एक हजार साल पहले तक उत्तर भारत के ज्यादातर हिस्से पर राजपूत राजाओं का शासन था. धीरे-धीरे उनका पराभव शुरू हुआ. पहले मुहम्मद गजनी ने उन्हें हराया. फिर गोरी ने. इसके बाद राजपूतों ने अल्लाउद्दीन खिलजी से मात खाई और फिर बाबर, अकबर, मराठों से होता हुआ यह सिलसिला अंग्रेजों तक गया. हालांकि इस सिलसिले में मराठों और अंग्रेजों को छोड़ा जा सकता है क्योंकि तब तक राजपूतों की ताकत पूरी तरह चुक गई थी. दिल्ली के शुरुआती सुल्तानों ने अगर उन्हें भारत के पश्चिम में स्थित रेतीले इलाके तक समेट दिया था तो मुगलों ने उन्हें जागीरदार बनाकर छोड़ा.
राजपूत राजाओं में पृथ्वीराज चौहान, राणा सांगा और महाराणा प्रताप का जिक्र सबसे ज्यादा होता है. लेकिन अहम लड़ाइयों में इन तीनों राजाओं को न सिर्फ पराजय मिली थी बल्कि उन्होंने मैदान भी छोड़ दिया था. 1192 में तराइन की दूसरी लड़ाई के दौरान गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को मैदान छोड़ते वक्त बंदी बनाया और बाद में चौहान की हत्या कर दी. 1527 में खानवा की लड़ाई में बाबर की सेना से मात खाने के बाद राणा सांगा को भागना पड़ा. 1576 में हुई हल्दीघाटी की लड़ाई में अकबर के साथ लड़े महाराणा प्रताप के साथ भी ऐसा ही हुआ. बाद में अपने पुरखों की इन असफलताओं को ढकने के लिए स्थानीय भाट-चारणों ने इतिहास को मिथकों में तब्दील कर दिया.
बार-बार क्यों हार?
सवाल उठता है कि अपनी वीरता के लिए मशहूर राजपूत बार-बार क्यों हारते रहे. वैसे तो यह सवाल कम ही पूछा जाता है लेकिन जब पूछा जाता है तो अक्सर जवाब यही होता है कि राजपूतों का सामना ऐसे मुसलमानों से था जिनकी मजबूती धर्म के प्रति उनकी कट्टरता थी. यह सच नहीं है. अपने सैनिकों में जोश भरने के लिए मुसलमान शासक धर्म का इस्तेमाल जरूर करते थे, लेकिन उनकी जीत में अकेले इस बात का योगदान नहीं था. अपने धर्म के प्रति समर्पण राजपूतों में भी कम नहीं था और उनके साहस की तो उनके दुश्मन भी तारीफ करते थे. बाबर ने खुद लिखा है कि खानवा की लड़ाई से पहले उसके सैनिक राणा सांगा की सेना से घबराए हुए थे जिसकी वीरता के बारे में कहा जाता था कि वह अंतिम सांस तक लड़ती रहती है.
यानी धर्म के प्रति समर्पण और साहस, दोनों पक्षों में बराबर था. अब बचता है अनुशासन, तकनीकी कुशलता और रणनीतिक श्रेष्ठता. राजपूत इनमें से हर मोर्चे पर कमजोर थे. उनके विरोधी, जो अक्सर तुर्क होते थे, एक जटिल योजना के साथ लड़ते थे. इनमें अलग-अलग काम करने वाली इकाइयां होती थीं जिनकी संख्या पांच तक होती थी. सबसे पहले घोड़ों पर सवार तीरंदाज दुश्मन की सेना पर हमला बोलते और फिर योजना के मुताबिक पीछे हट जाते. इससे दूसरा पक्ष सोचता कि विरोधी कमजोर पड़ रहा है और वह पूरी ताकत से धावा बोल देता. लेकिन घोड़े पर सवार इन तीरंदाजों के पीछे एक केंद्रीय और उसके अगल-बगल दो सैन्य इकाइयां तैयार रहतीं. केंद्रीय सैन्य इकाई पूरी ताकत से धावा बोलने वाले दुश्मन को उलझाती और अगल-बगल वाली दो इकाइयां दुश्मन को चारों तरफ से घेरकर उस पर किनारों से हमला बोलतीं. आखिर में एक सुरक्षित टुकड़ी भी रहती थी जिसे जरूरत पड़ने पर इस्तेमाल में लाया जाता.
इन इकाइयों के बीच आपस में तुरंत संपर्क का सटीक इंतजाम रहता था. कब किसके आदेश का पालन होना है, इस बारे में निर्देश एकदम साफ रहते थे. यह एक ऐसी रणनीतिक व्यवस्था होती थी जिसमें जिम्मेदारियों का बंटवारा व्यक्ति की योग्यता देखकर किया जाता था.
राजपूतों की रणनीतिक व्यवस्था इसके उलट थी. इसमें कोई जटिलता नहीं थी. उनकी सेना सीधे धावा बोलती थी और कमजोर पड़ने पर उसके पास प्लान बी यानी वैकल्पिक रणनीति का विकल्प नहीं होता था. जबकि उनके सामने जो योद्धा होते थे वे खैबर का दर्रा पार करके आते थे. बहुत दूर से आने वाले इन हमलावरों की तुलना में राजपूतों के पास अक्सर संख्याबल का लाभ होता था. तराइन की दूसरी लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान के पास गोरी से करीब तीन गुनी बड़ी सेना थी तो खानवा की लड़ाई में राणा सांगा के पास बाबर की तुलना में चार गुना ज्यादा लड़ाके थे.
लेकिन सांगा की तुलना में बाबर की फौज कहीं ज्यादा अनुभवी थी. एक साल पहले ही वह पानीपत की लड़ाई में इब्राहिम लोदी की विशाल फौज को हरा चुकी थी. बाबर के 10 हजार सैनिकों ने लोदी की एक लाख सैनिकों वाली फौज को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था. हालांकि इसके बाद मुगल वंश के इस संस्थापक के पास लोदी के जनरलों को इस्तेमाल करने का विकल्प था लेकिन उसने अपने सिपहसालारों पर ही भरोसा किया. वह जानता था कि संख्या का तब तक कोई मतलब नहीं होता जब तक वह एक रणनीति और एक कमान के तहत संगठित न हो.
राजपूतों के साथ यही समस्या थी. सेना विशाल थी लेकिन ऐसा कम ही होता था कि सब एक की सुनते हों. हर राजपूत राजा का अपना अहम होता था. गुणों की बजाय जाति की पूछ होती थी और इसी से तय होता था कि अगुवाई कौन करेगा. उधर, उनके सामने जो सेना होती थी उसमें फैसले व्यक्ति के गुणों के आधार पर होते थे. भले ही वह कोई छुड़ाया गया दास हो, लेकिन अगर उसमें वीरता और नेतृत्व का गुण होता तो उसे बड़ी जिम्मेदारी दी जाती थी. इसके अलावा तकनीकी रूप से भी राजपूत अपने विरोधियों से 19 ठहरते थे. गोरी के घुड़सवार तीरंदाजों से लेकर बाबर की तोपों ने भी उन्हें बहुत नुकसान पहुंचाया.
रणनीतिक जड़ता
लेकिन यह भी हैरानी की बात है कि राजपूत सदियों तक पराजित होते रहे, लेकिन उनकी रणनीति में कोई बदलाव नहीं आया. 1576 में हुए हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप ने पूरे जोर से धावा बोलने वाली वही रणनीति अपनाई जिसके चलते राजपूत पहले भी कई बार मुंह की खा चुके थे. हालांकि तराइन और खानवा के मुकाबले हल्दीघाटी बहुत ही छोटी लड़ाई थी. तीन हजार सिपाहियों वाली प्रताप की सेना की जंग 5000 मुगल सैनिकों से हुई थी. अक्सर इसे हिंदू राजपूत बनाम मुस्लिम साम्राज्य की लड़ाई के तौर पर पेश किया जाता है, लेकिन ऐसा नहीं था. राणा प्रताप के साथ भील धनुर्धारी भी थे तो अकबर से पहले उत्तर भारत पर राज कर चुके सूरी वंश के हकीम शाह भी. उधर, मुगल सेना के सेनापति राजपूत राजा मान सिंह थे. हालांकि हल्दीघाटी में पराजित होने के बाद भी राणा प्रताप ने लड़ना जारी रखा. इसे सराहनीय कहा जा सकता है लेकिन सच यही है कि मुगल सेना के लिए उनकी अहमियत एक छोटे-मोटे बागी से ज्यादा नहीं थी. अब अगर प्रताप को अकबर के बराबर या ऊपर रखा जा रहा है तो यह इस उपमहाद्वीप की सांप्रदायिक राजनीतिक के बारे में काफी कुछ बताता है.
एक और कारण था जिसके बारे में माना जाता है कि उसने राजपूतों की पराजय में अहम योगदान दिया. यह थी उनकी अफीम की लत. वैसे तो राजपूतों में अफीम का सेवन आम था, लेकिन लड़ाई के मोर्चे पर जाते हुए इसकी मात्रा खूब बढ़ा दी जाती थी. इसका नतीजा यह होता था कि उनमें से कई मरो या मारो के अलावा कोई और निर्देश समझने की हालत में ही नहीं रहते थे.
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