सबसे पहले आप अपनी नई किताब के बारे में बताएं.
यह किताब आत्मकथा नहीं हैं, लेकिन किसी हद तक आत्मकथात्मक है. यह किताब उस बचपन से शुरू होती है, जिसमें यह कभी नहीं बताया गया कि तुम मुसलमान हो और वह हिंदू है. यह किताब अवध के उस वातावरण में पले हुए बच्चे की है जहां मलिक मोहम्मद जायसी पैदा हुए, जहां सोहर गाया जाता था. मेरा इशारा गंगा-जमुनी तहजीब की तरफ है. इन दिनों दो बातों से मैं गुरेज करने लगा हूं, एक गंगा-जमुनी तहजीब और दूसरा सेकूलरिज्म. ये इतने बदनाम हो गए हैं कि जब मैं इनका इस्तेमाल करता हूं तो लगता है मैं झूठ बोल रहा हूं.
2016 में इस किताब को लिखने की जरूरत क्यों पड़ी?
बात ठीक इसके उलट है. यह किताब दिमाग में बहुत पहले पैदा हो चुकी थी. आज जो करने की कोशिश की जा रही है, वो काम 1947 में ही हो गया था. उन्होंने हमसे कहा कि पाकिस्तान को एक अलग मुल्क मान लिया गया है. आखिर तक हमसे यह कहा जाता रहा कि ऐसा नहीं होने दिया जाएगा. गांधीजी कहते थे, ‘ओवर माइ डेड बॉडी’. अगर जवाहरलाल कह दें तो दादा की डांट पड़ती थी, ‘पंडित जी बोलो, पंडित नेहरू’. पंडित नेहरू अंग्रेजों ने भी कहना शुरू किया. जब आखिरी वायसराय माउंटबेटन नेहरू के प्रस्ताव के बाद हिन्दुस्तान के पहले गवर्नर जनरल हो गए तो नारे लगे, ‘पंडित माउंटबेटन’.
'जब आप हिंदू राज बना रहे थे तो ढकोसला क्यों? यह सीधे कहना चाहिए था कि 800 साल मुसलमानों की हुकूमत हो गई, 200 साल अंग्रेजों ने राज कर लिया. पाकिस्तान बन ही रहा है. अब यह हिंदू राज होगा'
जिस मिली-जुली संस्कृति की अपनी किताब में मैं बात कर रहा हूं उससे सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, राजगोपालाचारी या गोविंद बल्लभ पंत मेल नहीं खाते थे. जब भी सेकुलरिज्म का जिक्र होता है, तो नेहरू का नाम उछाल दिया जाता है. सिर्फ एक नेहरू? क्या कोई दूसरा सेकुलर नाम भी है?
क्या सेकुलर भारत बनाने के वे सारे दावे गलत थे जो आजादी-विभाजन के बाद हमारे नेताओं ने हमसे किये? क्या नेहरू की नीयत पर भी आपको संदेह है?
आजादी के बाद सबके मन में एक ही बात थी, हिंदू राज. इसमें गांधी और नेहरू भी शामिल थे. एक मुस्लिम राष्ट्र बना दिया गया, क्यों बना दिया गया? जो इतिहास हम पढ़ते रहे हैं, उसकी कहानी कुछ और है. इस किताब का मकसद यही है कि आप उस इतिहास को फिर से देखिये.
पंडित नेहरू के बहुत चहेते थे लाल बहादुर शास्त्री. 1965 में प्रधानमंत्री बने. पाकिस्तान से जंग हो गई. उन्होंने गुरू गोलवलकर को बुलाया और उनसे कहा कि अपने स्वयंसेवकों को नागरिक सुरक्षा के काम में लगा दीजिए.
आप यह कहना चाह रहे हैं कि हिंदू राष्ट्र का सपना सबके मन में पल रहा था?
हां, सबके दिमाग में था. लेकिन उसमें मुसलमान भी रहेंगे और बराबरी से रहेंगे. राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति बनेंगे. लेकिन स्टीयरिंग व्हील हिंदुओं के हाथ में होगी. जब भी संपूर्ण भारत की बात होती थी, जवाहरलाल नेहरू मना कर देते थे. तीन बार उन्होंने ऐसा किया. गांधीजी को भी जिन्ना पसंद नहीं थे.
जब आप हिंदू राज बना रहे थे तो ढकोसला क्यों? यह सीधे कहना चाहिए था कि 800 साल मुसलमानों की हुकूमत हो गई, 200 साल अंग्रेजों ने राज कर लिया. पाकिस्तान बन ही रहा है. अब यह हिंदू राज होगा और हिंदू और मुसलमान बराबरी से रहेंगे.
लेकिन हिंदू राज में हिंदू और मुसलमान बराबरी से क्यों रहेंगे?
वे नहीं चाहते थे कि पाकिस्तान बनने के खिलाफ उन्होंने जो सार्वजनिक मुहिम चलाई है, उस पर लोग बाद में शक करें. इतनी आसानी से कैसे कह देते कि यह हिंदू राज होगा?
क्या इन 69 सालों में साम्प्रदायिकता से लड़ाई का सारा दावा झूठा है?
खोखला है. 1969 में मैं खान अब्दुल गफ्फार खान के साथ था. वे भारत दर्शन पर थे. मैं उनका प्रेस सेक्रेटरी था. स्टेट्समैन वालों ने मुझे भेजा था. हम लोग अहमदाबाद पहुंचे, जिसका नाम इन्होंने बदलकर कर दिया है अमदाबाद.

1969 में गुजरात में जो दंगे हुए. रेड्डी कमिशन की रिपोर्ट है. कांग्रेस वाले थे उसमें. खान अब्दुल गफ्फार खान ने कहा कि यह गांधी और पटेल का मुल्क है, मैं भी यहां रहूंगा. नारे लग रहे थे, ‘मुसलमान के दो स्थान, कब्रिस्तान या पाकिस्तान’. ये नारे सबसे पहले मैंने वहां सुने जो बाद में पूरे देश में फैल गए. उन दंगों में हिंदुस्तान की मशहूर शास्त्रीय गायिका रसूलन बाई का घर जला दिया गया था और 2002 में दंगे हुए तो कवि वली दकनी की मज़ार तोड़ दी गई. जितने दंगे मैंने देखे, उनके विवरण हैं इस किताब में और उसमें कांग्रेस नेतृत्व की क्या भूमिका थी. 1993 का बंबई का जो दंगा था, उसमें भी कांग्रेस ही थी. सुधाकर नायक एक तरफ, शरद पवार दूसरी तरफ. एक दूसरे का खेल देख रहे थे. सरदार जाफरी तक को भागना पड़ा.
क्या भारत में सांप्रदायिकता की परियोजना में आरएसएस और बीजेपी का कोई अतिरिक्त योगदान नहीं है?
जो होना था, वो हो गया. अब यह गलती कर रहे हैं. जो हो गया, उसी को चलाते रहें तो अच्छा है. जो यह करना चाह रहे हैं, वो कभी नहीं होगा. यह एक बहुभाषिक और बहु-सांस्कृतिक देश है और ऐसा ही रहेगा.
यह बात सही है कि पिछले दो सालों में सांप्रदायिक तनाव बढ़ा है. 30 फीसदी वोट पाकर इन्हें बहुमत मिला है. यह चाह रहे हैं कि इस बहुमत को मजबूत कर लें. लेकिन इन्हें मुसलमानों से नफरत नहीं है, इनको परेशानी है जाति संघर्ष से. मुसलमान बीच में पिस रहे हैं. हिंदू समाज अपने आप को संगठित करना चाह रहा है. इसमें मुसलमानों का इस्तेमाल हो रहा है. इनको डर है मुलायम सिंह नहीं हटेंगे, इनको डर है कि मायावती नहीं जाएंगी.
क्या आप सांप्रदायिक परियोजना को सवर्णवादी मानते हैं?
किसी हद तक. लेकिन कुछ और वजहें भी हैं. पिछड़ी जातियां भी मुसलमानों को अपने साथ लाना चाहती हैं. वे सोचती हैं कि मुसलमान दबे हुए हैं, इन्हें डर दिखाकर साथ रखा जा सकता है. मुसलमान इसी भय से मुलायम सिंह के साथ चले गए, लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला. उत्तर प्रदेश में मुसलमान और ब्राह्मण सबसे ज्यादा परेशान हैं कि कहां जाएं. ब्राह्मण बीजेपी में गए थे, लेकिन वहां तो पहले से कल्याण सिंह बैठे थे.
देश के बौद्धिक तबके और आम सेकुलर जनता को ऐसा लगता है कि बीजेपी की सरकार आने के बाद से मुसलमानों, दलितों और दूसरे अल्पसंख्यक और कमजोर समूहों पर हमले तेज हुए हैं. क्या आपकी किताब इसकी चर्चा भी करती है?
बहुत थोड़ा सा. लेकिन ये तो होना ही था. जब नफरत के लिए आपने एक अलग मुल्क बना लिया तो वो नफरत रहेगी. और वो नफरत तब इस्तेमाल की जाएगी, जब किसी को लगेगा कि इससे फायदा है.
आप कुछ सतही सामान्यीकरण कर रहे हैं. आप जिस गंगा-जमुनी संस्कृति की बात कर रहे थे वह आपके शब्दों में विभाजन के साथ ही खत्म हो गई.
देखिये, यह कोई गुस्से वाली किताब नहीं है. जो मुद्दे इस किताब में उठाए गए हैं, इन्हें हमने अब नहीं समझा तो ऐसे ही चलता रहेगा.
अगर आप मुझसे ईमानदारी से पूछें कि यह किताब मैंने क्यों लिखी तो मेरा जवाब यह होगा कि इसका मुख्य उद्देश्य उस त्रिकोण को पेश करना है जिसमें हम 70 सालों से फंसे हुए हैं. हिंदू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान और दिल्ली-कश्मीर एक त्रिकोण है. यह आपस में जुड़े हुए ऐसे जटिल मुद्दे हैं जिनमें किसी एक को भी छूने पर असर सब पर पड़ेगा. यह हमने बनाया है 1947 में. कश्मीर को सुलझाने के लिए पाकिस्तान से बात करनी पड़ेगी और जिस दिन पाकिस्तान को लाएंगे तो हिंदू-मुस्लिम रिश्तों पर उसका असर पड़ेगा. अगर जो इन दिनों हो रहा है, वैसे ही चलता रहा तो इस त्रिकोण से 1000 सालों तक हम बाहर नहीं निकल पाएंगे.
आप बहुत स्याह तस्वीर पेश कर रहे हैं.
यही तो मैं बता रहा हूं कि इससे निकलने के लिए इसे समझना पड़ेगा. इसको समझेंगे तभी सामंजस्य की मानसिकता बनेगी और हम देख पाएंगे कि हमसे क्या गलतियां हुईं.
इस पूरी प्रक्रिया में मुस्लिम नेतृत्व की क्या भूमिका रही?
वे अपनी जमीन बचाने में लगे थे. उन्हें डर था कि अंग्रेज चला गया तो हमारी ताल्लुकदारी चली जाएगी. उन्होंने समझौता कर लिया.
आपको लगता है कि भारत की हिंदू आबादी के मन में यह बात डाली गई या रही कि पाकिस्तान तो बन गया तो मुसलमान यहां कर क्या रहे हैं?
यही बात है. उनके दिमाग में रह गया कि अलग देश भी ले लिया और रह भी गए. बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद इसी बात का प्रचार किया गया और सारे गुस्से को पाकिस्तान की तरफ मोड़ दिया गया.
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