बात दिसंबर 2015 की है. उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत दो दिनों के दिल्ली दौरे पर थे. उनके इस दौरे की जानकारी देते हुए नौ दिसंबर को प्रदेश के सूचना एवं लोक संपर्क विभाग ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी की. विज्ञप्ति में बताया गया था कि उत्तराखंड सरकार ने दिल्ली में दो विदेशियों कंपनियों के साथ एक सहमति पत्र (एमओयू) पर हस्ताक्षर किये हैं. इस एमओयू के अनुसार ये विदेशी कंपनियां उत्तराखंड में 500 मिलियन डॉलर (लगभग 3300 करोड़ रुपये) निवेश करने जा रही थीं. उत्तराखंड सरकार ने अपने इस कदम को एक बड़ी उपलब्धि बताया.

अगले दिन लगभग सभी अखबारों में यह खबर प्रमुखता से छा गई. उत्तराखंड के नागरिकों के लिए यह खबर किसी खुशखबरी से कम नहीं थी. हजारों करोड़ के निवेश के साथ ही ये विदेशी कंपनियां प्रदेश में एलपीजी गैस प्लांट, पेट्रोलियम, सड़क, ऊर्जा आदि के क्षेत्र में भी तकनीकी व वित्तीय सहयोग देने जा रही थीं.

'जब हम लोगों ने सूचना के अधिकार सहित कई स्रोतों से जानकारियां जुटाई तो यह साफ़ हो गया कि करोड़ों के निवेश के नाम पर जो एमओयू उत्तराखंड सरकार ने किया है वह दरअसल राज्य के संसाधनों पर डाका डालने की सीधी कोशिश है.’

लेकिन इसी खबर ने कुछ लोगों के मन में यह जिज्ञासा भी पैदा की कि उत्तराखंड में हजारों करोड़ रुपये निवेश करने वाली यह कंपनियां आखिर किसकी हैं और इनका मुख्य काम क्या है. अनूप नौटियाल भी ऐसे लोगों में एक थे. उत्तराखंड के आम आदमी पार्टी के नेता नौटियाल ने इन कंपनियों के बारे जानकारी जुटाना शुरू किया. वे बताते हैं, ‘जब मैंने पहली बार इन कंपनियों का नाम इंटरनेट पर खोजना शुरू किया तभी मुझे कुछ गड़बड़ होने का अंदेशा हो गया था. पहली नज़र में ही ये कंपनियां फर्जी लग रही थी. इसके बाद जब हम लोगों ने सूचना के अधिकार सहित कई स्रोतों से जानकारियां जुटाई तो यह साफ़ हो गया कि करोड़ों के निवेश के नाम पर जो एमओयू उत्तराखंड सरकार ने किया है वह दरअसल राज्य के संसाधनों पर डाका डालने की सीधी कोशिश है.’

इस पूरे प्रकरण की शुरुआत बीते साल नौ दिसंबर को हुई थी. इस दिन दिल्ली स्थित उत्तराखंड सदन में उत्तराखंड सरकार की ओर से डीएस गर्ब्याल (सचिव, शहरी विकास) ने दो विदेशी कंपनियों के साथ उस एमओयू पर हस्ताक्षर किये थे जिसके तहत ये कंपनियां 3300 करोड़ रुपये उत्तराखंड में निवेश करने वाली थीं. ये दो कंपनियां थीं ‘इंटरनेशनल ऑयल कारपोरेशन (आईओसी) यूएई एवं काबुल’ और हांगकांग स्थित ‘नूवाम लिमिटेड’. कंपनियों की ओर से आईओसी के चेयरमैन फैज़ल रहीम ने एमओयू पर हस्ताक्षर किये थे. इस दौरान उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत, उनके सलाहकार रणजीत रावत, मुख्य प्रधान सचिव (मुख्यमंत्री) राकेश शर्मा और अपर स्थानिक आयुक्त एसडी शर्मा भी वहीं थे. इन तमाम लोगों के अलावा एक अन्य व्यक्ति भी वहां मौजूद था जिसका नाम बतौर गवाह भी एमओयू पर दर्ज हुआ था. यह नाम था इन दोनों कंपनियों के सीईओ करन जज का. इस नाम की मौजूदगी ने इस प्रकरण को लेकर पहला संदेह पैदा किया.

'इन कंपनियों का इतिहास मात्र कुछ ही साल का है. यानी अनुभव के स्तर पर इनका खाता लगभग खाली है. साथ ही हांगकांग वाली कंपनी का नाम ‘नूवाम लिमिटेड’ होने से पहले, पिछले पांच साल में तीन बार बदला जा चुका है.’

करन जज का नाम पहले भी कई फर्जी अंतरराष्ट्रीय समझौतों और घोटालों में आ चुका है. कुछ समय पहले ही सहारा प्रमुख सुब्रत रॉय पर चल रहे हजारों करोड़ की हेराफेरी के मामले में भी करन जज का नाम चर्चाओं में आया था. सर्वोच्च न्यायालय में चल रहे इस मामले में करन जज ने सहारा पर बकाया कुल रकम में से छह हजार करोड़ रुपये के बैंक डिपाजिट की गारंटी ली थी. इस डील ने कई लोगों को हैरान किया लेकिन, अर्थजगत के अधिकतर जानकार करन जज का इतिहास देखते हुए इस पर संदेह जता चुके थे. आखिर ऐसा ही हुआ भी. सुर्ख़ियों में आने के कुछ दिनों बाद ही यह डील समाप्त हो गई. इसके अलावा भी करन जज कई बार विवादों में घिर चुके हैं और उन पर वित्तीय धोखाधड़ी के आपराधिक मामले भी दर्ज हुए हैं.

अनूप नौटियाल बताते हैं, ‘करन जज जैसे विवादित आदमी का नाम जानने के बाद हमने उन कंपनियों की भी पड़ताल की जिनके साथ उत्तराखंड सरकार ने एमओयू किया था. हम मुख्य तौर से यह जानना चाहते थे कि क्या ये कंपनियां इतनी सक्षम हैं भी कि 3300 करोड़ रुपये का निवेश कर सकें.’ वे आगे बताते हैं, ‘हमें चौंकाने वाली बात यह लगी कि इन कंपनियों का इतिहास मात्र कुछ ही साल का है. यानी अनुभव के स्तर पर इनका खाता लगभग खाली है. साथ ही हांगकांग वाली कंपनी का नाम ‘नूवाम लिमिटेड’ होने से पहले, पिछले पांच साल में तीन बार बदला जा चुका है.’

‘बाज़ार’ की दुनिया में अपना नाम स्थापित करना ही किसी कंपनी का सबसे बड़ा उद्देश्य माना जाता है. इसलिए कंपनी का नाम बार-बार बदला जाना भले ही फर्जीवाड़े का प्रमाण न हो लेकिन, संकेत जरूर कहा जा सकता है. ‘नूवाम लिमिटेड’ के मामले में तो ऐसे कई और लक्षण भी देखने को मिलते हैं. विभिन्न दस्तावेजों से इस कंपनी का जो आधिकारिक पता मिलता है, उसी पते पर लगभग तीन दर्जन और कंपनियां भी दर्ज हैं. जानकारों के अनुसार एक ही पते पर अमूमन वे ही कंपनियां दर्ज होती हैं जिनके पास अपनी व्यवसायिक जगह नहीं होती. ऐसा अक्सर छोटी-मोटी कंपनियों के मामले में होता है. लेकिन जो ‘नूवाम लिमिटेड’ उत्तराखंड में हजारों करोड़ रुपये का निवेश करने को तैयार दिखती है उसके पास अपना अलग ऑफिस तक न होना कई गंभीर सवाल पैदा करता है. दूसरी कंपनी इंटरनेशनल ऑयल कॉरपोरेशन के बारे में भी ज्यादा जानकारी नहीं मिलती. इंटरनेट पर कंपनी की एक वेबसाइट जरूर मिलती है लेकिन, मरम्मत के काम के चलते यह फिलहाल बंद पड़ी है.

 ‘सरकार जब एक लाख रुपये का भी टेंडर निकालती है तो आवेदक कंपनियों से बैलेंस शीट और टर्नओवर सहित तमाम दस्तावेज जमा करने को कहा जाता है. लेकिन उत्तराखंड सरकार ने 3300 करोड़ रुपये का एमओयू इन दो कंपनियों से कर लिया और इनके कोई भी दस्तावेज नहीं मांगे गए

यह तमाम जानकारियां जुटाने के बाद अनूप नौटियाल और उनके साथियों ने सूचना के अधिकार के जरिये उत्तराखंड सरकार से भी इस सम्बन्ध में कुछ जानकारियां मांगी. इनमें मुख्य थीं इन दोनों कंपनियों के डायरेक्टर और प्रमोटरों के नाम और पते, इन कंपनियों द्वारा प्रस्तुत किये गए विभिन्न दस्तावेज, इन कंपनियों का अनुभव, यदि इन्होंने भारत में पहले कभी कोई निवेश या परियोजना में काम किया है तो उसका विवरण, उत्तराखंड के जिन अधिकारियों ने विदेश जाकर इन कंपनियों का कार्य देखा है उनके नाम व उनके द्वारा दी गई रिपोर्ट और नौ दिसंबर को किये गए एमओयू की प्रमाणित प्रतिलिपि. इन तमाम सवालों का जवाब उत्तराखंड सरकार के शहरी विकास विभाग ने एक ही पंक्ति में दे दिया. यह पंक्ति थी ‘संबंधित सूचना इस कार्यालय में धारित नहीं हैं.’

नौटियाल कहते हैं, ‘सरकार जब एक लाख का भी टेंडर निकालती है तो आवेदक कंपनियों से बैलेंस शीट और टर्नओवर सहित तमाम दस्तावेज जमा करने को कहा जाता है. लेकिन उत्तराखंड सरकार ने 3300 करोड़ रुपये का एमओयू इन दो कंपनियों से कर लिया और इनके कोई भी दस्तावेज नहीं मांगे गए. इससे साफ़ होता है कि इन फर्जी कंपनियों के साथ ये एमओयू करने के लिए उत्तराखंड सरकार ने भी सारे नियम कानूनों को ताक पर रख दिया था.’

इस मामले में जब उत्तराखंड सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने लगे तो सरकार ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ‘अभी तक इन विदेशी कंपनियों के साथ पैसे का कोई भी लेन-देन नहीं हुआ है इसलिए यह भ्रष्टाचार का मामला नहीं कहा जा सकता.’ साथ ही कुछ लोगों का यह भी कहना था कि इस प्रकरण में पैसों का निवेश उत्तराखंड सरकार द्वारा नहीं बल्कि विदेशी कंपनियों द्वारा किया जाना था. ऐसे में यह कैसे कहा जा सकता है कि यह भ्रष्टाचार का मामला है?

इस सवाल पर नौटियाल कहते हैं, ‘प्रथम दृष्टया यह मामला कालेधन के निवेश का प्रतीत होता है. जिन कंपनियों के अस्तित्व पर ही संदेह है और जिनके कथित सीईओ तक भ्रष्टाचार के आरोपी हैं, उन कंपनियों को उत्तराखंड सरकार इस एमओयू के जरिये एक ऐसी राह देनी चाहती है जिससे वे दो नंबर के पैसे को आसानी से एक नंबर में बदल सकें.’

जिन कंपनियों के अस्तित्व पर ही संदेह है और जिनके कथित सीईओ तक भ्रष्टाचार के आरोपी हैं, उन कंपनियों को उत्तराखंड सरकार इस एमओयू के जरिये एक ऐसी राह देनी चाहती है जिससे वे दो नंबर के पैसे को आसानी से एक नंबर में बदल सकें.’

9 दिसंबर 2015 को उत्तराखंड सरकार और विदेशी कंपनियों के बीच हुए इस एमओयू पर यदि गौर किया जाए तो यह मामला सिर्फ कालेधन के निवेश तक ही सीमित नहीं लगता. इस एमओयू का दूसरा बिंदु कहता है कि उत्तराखंड सरकार भी रीपेमेंट गारंटी के एवज में विभिन्न परियोजनाओं में निवेश के लिए इन विदेशी कंपनियों को ‘सुविधाएं’ प्रदान करेगी. जानकारों के मुताबिक इस बिंदु की व्याख्या बहुत विस्तृत हो सकती है. सुविधाएं देने का मतलब आर्थिक सुविधाएं भी हो सकता है और प्रदेश की बहुमूल्य प्राकृतिक संपदा भी. इस तरह से देखें तो यह एमओयू सिर्फ विदेशी कंपनियों द्वरा निवेश की बात नहीं करता बल्कि रीपेमेंट गारंटी के बदले सरकार द्वारा निवेश में मदद की भी बात करता है. यानी कुछ संदिग्ध कंपनियों की गारंटी पर उत्तराखंड सरकार करोड़ों रुपये और अन्य संसाधन उन्हें मुहैय्या कराने को तैयार है.

भाजपा नेता मुन्ना सिंह चौहान कहते हैं, 'यह एमओयू न सिर्फ निरस्त होना चाहिए बल्कि इन लोगों पर आपराधिक मुकदमा भी होना चाहिए जिन्होंने प्रदेश के संसाधनों को बेचने की साजिश की.' चौहान आरोप लगाते हैं कि ऐसी ही साजिश हरीश रावत सरकार समार्ट सिटी के नाम पर चाय बागान की ज़मीन हथियाने के लिए भी कर चुकी है. वे कहते हैं, 'इस प्रकरण में विदेशी कंपनियों की शक्ल में कुछ बाहरी ताकतें भी शामिल हैं जिनकी जांच के लिए इंटरपोल या अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों की मदद की भी जरूरत होगी. इसलिए हम इस मामले की जांच किसी न्यायिक या केंद्रीय एजेंसी द्वारा किये जाने की मांग कर रहे हैं.'

इस प्रकरण में भ्रष्टाचार के गहरे संदेह होने के चलते उत्तराखंड की आम आदमी पार्टी ने भी इसकी न्यायिक जांच की मांग करते हुए राज्यपाल समेत केन्द्रीय वित्त मंत्रालय तथा वाणिज्य, उद्योग व कॉर्पोरेट मंत्रालय को भी पत्र लिखे हैं. इसके साथ ही उसने बीती नौ दिसंबर को किये गए इस विवादस्पद एमओयू को निरस्त करने की मांग भी की है. मुमकिन है कि इस शिकायत का संज्ञान लेते हुए केन्द्रीय सरकार इस प्रकरण की जांच के आदेश दे और तब उत्तराखंड सरकार द्वारा किये गए इस विवादित एमओयू की सारी सच्चाई जनता के सामने आ सके. लेकिन इस सम्बन्ध में जो भी जानकारी अब तक सामने आई है, उसे देखते हुए इस आरोप का आधार काफी मजबूत लगता है कि उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत प्रदेश के सबसे बड़े भ्रष्टाचार की नींव रख चुके थे.