1893 में स्वामी विवेकानंद की अमेरिका यात्रा से इस महाद्वीप में योग का बीज पड़ गया था. विवेकानंद शिकागो की धर्म संसद में भाषण देने के लिए गए थे. धर्म-संसद में तो उन्होंने ‘योग’ शब्द का प्रयोग नहीं किया लेकिन, उसके बाद अमेरिका के जिन अन्य शहरों का उन्होंने भ्रमण किया, वहां राजयोग तक सिखाया. योगशास्त्रों में वर्णित यम-नियम आदि के अभ्यास से चित्त को निर्मल कर ज्योतिर्मय आत्मा का साक्षात्कार करना राजयोग कहलाता है.
विवेकानंद के बाद परमहंस योगानंद और स्वामी शिवानंद ने भी अमेरिका में योग के विस्तार में मदद की. हालांकि इन योगियों ने भी साधना की मुख्यतः आध्यात्मिक दिशा यानी राजयोग को ही प्रधानता दी थी. आध्यात्मिक मनोवृत्ति वाले ईश्वर के खोजियों को तो राजयोग में दिलचस्पी हो सकती थी लेकिन, आम लोगों के लिए वह बहुत दूर की कौड़ी था. साधारण आदमी के लिए मन से अधिक तन, सूक्ष्म से अधिक स्थूल और अमूर्त से अधिक मूर्तिमान ईश्वर बोधगम्य होता है. अमेरिका और यूरोप में योग इस स्तर पर तब उतरा जब योग गुरुओं की एक ऐसी नयी पीढ़ी आई जिसने राजयोग, हठयोग, कर्मयोग या भक्तियोग जैसी भिन्न-भिन्न विधाओं और शैलियों को आपस में पिरोया. इन गुरुओं ने आधुनिक समय की मांगों के अनुसार योग को नए, सहज और सरल स्वरूप में ढालने का प्रयास किया.
1927 में जब एक धनी जर्मन बैंकर हेर्मन बोल्म ने एवगेनिया के सामने विवाह-प्रस्ताव रखा, तो उन्होंने कहा, हां, लेकिन इस शर्त पर कि पहले वह उनकी भारत-यात्रा का ख़र्च उठाएगा.
स्वामी शिवानंद और तिरुमलाई कृष्णमाचार्य पारंपरिक योगसाधना के ऐसे ही प्रथम संशोधकों में गिने जाते हैं. कृष्णमाचार्य तो महिलाओं को योग-शिक्षा देते ही नहीं थे. तब भी, यूरोप से आई इंद्रा देवी न केवल उनकी प्रथम शिष्या बनीं, उनके कहने पर पश्चिमी जगत की पहली महिला योग-शिक्षिका भी कहलाईं. यूरोप तो नहीं, पर दोनों अमेरिकी महाद्वीप उनके ‘योग-दान’ के आभारी बने.
‘योगमाता’ इंद्रा देवी के नाम की तरह ही उनकी जीवनकथा भी इंद्रधनुषी है. उनका जन्म 12 मई 1899 को ज़ारशाही रूस के लातविया की राजधानी रीगा में हुआ था. असली नाम था एवगेनिया पेतरसन. मां एक कुलीन घराने की रूसी थीं, पिता एक स्वीडिश बैंकर.15 साल की एवगेनिया मॉस्को में नाट्यकला की पढ़ाई कर रही थीं कि रविंद्रनाथ टैगोर की एक पुस्तक और एक अमेरिकी योगी रामचरक (मूल नाम विलियम वॉकर एटकिन्सन) की लिखी किताब ‘योगदर्शन और प्राच्यदेशीय तंत्र-मंत्र के 14 पाठ’ पढ़ कर भारत के प्रति आसक्त हो गयीं. रूस में 1917 की समाजवादी क्रांति के साथ ज़ारशाही के अंत और कम्युनिस्ट सत्ता के आगमन की उथलपुथल के बीच उनकी मां उन्हें लेकर लातविया और पोलैंड में भटकते हुए 1921 में बर्लिन पहुंचीं. एवगेनिया ने नाट्य और नृत्यकला सीखी ही थी. उन्हें बर्लिन की एक नाट्यमंडली में काम भी मिल गया.
1926 में एवगेनिया ने सुना कि भारत में कांग्रेस पार्टी की कार्यकर्ता और महात्मा गांधी की निकट सहयोगी एनी बेसेंट की ‘थियोसॉफ़िकल सोसायटी’ की ओर से हॉलैंड के ओमेन शहर में एक सम्मेलन होने वाला है. वे भी वहां पहुंचीं. एक शाम वहां उन्होंने योगी, कवि और दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति को मंत्रोच्चार करते सुना. वे ऐसी मंत्रमुग्ध हुईं कि मौका मिलते ही भारत जाने का मन बना लिया. 1927 में जब एक धनी जर्मन बैंकर हेर्मन बोल्म ने एवगेनिया के सामने विवाह-प्रस्ताव रखा, तो उन्होंने हां कह दिया लेकिन, इस शर्त पर कि पहले वह उनकी भारत-यात्रा का ख़र्च उठाएगा. बोल्म की दी हुई सगाई की अंगूठी पहन कर एवगेनिया भारत गईं. तीन महीने बाद भारत से लौटते ही उन्होंने बैंकर को अंगूठी लौटा दी. कहा, ‘क्षमा करना, मेरी जगह तो भारत में है.’ एवगेनिया ने अपने सारे गहने-ज़ेवर बेचे और एक बार फिर चल पड़ीं भारत की ओर.
भारत पहुंचते ही उन्होंने अपना एक नया नाम रख लिया – इंद्रा देवी. वे बंबई के फ़िल्म जगत में नर्तकी और अभिनेत्री का काम करने लगीं. वहीं, उनका चेकोस्लोवाक वाणिज्य दूतावास के एक अताशी यान स्त्राकाती से परिचय हुआ. 1930 में दोनों ने शादी भी कर ली. अपने पति के माध्यम से ही इंद्रा देवी मैसूर के महाराजा कृष्णराजेंद्र वड़ेयार से मिलीं. योगगुरु तिरुमलाई कृष्णमाचार्य उनके राजमहल में ही योगशिक्षा दिया करते थे. इंद्रा देवी ने जब उनसे कहा कि वे भी उनसे योगसाधना सीखना चाहती हैं, तो कृष्णमाचार्य ने यह कह कर मना कर दिया कि वे एक विदेशी और महिला हैं.
इंद्रा देवी ने जब उनसे कहा कि वे भी उनसे योगसाधना सीखना चाहती हैं, तो कृष्णमाचार्य ने यह कह कर मना कर दिया कि वे एक विदेशी और महिला हैं.
अंततः महाराजा को हस्तक्षेप करना और कृष्णमाचार्य को मनाना पड़ा. इंद्रा देवी ने भी अपने योगगुरु के सभी कठोर नियमों और अनुशासनों का उसी कठोरता और श्रद्धा के साथ पालन किया जिस तरह उनके सहपाठियों और भावी नामी योगगुरुओं पट्टभि जोइस और बीकेएस अयंगर ने किया.पति के शंघाई तबादले के कारण इंद्रा देवी को 1938 में भारत छोड़ना पड़ा. द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने तक वे शंघाई में ही रहीं. इस दौरान वे चीन के राष्ट्रवादी नेता च्यांग काइ-शेक की पत्नी के घर में योगशिक्षा का स्कूल चलाने लगीं. चीन में यह पहला योग स्कूल था. युद्ध के अंत के बाद वे एक बार फिर भारत लौटीं. यहां आकर उन्होंने अपनी पहली पुस्तक लिखी, ‘योग, स्वास्थ्य और सुख-प्राप्ति की कला.’
लेकिन इस बार वे अधिक समय तक भारत में नहीं रह सकीं. 1946 में उनके पति का चेकोस्लोवाकिया में देहांत हो गया. पति के अंतिम संस्कारों के बाद वे अमेरिका चली गयीं और हॉलीवुड में फ़िल्मी सितारों को योग सिखाने लगीं. ग्रेटा गार्बो और मर्लिन मुनरो जैसी हस्तियों को उन्होंने योग सिखाया. उन्होंने सभा-सम्मेलनों में योग पर भाषण और रेडियो-टेलीविज़न पर कार्यक्रम भी शुरू कर दिए.
इंद्रा देवी पांच भाषाएं धाराप्रवाह बोलती थीं – मातृभाषा रूसी के अलावा अंग्रेज़ी, जर्मन, फ्रेंच और स्पेनिश भी. 1960 में उन्होंने मॉस्को जाकर तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट सरकार को मनाने की कोशिश की थी कि वह भी सोवियत जनता को योग सीखने-करने की अनुमति प्रदान करे. इंद्रा देवी ने कहा कि योग कोई धर्म नहीं है इसलिए उससे डरने का कोई तुक नहीं है. सोवियत संघ में योगसाधना उस समय धर्मपालन के समान ही प्रतिबंधित थी.
1966 में इंद्रा देवी पुट्टपार्थी के सत्य साईं बाबा की भक्त बन गयीं. वे उनसे मिलने के लिए भारत आने-जाने लगीं और अपनी योग-शैली को ‘सांई योग’ कहने लगीं. 1982 में अर्जेंटीना की एक यात्रा के बाद इंद्रा देवी वहीं बस गयीं. वहीं, राजधानी बुएनोस आइरेस में, 102 वर्ष की अवस्था में 25 अप्रैल 2002 को इंद्रा देवी ने अंतिम सांस ली.
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