शेरिंग फिंटसो डेन्जोंगपा यानी डैनी 1980 के दशक में फिल्मी दुनिया में आए थे. भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान से निकले इस युवक ने जब ऑडिशन देना शुरू किया तो उसे दो-टूक जवाब मिला कि वह हिंदी सिनेमा के हिसाब से विदेशी है.

सिक्किम के आए एक अभिनेता के लिए उस दौर में यह बात कह देना अचरज की बात नहीं थी. हालांकि वे इसकी एक छोटी सी तैयारी पहले से करके आए थे. अपनी सहपाठी जया भादुड़ी के कहने पर उन्होंने शेरिंग फिंटसो डेन्जोंगपा की जगह नया नाम- डैनी रख लिया था. बंबई वालों के लिए नाम आसान जरूर हो गया लेकिन डैनी को इससे बहुत आसानी तब भी नहीं हुई. (यह पांच दशक पहले की बात है जबकि आज सिनेमा और समाज में व्यापक बदलाव के बाद भी बॉलीवुड में पूर्वोत्तर के भारतीयों की उपस्थिति नाममात्र ही है).

बीआर चोपड़ा के निर्देशन में बनी फिल्म ‘धुंध’ में पहली बार डैनी को एक बड़ी भूमिका मिली थी. इस फिल्म में जबर्दस्त अभिनय की बदौलत उन्हें हिंदी फिल्मकारों के बीच पहचाना जाने लगा था. हालांकि इससे पहले गुलजार की 1971 में आई फिल्म ‘मेरे अपने’ और 1972 में आई ‘जरूरत’ से फिल्मों में उन्हें काम का मौका मिल चुका था. इसके बाद तीन दशक तक उन्होंने फिल्मों में कई छोटे-बड़े रोल किए. इनमें निभाए विलेन के कई किरदार हमें आज भी याद हैं. जैसे मुकुल आनंद की फिल्म ‘अग्निपथ’ (1990) में कांचा चीना या फिर राजकुमार संतोषी की यादगार फिल्म ‘घातक’ में कात्या का किरदार.

डैनी की इस अभिनय यात्रा से जुड़ी एक बात जो लोगों को याद तो क्या शायद पता भी नहीं होगी कि वे एक गायक भी थे. मजेदार बात ये है कि किसी फिल्म में गाने का मौका उन्हें ‘बोनस’ की तरह से मिला था. 1972 में बनी फिल्म ‘गुलिश्तान हमारा’ में पहले डैनी को एक नगा विद्रोही की भूमिका के लिए चुना गया था. लेकिन यह भूमिका सुजित कुमार को दे दी गई. फिल्म के निर्देशक आत्माराम ने इसके बदले डैनी को एक नौकर की भूमिका का प्रस्ताव दिया, इसके साथ उन्हें लालच दिया कि अगर वे इसके लिए तैयार होते हैं तो एक गाना भी उनसे गवाया जाएगा.

डैनी ने यह युगल गाना – ‘मेरे पास आओ, मेरा नाम जाओ...’ लता मंगेशकर के साथ रिकॉर्ड करवा लिया था. इसका संगीत एसडी बर्मन ने दिया था. इस फिल्म से जुड़ा दूसरा बुरा वाकया डैनी के साथ यह हुआ कि उनकी जगह नौकर की भूमिका जॉनी वॉकर को मिल गई. अब आत्माराम डैनी के गाने को मन्ना डे की आवाज में रिकॉर्ड करवाना चाहते थे लेकिन एसडी बर्मन ने जोर दिया कि जॉनी वॉकर पर डैनी के सुरों वाला गाना ही फिल्माया जाए. इस तरह डैनी का पहला गाना हिंदी फिल्मों में आ गया.

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डैनी और लता मंगेशकर की आवाज में 'गुलिश्तान हमारा' फिल्म का गाना - 'मेरे पास आओ, मेरा नाम जाओ'

इस गाने में कुछ हिंदी शब्दों का उच्चारण जानबूझकर ऐसा रखा गया था जिससे लगे कि कोई अहिंदीभाषी क्षेत्र का व्यक्ति उसे गा रहा है. उत्तर-पूर्वी भारत का कोई व्यक्ति हिंदी में कैसे गाएगा, यह गाना इसकी पैरोडी बन गया. फिल्म रिलीज होने के बाद नगालैंड के ‘आओ’ समुदाय ने इसके खिलाफ प्रदर्शन किया था और बाद में यह गाना फिल्म से हटा लिया गया. कुल मिलाकर इस गाने की शुरुआत से लेकर फिल्म से हटने तक कई अजीबो-गरीब परिस्थितियां बनती रहीं लेकिन इससे डैनी के गायन करियर का आगाज तो हो ही चुका था.

डैनी का जन्म 1948 में सिक्किम के एक घोड़ा पालने और उनकी ब्रीडिंग करने वाले परिवार में हुआ था. उनके घर के पास पहाड़ियां और घाटियां थीं. यहां वे बांसुरी बजाते हुए घोड़ों को तफरीह के लिए ले जाते थे. यह उनके संगीत का शुरुआती अभ्यास था लेकिन जब उन्होंने एफटीआईआई में एक्टिंग के कोर्स में दाखिला लिया तो संगीत उनके पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गया.

डैनी को गाने का दूसरा मौका ‘काला सोना’ (1975) में मिला और यहां राहुल देव बर्मन जैसे उस्ताद संगीतकार के निर्देशन में उन्हें गाना था. ‘सुनो सुनो कसम से...’ यह गाना उन्होंने आशा भोसले (जिनके साथ नेपाली में डैनी ने ढेरों गाने गाए हैं) के साथ गाया था और जो उस समय काफी लोकप्रिय हुआ. हालांकि इसके बाद भी उन्हें गाने के कोई खास प्रस्ताव नहीं मिले.

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'काला सोना' (1975) में डैनी का गाया ‘सुनो सुनो कसम से...’ बेहद लोकप्रिय हुआ था

महेश भट्ट के निर्देशन में बनी फिल्म ‘नया दौर’ (1978) डैनी को किशोर कुमार और मोहम्मद रफी के साथ गाने का मौका मिला था. इसके बाद 1985 के पहले तक उनका कोई गाना नहीं आया. इस साल नदीम-श्रवण ने ‘स्टार टेन’ नाम से एक एलबम रिलीज किया था. इसमें अनिल कपूर, जैकी श्रॉफ, मिथुन चक्रवर्ती और सचिन के साथ डैनी का भी गाना था. इस एलबम की महिला गायकों में काजल किरण, कल्पना और विजेता पंडित जैसी अभिनेत्रियां शामिल थीं.

विलंबित ताल से चले डैनी के संगीत कैरियर में ईएमआई म्यूजिक के लिए उन्होंने 1979 के दौरान कुछ नज्में और गजल भी गाई हैं. डैनी की गाई एक प्रसिद्ध गजल है –‘ बगैर इश्क जो गुजरे वो जिंदगी क्या है...’ इस गजल के बाद उनका कहना था कि वे गजल गायकी में अपना करियर बनाएंगे. इसमें कोई दोराय नहीं कि डैनी दिल से गाते थे लेकिन उनकी थोड़ी सी कड़कदार और थोड़ी लहरदार आवाज का मिजाज गजल से उतना नहीं मिलता था सो इस विधा में उनका दखल ज्यादा नहीं चल पाया.

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हिंदी फिल्मों में डैनी की गायिकी का करियर ज्यादा उड़ान नहीं भर पाया लेकिन जिस भाषा, नेपाली में वे सबसे ज्यादा सहज थे उसमें उनके गानों का जादू खूब चला. नेपाली में गाए उनके कई गाने हिट हुए हैं. ऐसे ही एक गाने – ‘आगे आगे तोपई को गोला’, के वीडियो में उनको आशा भोसले के चारों तरफ पूरी मस्ती के साथ झूमते-गाते हुए देखना उन दुर्लभ दृश्यों में से है जहां हिंदी फिल्मों के विलेन की कल्पना करना बड़ा मुश्किल है.

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