मांझी – द माउंटेन मेन की कहानी तो आपने सुनी होगी, जिसमें दशरथ मांझी ने अपने गांव की सड़क के लिए अकेले पहाड़ खोद डाला था. मध्यप्रदेश की इन आदिवासी औरतों ने भी कुछ-कुछ इसी तरह धरती का सीना फाड़कर, चट्टानें तोड़कर अपने हिस्से का पानी निकाला है. इस दौरान इनका तरह-तरह से मजाक उड़ा गया, यहां तक कहा गया कि यह काम घाघरा पलटन के बस का नहीं है, पर वे नहीं रुकी. जो सोचा उसे कर के ही माना.

मध्यप्रदेश के खंडवा जिले का खालवा विकासखंड. इसी विकासखंड में घने जंगलों और छोटी – बड़ी पहाड़ियों से घिरा छोटा सा गांव है लंगोटी. 162 परिवारों के करीब एक हजार लोगों की बस्ती. 80 फीसदी आबादी कोरकू जनजाति की. कुछ के पास छोटी–छोटी जमीनें तो ज्यादातर मजदूर परिवार. ये लोग तमाम अभावों के बीच बीते कई बरसों से रहते आए हैं, आने-जाने वाली सरकारों से ज्यादा अपेक्षा किये बगैर. ऐसा नहीं कि सरकारों ने इनके लिए कुछ नहीं किया. सैकड़ों योजनाएं उन्होंने इनके भले के लिए बनाईं, जो आईं और चली गईं पर इनकी जिंदगी वैसी की वैसी रही.

चूंकि पानी का जिम्मा औरतों पर था, इसलिए गांव के मर्द भी इस पर कुछ ख़ास संजीदा नहीं थे. मुसीबत जब हद से ज्यादा बढ़ गई तो करीब एक साल पहले महिलाओं ने इसके लिए निर्णायक जंग लड़ने की ठान ली.

हाड़-तोड़ मेहनत कर जैसे–तैसे गुजर हो ही रही थी. पर बड़ी समस्या तब हुई जब बीते कुछ सालों से पीने के पानी के लिए भी मोहताज होने लगे. ठंड खत्म होते न होते गांव का तालाब सूख जाता और पानी की किल्लत शुरू हो जाती. गर्मियों के दिनों में तीन किमी दूर ताप्ती नदी में झिरी (गड्ढा) खोदकर उसमें से निकले पानी को मटकों में भरकर लाना पड़ता. कभी-कभी कुछ खेतों पर बने कुओं और ट्यूबवेल से भी पानी मिल जाता था लेकिन यह भी आसान नहीं था. कभी बिजली नहीं तो कभी खेत मालिक की मर्जी. सूरज बघेल के खेत पर बने ट्यूबवेल में पानी तो था पर इसके लिए बिजली के खर्चे के सौ रुपए उसे देने पड़ते थे.

पानी की समस्या को देखते हुए गांव में सरकार ने आठ हेंडपंप लगवाए लेकिन एक के बाद एक सब बैठते चले गए. हर सुबह पानी की मशक्कत से शुरू होती. पानी भरें या मजदूरी करें. कोई चारा नहीं था. सरकार सुनती नहीं थी, पंचायत के पास पैसा नहीं था, अफसरों तक पंहुच नहीं थी. चूंकि पानी का जिम्मा औरतों पर था, इसलिए गांव के मर्द भी इस पर कुछ ख़ास संजीदा नहीं थे. मुसीबत जब हद से ज्यादा बढ़ गई तो करीब एक साल पहले महिलाओं ने इसके लिए निर्णायक जंग लड़ने की ठान ली.

यह जंग आसान नहीं थी, पर उन्हें लगा कि अभी नहीं तो कभी नहीं. एक दिन गांव भर की औरतें जुटी और विचार करने लगीं. किसी ने कहा कि गांव में हमारा खुद का कुआं होना चाहिए. बात तो सबको भली लगी पर कुआं, वह भी औरतों का, यह कैसे मुमकिन होगा! पर पानी ला-लाकर थक चुकी औरतों ने तय किया कि चाहे कुछ भी करना पड़े पर अब कुआं तो वे बनाकर ही रहेंगी. पर कुआं बनेगा कहां? औरतों की भला कहां जमीन ..? गांव के पास ही लगी रामकली बाई और उसकी देवरानी गंगा बाई के खेत के बीच की जमीन पर कुआं खोदने की बात चली तो दोनों ने वहीं स्वीकृति दे दी.

चालीसवें दिन उनकी किस्मत जागी. जिद्दी चट्टानों ने औरतों की जिद के आगे हार मान ली. कुंए की तली पर जैसे ही एक बड़ी चट्टान टूटी तो पानी की धार ने उन औरतों के मुरझाए चेहरों पर खुशी की चमक बिखेर दी.

50 वर्षीय गंगा बाई ने आगे बढ़कर कहा कि गांव को पानी मिले तो वे अपने हिस्से की जमीन छोड़ने को तैयार हैं. 60 वर्षीय रामकली बाई भी अपने हिस्से की जमीन देने को तैयार हुई. इस तरह दोनों की आधी–आधी जमीन पर कुआं बनना तय हुआ. बात यह भी उठी कि वे पानी आने तक कुंए की खुदाई करेंगी, रुकेंगी नहीं. औरतें खुद श्रमदान करेंगी, लेकिन ऐसा न हो जाए कि पानी निकलने के बाद गंगाबाई और रामकली बाई कुंए पर अपना अधिकार समझने लगें. तो उन दोनों ने पास के कस्बे में बकायदा सौ रूपए के स्टांप पर लिखकर दिया कि यह कुआं सिर्फ उनका नहीं होकर पूरे गांव का होगा.

यह बात जब आदमियों तक पंहुची तो उन्होंने बाकी बातों के अलावा यह कहकर भी विरोध किया कि यह काम आसान नहीं है. मिट्टी की परत के नीते जब धरती में चट्टानें आएंगी, तब घाघरा पलटन क्या करेगी? लेकिन महिलाओं ने उनकी एक न मानी. उन्होंने जो तय कर लिया था, वही किया. कुंए की खुदाई शुरू हुई. पांच हाथ फिर दस हाथ. 46-47 डिग्री की भीषण और जानलेवा गर्मी तथा चिलचिलाती धूप भी उनके इरादे डिगा नहीं पाई. उनके सत्याग्रह में दम था. बीस औरतें हर दिन अपने घरों के काम जल्दी निपटाकर आ पंहुचतीं और शाम होने तक गीत गाते, एक दूसरे का उत्साह बढाते काम करती रहतीं.

कुदाली, हथौड़ा, छैनी, सब्बल, सीढ़ी... जिसके घर में जो था, लेकर आती रहीं. पहले मिटटी, फिर मुरम फिर पत्थर और उसके बाद चट्टानें. महीना बीत गया पर पानी का नामोनिशान नहीं. लेकिन औरतों का हौसला खत्म नहीं हुआ. उनके आदमी उन्हें ताना मार रहे थे, लेकिन औरतें बिना रुके अपना काम करती रहीं. अंततः चालीसवें दिन उनकी किस्मत जागी. जिद्दी चट्टानों ने औरतों की जिद के आगे हार मान ली. कुंए की तली पर जैसे ही एक बड़ी चट्टान टूटी तो पानी की धार ने उन औरतों के मुरझाए चेहरों पर खुशी की चमक बिखेर दी.

कुल मिलाकर 27 औरतों ने कुंए के लिए करीब 178 दिन श्रमदान किया. इस बारिश में पानी भर जाने से कुएं का पानी अब पूरे गांव को मिल रहा है. इसका एक और परिणाम इन औरतों के चेहरे की चमक और आत्मविश्वास में भी देखा जा सकता है.

इसके बाद मर्द भी जुटने लगे. 25 फीट तक खुदाई के बाद चट्टान तोड़ना आसान काम नहीं था. घन-हथौड़े काम नहीं कर रहे थे. सब्बल मुड़-मुड़ जाती थी. आगे के लिए ब्लास्टिंग जरूरी थी क्योंकि इतने थोड़े से पानी से पूरे गांव की पूर्ति संभव नहीं थी. लिहाजा सरकार से ब्लास्ट करने की गुहार की. पंचायत ने हाथ खड़े कर दिए. कई बार जिला पंचायत तक गए पर कोई हल नहीं निकला. महीनों हर जतन करने के बाद इन मजदूर औरतों ने ही फिर से कुछ करने की ठानी. इन्होंने अपने पेट काट-काटकर आठ हजार रूपए इकट्ठा किए और करीब तीन महीने पहले चार-चार हजार की लागत से कुएं में दो ब्लास्ट कराये. इसका मलबा खुद औरतों ने ही हटाया. कुल मिलाकर 27 औरतों ने कुंए के लिए करीब 178 दिन श्रमदान किया. इस बारिश में पानी भर जाने से कुएं का पानी अब पूरे गांव को मिल रहा है. इसका एक और परिणाम इन औरतों के चेहरे की चमक और आत्मविश्वासमें भी देखा जा सकता है.

26 साल की फूलवती अपने हाथों के छाले दिखाते हुए कहती है कि इनका दुःख नहीं है, ये तो अब ठीक हो रहे हैं पर हमारे कुंए में पानी हिलोरें ले रहा है, इसकी ख़ुशी है. वे हंसते हुए कहती हैं अब तो मरद भी हमारी बात को तवज्जो देते हैं. उपसरपंच सामूबाई बताती हैं, ‘पंचायत से काम कराने में कई महीने गुजर जाते, फिर सरकार का काम कैसा होता है, यह सब जानते हैं. हमने पहले ही बरसों तक तालाबों और कुओं की सुध नहीं ली. अब हम किसी और के भरोसे इन्हें नहीं छोड़ सकते थे. तो हमने ही काम शुरू किया. 20 औरतों ने इस काम की शुरुआत की और देखिए आज काम कितना आगे बढ़ गया है.’

सामूबाई ठीक कह रही हैं. अब इस इलाके में पानी सहेजने का काम बड़े पैमाने पर हो रहा है. आसपास के कई गांवों में भी महिलाएं ही इस काम में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं. इससे इस इलाके से पलायन करने वाले परिवारों की संख्या भी घटी है. इलाके में जनजागरण का काम कर रही संस्था स्पंदन से जुड़ी सीमा प्रकाश कहती हैं, ‘यह देखना बहुत सुखद है कि अपढ़ और पिछड़ी समझी जाने वाली ये औरतें अब अपने जलस्रोतों को सहेजने में जुटी है. पानी की किल्लत के असली कारणों को इन्होंने समझ लिया है. हालांकि यहां तक पंहुचने का उनका यह सफ़र आसान नहीं रहा है पर अब तो लोग भी उनकी बात मान रहे हैं. ऐसी औरतें हों तो हर गांव की किस्मत पलट सकती है.