा को तकलीफ भी पहुंचती ही होगी पर उन्होंने विरोध जताना उचित नहीं समझा.

रेणु की लेखनी में अगर प्रेमचंद की रचनाओं में दिखनेवाला मोहभंग था तो साथ ही विरासत को थामे रहने की उदासी में भी लोकधुनों और लोकगीतों को गुनगुनाने, राह खोजनेवाली जीवटता भी थी

आरोपों की आंधी जैसे चली थी वैसे ही अचानक थम भी गई. जैसे धूल की आंधी के बाद का आकाश सबसे चमकीला होता है, रेणु और रेणु की लेखनी अब और ज्यादा चमक के साथ दिखने लगी. रेणु नामक इस लेखक की आंधी में प्रांत और भाषा की दीवारें जैसे ढह पड़ीं थी. रेणु की लेखनी में यह प्रभाव यूं ही नहीं आया था. इसके लिए उन्होंने लंबी साधना की थी और अथाह अध्ययन किया था. जो पढ़ा उसे पचाया और गुना अपने भीतर. फिर उसी से कुछ अद्भुत और दुर्लभ रचा.

जब हम पढ़ी-सुनी चीजों को वैसे का वैसा ही रच जाते हैं तो वह नकल होती है. जब हम सारे संचित को किसी खास परिदृश्य में रखकर सोचते हैं. उसे मिलाकर नया बनाते हैं तो वह कुछ अलग सा होता है. गांव वही थे, गांववाले भी बहुत हद तक वही, पर रेणु के अनुभव यहां अपने थे. यहां अगर प्रेमचंद की रचनाओं में दिखनेवाला मोहभंग था तो साथ ही विरासत को थामे रहने की उदासी में भी लोकधुनों और लोकगीतों को गुनगुनाने, राह खोजनेवाली जीवटता भी थी.

रेणु की लेखनी को देखकर ऐसा लगता है जैसे प्रेमचंद के बनाए खाकों में रेणु ने अपनी रचनाओं से रंग भरे हों, प्रेम, सद्भावना, सहभागिता के गाढे रंग. ‘गोदान’ के बाद मैला आंचल ही वह दूसरा उपन्यास था, जिसने उसी की तर्ज पर और उसी गति से चौतरफा तारीफ पाई थी. उन्होंने अपनी रचनाओं, खासकर अपने उपन्यासों में, उस जातिविहीन समाज का सपना भी देखा था जिसे न रच पाने का खामियाजा हम आज तक देख और भुगत रहे हैं.

मैला आंचल के बाद कुछ लोग कहने लगे थे कभी-कभार संयोग से ऐसी दुर्घटनाएं घट जाती हैं. अब रेणु शायद ही दूसरा कुछ ऐसा रच सकें. लेकिन अपना दूसरा उपन्यास ‘परती परिकथा’ लिखकर उन्होंने इन विरोधियों की तमाम आलोचनाओं को विराम दे दिया. हालांकि इसके बाद आए उनके उपन्यासों में वह बात नहीं दिखी लेकिन कहानियां एक से बढ़कर एक रहीं. यह अलग बात है और दुख की बात भी कि उपन्यासों कि तरह उनकी विविधरंगी कहानियां उनकी पहचान नहीं बन सकीं. अगर हम अपवाद के रूप में ‘मारे गए गुलफाम’ (जिसपर ‘तीसरी कसम फिल्म’ बनी थी) के चर्चित होने की बात करें तो उसके पीछे भी इस कहानी पर फिल्म बनने और उसे दर्शकों द्वारा खारिज किए जाने की भूमिका ज्यादा थी.

‘अपने बारे में जब भी कुछ कहना चाहता हूं, जीबीएस (जार्ज बर्नाड शॉ) का चेहरा सामने आ जाता है. आंखों में व्यंग्य और दाढ़ी में मुस्कराहट लिए. और कलम रुक जाती है. उस तरह कोई लिख ही नहीं सकता’ 

अधिकतम विधाओं में कुछ न कुछ लिखने वाले रेणु आत्मकथा नहीं लिख पाए. शायद इसलिए कि उन्होंने अपने उपन्यासों और कहानियों में खुद को पूरी तरह उड़ेल दिया था. हालांकि इस बारे में उनके मन में एक दुविधा भी थी. और क्या खूब दुविधा थी वह, ‘अपने बारे में जब भी कुछ कहना चाहता हूं, जीबीएस (जार्ज बर्नाड शॉ) का चेहरा सामने आ जाता है. आंखों में व्यंग्य और दाढ़ी में मुस्कराहट लिए. और कलम रुक जाती है. उस तरह कोई लिख ही नहीं सकता. कि संभव ही नहीं है वैसा लिखा जाना.’ वैसे यह दुविधा से भी ज्यादा सम्मान है किसी दूसरी भाषा के लेखक के लिए. उसके लिखे के लिए, जो रेणु के कद को और भी बड़ा कर देता है.

आज रेणु के नहीं होने के चार दशक बाद भी जब हम उनकी रचनाओं को देखते हैं तो मनोविज्ञान पर उनकी पकड़, गांवों को देखने से ज्यादा जीने वाली प्रतिभा को लेकर चौंक पड़ते हैं. आज हमें रेणु की कमी ज्यादा खलती है क्योंकि इस दौर में गांव पर लिखने वाले लेखकों की संख्या रोज-ब-रोज कम हो रही है. इसके उल्टे अनुपात में उनकी दुश्वारियां दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं.