पिक्सार एनीमेशन की एक फिल्म है रैटाटुई. एक शेफ चूहे की कहानी कहने वाली इस फिल्म का एक दृश्य है जिसमें रेस्टोरेंट का सब कुछ दांव पर लगा हुआ है क्योंकि एक खडूस ‘फ़ूड क्रिटीक (खाने की समीक्षा करने और लिखने वाला)’ रेस्टोरेंट का खाना चखने के लिए आने वाला है. जहां एक तरफ रेस्टोरेंट से जुड़े लोग इस बात की चिंता में हैं कि फ़ूड क्रिटीक की टिप्पणी के बाद रेस्टोरेंट का भविष्य क्या होने वाला है वहीं फ़ूड क्रिटीक पहले ही मन बना चुका है कि खाना कैसा भी हो समीक्षा नकारात्मक ही लिखनी है.
खैर, फिल्म आगे बढ़ती है और रेस्टोरेंट पहुंचे क्रिटीक के आगे एक खास व्यंजन परोसा जाता है. यह फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण दृश्य है. बेशक यह एनिमेशन फिल्म है लेकिन यह दृश्य किसी भी आम दर्शक की सांसें रोकने के लिए काफी है.
मां जब बच्चे के लिए भोजन तैयार करती है तब उसकी कोशिश होती है कि उपलब्ध संसाधनों में बना भोजन अपने आप में सर्वश्रेष्ठ हो. बच्चा जब इसे खाता है तब वह खाने के स्वाद के साथ-साथ मां की उपस्थिति, उसका स्नेह और पूरा ध्यान मिलने को भी महत्व देता है
क्रिटीक जब परोसे गए व्यंजन का पहला निवाला मुंह में रखता है तो फिल्म में दिख रहे किरदारों की ही नहीं, फिल्म देखनेवालों की जिज्ञासा भी चरम पर पहुंच जाती है और इसके साथ ही कहानी फ्लैशबैक में चली जाती है. यहां एक नन्हा-सा बच्चा डायनिंग टेबल के पास बैठा खाने का इंतजार कर रहा है. तभी उसकी मां वहां आकर उसे खाना परोसती हैं और इस खाने के पहले निवाले के साथ ही बच्चा खुश हो जाता है. यह बच्चा कोई और नहीं वही क्रिटीक होता है जिसे रेस्टोरेंट के खाने की समीक्षा करनी थी. और जाहिर है कि रेस्टोरेंट के खाने में अपनी मां के हाथ के बने खाने का स्वाद पाकर वह अभिभूत हो जाता है.
इस फिल्म में मां के हाथ के खाने का यह स्वाद और याद कहानी की दिशा बदलने वाला साबित होता है. इस भावना का इस्तेमाल सिनेमा में शायद ही कभी इससे ज्यादा खूबसूरती से किया गया हो.
अब सवाल आता है कि आखिर मां के हाथ के बनाए खाने में ऐसी कौन सी बात होती है जो जमानेभर का स्वाद चखने के बाद भी कोई उसे भूल नहीं पाता और ताउम्र उसे पसंद करता है. सामान्य समझ, जो दुनियाभर में स्वीकार्य भी है, कहती है कि इसकी वजह बच्चे की परवरिश में मां की भूमिका है. परवरिश के दौरान लंबे समय तक मां के लिए बच्चे और बच्चे के लिए मां से जरूरी कुछ नहीं होता है. मां जब बच्चे के लिए भोजन तैयार करती है तब उसकी कोशिश होती है कि उपलब्ध संसाधनों में बना भोजन अपने आप में सर्वश्रेष्ठ हो. बच्चा जब इसे खाता है तब वह भोजन के स्वाद के साथ-साथ मां की उपस्थिति, उसका स्नेह और पूरा ध्यान मिलने को भी महत्व देता है. यहां खाना और उसके साथ का भावनात्मक जुड़ाव, दोनों महत्वपूर्ण होते हैं. बड़े होने के बाद भी किसी बच्चे में यह भावना कम नहीं होती नतीजतन उसकी स्मृतियों में अपनी मां के हाथ के बने खाने का स्वाद सबसे अच्छे स्वरूप में बना रहता है.
जीव विज्ञान के मुताबिक बच्चे के जन्म से पहले से ही उसकी स्वाद परखने की क्षमता पर मां के खाने और पकाने की आदतों का असर होने लगता है
जहां तक भारतीय समाज की बात है तो हमारे यहां प्राचीनकाल से माना जाता रहा है कि जो व्यक्ति खाना बनाता है उसके विचारों का खाने पर गहरा प्रभाव पड़ता है. कहा यह भी जाता है कि खाना बनाने वाले की भावना का सीधा असर खाना खाने वाले के मन पर भी पड़ता है. इस धारणा को बुनियाद बनाएं तो स्पष्ट है कि मां सबसे शुद्ध मन से खाना पकाती है. उसके बनाए खाने में प्यार, ममता, पवित्रता, समर्पण और जाने कौन-कौन से शुभ भाव मिले होते हैं. अब ऐसे में कैसे मुमकिन है कि किसी को अपनी मां के बनाए खाने से ज्यादा स्वादिष्ट कुछ और लगे?
सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों से इतर जीव विज्ञान इस बात को साबित करता है कि हम मां के हाथ के बने खाने को तरजीह क्यों देते हैं. विज्ञान के मुताबिक बच्चे के जन्म से पहले से ही उसकी स्वाद परखने की क्षमता पर मां के खाने और पकाने की आदतों का असर होने लगता है. अमेरिकी डायटीशियन, डॉ क्लैंशी कैश हैरिसन अपने फूड ब्लॉग ‘फील्ड्स ऑफ़ फ्लेवर’ में बताती हैं कि मां जिस परिवेश में रहती है और जो भोजन करती है, गर्भस्थ शिशु तक उसका स्वाद ‘एम्नियोटिक द्रव’ के जरिए और जन्म के बाद स्तनपान के जरिए पहुंचता है. बच्चा इस स्वाद को न सिर्फ याद रखता है बल्कि बाद में उसकी पहचान भी कर सकता है. जन्म के बाद स्वाद के साथ-साथ बच्चा खुशबू को भी पहचान सकता है. अर्थात बच्चे के जन्म के पहले और बाद में उस तक पहुंचने वाला पोषण मां की ही जिम्मेदारी होता है यानी कहा सकता है कि मां और बच्चे में पहला संबंध भोजन (या स्वाद) का होता है.
डॉ हैरिसन के अनुसार जिस तरह के खाने के साथ बच्चे की परवरिश होती है उसी स्वाद के अनुरूप बच्चे में ‘टेस्ट बड्स’ (जीभ पर पाए जाने वाले स्वाद संवेदक) का विकास होता है. टेस्ट बड्स का विकास होने से व्यक्ति में स्वाद से जुड़ी पहचान और पक्की हो जाती है. बाद में यह क्षमता ही बच्चे की पसंद-नापसंद का आधार बनती है.
प्रसिद्ध मनोविज्ञानी सिगमंड फ्रायड का ‘मनोसामाजिक विकास का अध्ययन’ बताता है कि मनुष्य गंध और स्वाद की वरीयताओं के साथ जन्म लेता है जो विकास के साथ लगातार पक्की होती जाती हैं
मां के हाथ से बने खाने को तरजीह देने का तीसरा कारण मनोवैज्ञानिक है. दरअसल कोई भी इंसान जब स्वाद को समझना शुरू करता है तो उस दौरान अपने घर में उसे लंबे अरसे तक एक ही पैटर्न के स्वाद वाला खाना मिलता है. यह पैटर्न उसके दिमाग में स्थापित हो जाता है. प्रसिद्ध मनोविज्ञानी सिगमंड फ्रायड का ‘मनोसामाजिक विकास का अध्ययन’ बताता है कि मनुष्य गंध और स्वाद की वरीयताओं के साथ जन्म लेता है जो विकास के साथ लगातार पक्की होती जाती हैं. व्यक्ति के मन में किसी स्वाद या गंध को लेकर कुछ स्थापित मानक होते हैं जिनमें से कुछ जन्मजात होते हैं और बाकी परवरिश के दौरान विकसित होते हैं.
मनोविज्ञान का एक अन्य सिद्धांत कहता है कि हर व्यक्ति के दिमाग में अलग-अलग तरह के दृश्य, स्वाद या संगीत की तुलना लगातार चलती रहती है और वह उसे कुछ बेहतर ढूंढ़ने के लिए प्रेरित भी करती है. ठीक इसी तरह किसी व्यक्ति के दिमाग में किसी व्यंजन के स्वाद की एक पहचान बैठने के बाद अगर उसे किसी और तरीके से या किसी और व्यक्ति का पकाया हुआ खाना परोसा जाएगा तो वह पहले उस स्वाद की तुलना अपने दिमाग में स्थापित स्वाद से करेगा. यह स्थापित स्वाद मां के हाथ के बनाए खाने का ही होता है और यह तुलना लगातार उस स्वाद की याद बनाए रखती हैं.
खाने की लगातार चलने वाली यह तुलना इंसान के खाने की पसंद या नापसंद को निर्धारित करती है. यहां पर इस बात की संभावना ज्यादा होती है कि व्यक्ति उस दूसरे स्वाद को अपने दिमाग में स्थापित स्वाद से कम वरीयता दे और इस प्रक्रिया में मां के हाथ का बना खाना बाजी मार ले जाता है.
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