बीती 26 जून को नई दिल्ली में लोकतंत्र सेनानी सम्मेलन हुआ. इसमें देश के अलग-अलग हिस्सों से वे लोग आए थे जो आपातकाल के दौरान मीसा कानून के तहत जेलों में बंद रहे. इस सम्मेलन में आपातकाल के संस्मरणों को इकट्ठा कर उन्हें कलमबद्ध करने जैसी कई बातें हुईं. लेकिन जिस बात ने सुगबुगाहट पैदा की वह भाजपा के केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार की तरफ से आई. केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्री अनंत कुमार ने कहा, ‘आपातकाल देश के इतिहास का काला दौर है और भावी पीढ़ी को इस काल से अवगत कराने के लिए स्वतंत्रता संग्राम की तरह लोकतंत्र की बहाली के संघर्ष के इतिहास को भी स्कूल एवं कॉलेज के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा.' अनंत कुमार का यह भी कहना था कि इस दौरान लोगों को दी गई यातनाओं और लोकतंत्र की रक्षा के लिए समर्पित लोगों के इतिहास को पढ़ाने से नई पीढ़ी को प्रेरणा मिलेगी.
अनंत कुमार का यह भी कहना था कि इस दौरान लोगों को दी गई यातनाओं और लोकतंत्र की रक्षा के लिए समर्पित लोगों के इतिहास को पढ़ाने से नई पीढ़ी को प्रेरणा मिलेगी.
26 जून का दिन कई मायनों में अहम होता है. 1975 में इस दिन से लेकर लगभग दो साल तक भारतीय लोकतंत्र को अलोकतांत्रिक ढंग से चुनौती दी गई थी. इस दौरान लोकतंत्र की रक्षा के लिए उठी आवाजों को जेल की काल कोठरी के भीतर कैद किया गया. संवैधानिक ढांचे के चरमराने से अनिश्चितता और भय का माहौल कायम हुआ. फिर भी लाखों लोग लोकतंत्र की रक्षा के लिए डटे रहे. मार्च 1975 में आपातकाल खत्म हुआ और चुनाव की घोषणा हुई जिसमें कांग्रेस को पराजय मिली. कांग्रेस की इस पराजय को सत्ता की तानाशाही पर जनता की विजय के तौर पर देखा जाता है. अब आवाज उठ रही है कि आपातकाल की घटना को पाठ्यपुस्तकों में शामिल किया जाए और इस प्रेरणादायी स्मृति को एक चिरस्थाई रूप मिले.
अनंत कुमार ने यह बात मीसाबंदियों के सामने रखी, इससे यह संकेत मिल रहा है कि भाजपा कांग्रेस के खिलाफ एक नया राजनीतिक मोर्चा खोलने की तैयारी में है. लेकिन जानकारों का एक वर्ग है जो मानता है आपातकाल को सिलेबस में शामिल करना ठीक ही रहेगा. इस वर्ग के मुताबिक वह दौर लोकतंत्र बनाम तानाशाही का था और अगर इसे सही रूप में गंभीरतापूर्वक पाठ्यपुस्तकों में स्थान दिया जाएगा तो इससे लोकतांत्रिक शक्तियों का विकास होगा. मीसाबंदियों के संगठन लोकतंत्र सेनानी संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष कैलाश सोनी कहते हैं, ‘आपातकाल को अध्ययन-अध्यापन का विषय इसलिए बनाया जाए ताकि लोग सच्चाई जान सकें और फिर कोई आपातकाल लागू करने की सोच भी न सके.‘ और भी लोग हैं जो मानते हैं कि इस मंशा के पीछे राजनीतिक विद्वेष के बजाय लोकतंत्र के प्रति विशुद्ध समर्पण हो तो इसका विरोध ठीक नहीं होगा. लेकिन क्या ऐसा है?
अनंत कुमार इसे पाठ्यपुस्तक में शामिल कराने के पक्षधर इसलिए भी हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने आपातकाल के बहुत सारे साक्ष्य नष्ट करवा दिए हैं ताकि लोगों को आपातकाल की हकीकत से दूर रखा जा सके. पत्रकार कुलदीप नैय्यर के एक लेख का हवाला देते हुए वे कहते हैं, ‘आपातकाल के सारे रिकॉर्ड पहले अभिलेखागार में रखवाए गए थे लेकिन अब वे सारे रिकॉर्ड वहां से गायब हैं. कांग्रेस पार्टी की सरकार ने अपना काला चेहरा छुपाने के लिए यह सब किया है.‘
इस बात का एक साफ अर्थ यह है कि आपातकाल के वाकये को पाठ्यक्रम के ज़रिए जनता के सामने लाए जाने की पैरवी तो चल ही रही है, इसी बहाने कांग्रेस पर हमला करने की भी तैयारी की जा रही है
इस बात का एक साफ अर्थ यह है कि आपातकाल के वाकये को पाठ्यक्रम के ज़रिए जनता के सामने लाए जाने की पैरवी तो चल ही रही है, इसी बहाने कांग्रेस पर हमला करने की भी तैयारी की जा रही है. भाजपा के राज्यसभा सांसद और लोकतंत्र सेनानी संघ के संरक्षक मेघराज जैन कहते हैं, 'असलियत तो यही है कि उस दौरान कांग्रेस की सरकार थी, इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं और इस तानाशाही को उनके द्वारा ही अंजाम दिया गया था. ऐसे में पाठ्यपुस्तकों में इन तमाम बातों को शामिल करने में कोई कोताही नहीं बरती जानी चाहिए.‘
केन्द्रीय मंत्रियों के बयानों के बाद यह अंदाजा लगता है कि जल्द ही भाजपानीत केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी के बीच टकराव का एक और मंच तैयार होने जा रहा है. इसमें दिलचस्प बात यह भी होगी कि उन नेताओं और पार्टियों का रुख क्या रहता है जो आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण के साथ कदम से कदम मिलाकर चले थे और जिन्हें मीसा और डीआईआर जैसे कानूनों के तहत जेल हुई थी. कई दिग्गज हैं जिनका राजनीतिक करियर ही इस आंदोलन के बूते शुरू हुआ था. क्या सपा और राजद जैसे दलों के मुखिया लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह भाजपा के इन केंद्रीय मंत्रियों और सांसदों से इत्तेफाक रखते हैं? भाजपा की नीतियों से इनका मतभेद सर्वविदित है लेकिन, आपातकाल पर इनकी राय क्या एक हो सकेगी? यह सवाल इसलिए भी अहम हो जाते हैं कि इनका कांग्रेस के समर्थन में बोलना यह संदेश दे सकता है कि ये आपातकाल का समर्थन कर रहे हैं.
वैसे भले ही आपातकाल को पाठ्यपुस्तकों में शामिल करवाने की मांग अब उठ रही है लेकिन, इससे पहले मुलायम सिंह द्वारा उत्तर प्रदेश में मीसा के तहत बंदी बनाए गए लोगों को लोकतंत्र सेनानी का दर्जा दिया जा चुका है. अब भाजपा शासित राज्यों का भी इसी लाइन पर चलने को कई इस मुद्दे पर एक राजनीतिक सहमति के तौर पर देख रहे हैं. उनके मुताबिक भाजपा की सरकारें जब समाजवादी पार्टी की सरकार की इस पहल को मान सकती हैं तो पाठ्यक्रम में आपातकाल को शामिल करने के मुद्दे पर सपा जैसे दलों का झुकाव भी भाजपा सरकार की ओर हो सकता है, इसकी संभावना प्रबल है.
जानकारों के मुताबिक असहमति पाठ्यक्रम में आपातकाल के प्रस्तुतिकरण को लेकर ज़रूर हो सकती है. पहले भी भाजपा सरकार पर शिक्षा के भगवाकरण करने का आरोप लगता रहा है. अब यह आरोप भी लग सकता है कि सिर्फ आरएसएस के महिमामंडन के लिए आपातकाल को पाठ्यक्रम में शामिल करने की मांग उठाई जा रही है. हालांकि एक वर्ग का मानना है कि यह काम होना ही चाहिए. गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्याल के सामाजिक विज्ञान संकाय की डीन डॉ अनुपमा सक्सेना कहती हैं,‘ मेरा मानना है कि ऐतिहासिक तथ्यों को छिपाना या उनसे बचना उन्हें सामने रखने और उन पर बहस करने से ज्यादा खतरनाक है.
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