’यह फैसला बलात्कार की शिकार महिलाओं के लिए उम्मीद की एक नई रोशनी बन सकेगा. यह लड़ाई एक महिला की अस्मिता की लड़ाई ही नहीं थी. यह तो समर्थ और असमर्थ, पैसे से सबकुछ खरीद सकने वालों और एक-एक पैसे के मोहताज इंसान के बीच का युद्ध था. इसलिए इस जीत के मायने बहुत बड़े हैं.’

यह कहते कहते एडवा (अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति) की प्रदेश अध्यक्ष मधु गर्ग की आंखों में एक चमक आ जाती है. ऐसी ही चमक लखनऊ में महिला अधिकारों के लिए लड़ रहे बहुत से दूसरे लोगों के चेहरों पर भी दिखाई देती है. इसकी वजह यह है कि लखनऊ के शर्मनाक आशियाना बलात्कार कांड के मुख्य आरोपित गौरव शुक्ला को इस घटना के 3999 दिन बाद फास्ट ट्रैक कोर्ट ने दोषी करार दिया है. आज उसकी सजा का फैसला होना था, लेकिन वकीलों की हड़ताल के चलते यह अब 18 अप्रैल को होगा.

यह लड़ाई एक महिला की अस्मिता की लड़ाई ही नहीं थी. यह तो समर्थ और असमर्थ, पैसे से सबकुछ खरीद सकने वालों और एक-एक पैसे के मोहताज इंसान के बीच का युद्व था.

इन 11 वर्षों के दौरान गौरव शुक्ला ने कानून से बचने के लिए कोई भी हथकंडा नहीं छोड़ा. लेकिन आखिर में कानून ने उसे दोषी करार दिया. इसलिए कानून पर भरोसा रखने वालों के लिए भी गौरव शुक्ला का गुनहगार साबित होना उम्मीदें जगाता है.

घटना दो मई 2005 की है. लखनऊ के आशियाना इलाके में 13 साल की एक बच्ची अपने छोटे भाई के साथ कुछ घरों में काम करने के बाद अपने घर को जा रही थी. तभी सेंट्रो कार में सवार कुछ लोगों ने उसे भीतर खींच लिया और शहर के कई इलाकों में कार दौड़ाते हुए उसके साथ दुष्कर्म किया. सभी कार सवार युवक शराब के नशे में थे. उन्होंने बच्ची के प्रतिरोध पर उसे बुरी तरह पीटा और उसे सिगरेट से भी दागा. यह सब करने के बाद उन्होंने उस बेहोश बच्ची को मरी हुई समझ कर सुनसान इलाके में फेंक दिया. कुछ राहगीरों की मदद से वह अपने घर पहुंची. पड़ोस के लोगों से बात मीडिया तक पहुंची और अमीरजादों की शर्मनाक कहानी अखबारों में छपी भी.

लेकिन उसमें अपराधियों के बारे में कोई भी जानकारी नहीं थी. घटना की वीभत्सता तो सामने आ गई थी मगर अपराधियों का कहीं कोई सुराग नहीं था. कुछ महिला संगठनों की पहल पर पीड़िता के पिता की ओर से 24 मई 2005 को आशियाना थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई गई.

अपराधियों द्वारा सुबूत मिटाने की हरसंभव कोशिश की गई. स्थानीय पुलिस को प्रभाव में लेकर तीन निर्दोष लोगों को गिरफ्तार कर मामला रफा-दफा कराने की भी कोशिश हुई.

इस बीच अपराधियों द्वारा सुबूत मिटाने की हरसंभव कोशिश की गई. स्थानीय पुलिस को प्रभाव में लेकर तीन निर्दोष लोगों को गिरफ्तार कर मामला रफा-दफा कराने की भी कोशिश हुई. मगर तब तक पीड़िता के बयानों और मीडिया की छानबीन में मामले के अभियुक्तों के नाम चर्चा में आ चुके थे. इसके बाद जन संगठनों के दबाव और स्थानीय पुलिस अधिकारियों अनंत देव, आरकेएस राठौर और नवनीत सिकेरा के व्यक्तिगत प्रयासों के कारण आरोपियों की पहचान हो गई. चार जुलाई को इस मामले में पहली गिरफ्तारी हुई.

चूंकि इस मामले में प्रमुख अपराधी संपन्न घरों से थे इसलिए उन्होंने पीड़िता के परिवार को खरीदने, धमकाने, आतंकित करने और जान से मार डालने तक के प्रयास किए. अभियुक्तों का सरगना गौरव शुक्ला लखनऊ के बड़े डॉन अरुण शंकर शुक्ला उर्फ अन्ना का भतीजा था और उस समय सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में शामिल अन्ना को मुलायम का वाल्मीकि कहा जाने लगा था. इसलिए राज्य महिला आयोग ने भी अभियुक्तों को बचाने की हरसम्भव कोशिश की और पीड़िता को नारी निकेतन में भिजवा दिया गया जहां उसे 15 महीने तक तमाम यंत्रणाएं झेलनी पड़ीं.

इस मामले में कुल छह लोग आरोपित थे. इनमें दो नाबालिग थे जिन्हें जेजे बोर्ड ने तीन वर्ष के लिए बाल सुधार ग्रह भेजा था. वहां से वापस आने के बाद उनकी दुर्घटना में मृत्यु हो गई. पांच सितंबर 2007 को भारतेंदु मिश्र व अमन बक्षी को 10-10 वर्ष और 22 जनवरी 2013 को तीसरे अभियुक्त फैजान को आजीवन कारावास की सजा दी गई.

इस मामले में प्रमुख अपराधी संपन्न घरों से थे इसलिए उन्होंने पीडि़ता के परिवार को खरीदने, धमकाने, आतंकित करने और जान से मार डालने तक के प्रयास किए.

लेकिन गौरव शुक्ला ने खुद को बचाने के लिए 18 अक्टूबर 2005 को किशोर न्याय बोर्ड से खुद को नाबालिग घोषित करवा लिया. चूंकि वही मुख्य अभियुक्त था इसलिए उसके इस तरह बचने से इस मामले की लड़ाई लड़ रहे पीड़ित पक्ष और अन्य लोगों को बहुत झटका लगा. तब एडवा ने खुद पहल कर गौरव शुक्ला द्वारा दायर फर्जी आयु प्रमाण पत्र और फर्जी स्कूल का भांडाफोड़ किया. लेकिन शुक्ला कानूनी लड़ाई में मामले को उलझा कर जेल जाने से बचता रहा. 25 जुलाई 2012 को हाईकोर्ट ने किशोर न्याय बोर्ड को फिर गौरव शुक्ला की आयु निर्धारित करने को कहा. 21 मार्च 2014 को गौरव शुक्ला को अपराध के समय बालिग माना गया.

गौरव ने फिर इस आदेश को चुनौती दी. लेकिन 11 मार्च 2015 को विशेष अदालत ने इसे खारिज करते हुए आरोप तय करने को कहा. मगर गौरव के कानूनी दांव पेंच के चलते उस पर नाबालिग के अपहरण, लाइटर से जलाने और सामूहिक दुराचार के आरोप तय हुए. इसके बाद वह फिर हाईकोर्ट पहुंच गया. लेकिन इसी 18 मार्च को हाईकोर्ट ने उसकी याचिका खरिज कर दी. इसके बाद उसने सुप्रीम कोर्ट में एसएलपी दाखिल की. मगर 12 अप्रैल 2016 को उसके भी खारिज हो जाने से फास्ट ट्रैक कोर्ट ने उसे गुनहगार मानते हुए जेल भेज दिया है.

पीडि़ता अपनी इस लड़ाई के अंजाम तक पहुंचने से बहुत खुश है. अदालत में फैसला सुनने के लिए उसने तीन साल पहले खरीदी साड़ी पहनी थी. उसका कहना है कि उसे न्याय मिलने की बहुत खुशी है मगर पीड़िता होने के बावजूद उसे न्याय के लिए लड़ने में 11 साल तक रोज-रोज मरना पड़ा है. वह अब दुराचार पीड़ित अन्य लोगों के लिए सहारा बनना चाहती है.

इस लड़ाई का सबसे उजला पक्ष यही है कि हर तरह के उत्पीड़न, दमन और मानसिक आर्थिक दबावों के बीच पीडि़ता, उसके निर्धन परिवार और सहयोगियों ने हौसला नहीं खोया. हर रोज मरते हुए भी पीड़िता ने सहयोगियों की मदद से हाईस्कूल पास कर लिया है. वह भविष्य में कानून पढ़ना चाहती है.

लखनऊ का आशियाना कांड एक कमजोर लौ का प्रचंड आंधियों से मुकाबला करने और जीत हासिल करने का उदाहरण है. उम्मीद की जानी चाहिए कि यह उदाहरण बहुत सारे पीड़ितों के लिए प्रेरणा बन सकेगा.