क्या आपने छोटे कद के लोगों की सेना देखी है? हमारे देश में अमूमन ऐसा नहीं दिखता. हालांकि साहस और दक्षता का इंसान के कद से कोई लेना-देना नहीं है. हमारे ही देश में छोटे कद के गोरखाओं की सैन्य क्षमता का लोहा हमेशा से माना जाता रहा है. लेकिन इसे अपवाद ही माना जाएगा क्योंकि आमतौर पर सेना की ज्यादातर बटालियनों में लंबे कद (औसत से कहीं ज्यादा) के लोगों को लिया जाता है. अब केंद्र सरकार के एक हालिया फैसले को सरसरी निगाह से देखें तो लगता है कि वह इस परिपाटी को बदलने जा रही है.

एनडीए सरकार ने पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में बस्तरिया बटालियन नाम की एक नई सशस्त्र सेना बनाने को मंजूरी दी है. मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह ने इसे ऐतिहासिक फैसला बताते हुए कहा है कि पहली बार आदिवासियों को सेना में भर्ती के शारीरिक मानदंडों (लंबाई, चौड़ाई, वजन) में छूट दी गई है. सीआरपीएफ में आदिवासियों के लिए निर्धारित लंबाई 162.5 सेंटीमीटर है और नई बटालियन में इसे घटाकर 155.5 सेंटीमीटर किया गया है. इसी तर्ज़ पर सीने की चौड़ाई, सीने के फुलाव और शरीर के वजन में भी छूट देने का प्रावधान किया गया है.

बस्तर के आदिवासियों को नई बटालियन में भर्ती होने के लिए शारीरिक योग्यता में छूट दी जा रही है और इसका मतलब है कि यह तबका दशकों से सेना के योग्य नहीं रहा

बस्तरिया बटालियन के गठन को मीडिया के एक हिस्से ने सेनाओं के समावेशी होने का प्रतीक भी बताया था. लेकिन इस घटनाक्रम से यह सवाल पैदा होता है कि क्या हमारी सेनाएं सचमुच समावेशी हैं? क्या देश के अधिकांश आदिवासी, दलित या गरीबी रेखा से नीचे आने वाले लोग शारीरिक मानदंडों के आधार पर सेनाओं में शामिल होने योग्य हैं? इन दोनों सवालों का सीधा जवाब ‘न’ है. इसके लिए सेना में अलग से सर्वे करवाने की जरूरत नहीं है. यदि बस्तर के आदिवासियों को इस नयी बटालियन में भर्ती होने के लिए शारीरिक योग्यता में छूट दी जा रही है तो इसी फैसले से एक हद तक यह बात साबित हो जाती है कि यह तबका दशकों से सेना के योग्य नहीं रहा है.

हमारे यहां बाकी सरकारी प्रतिष्ठानों से इतर रक्षा/सशस्त्र सेनाओं में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है. सेना में आरक्षण के प्रश्न पर जवाब देते हुए रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने सात मई, 2015 को कहा था, ‘सेना में आरक्षण लागू करने का कोई प्रश्न विचाराधीन नहीं है. सेना में भर्ती मेरिट के आधार पर होती है और यह वर्ग, जाति, समुदाय, क्षेत्र व धर्म की परवाह किये बिना सारे नागरिकों के लिए खुली है.’

‘सबके लिए खुली’ सेना के बंद दरवाजे

प्रश्न उठता है कि अगर सेना में जाने का रास्ता सबके लिए खुला है तो वंचित और गरीब तबके की आबादी के अनुपात में उसका सेना में प्रतिनिधित्व क्यों नहीं है. व्यवहारिक नजरिये से देखा जाय तो इन तबकों के नौजवानों को काफी संख्या में सेनाओं में जाना चाहिए. यह जीविका का अच्छा साधन है क्योंकि एक तो सेनाओं में बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध हैं, दूसरे इनमें इतने उच्च स्तर की शैक्षणिक योग्यता की मांग नहीं होती. फिर भी अगर वंचित समुदायों का प्रतिनिधित्व सेनाओं में कम है तो इसका सीधा कारण है उनका सेना के लिए तय शारीरिक मानदंडों पर खरा न उतरना. जनजातीय आधारों पर बनीं गोरखा, नागा और महार जैसी बटालियनों को अगर हटा दिया जाय तो सेना में आदिवासियों और दलितों की संख्या देश में इन तबकों की कुल आबादी के अनुपात में बहुत ही कम है.

जनजातीय आधारों पर बनीं गोरखा, नागा और महार जैसी बटालियनों को अगर हटा दिया जाय तो सेनाओं में उपस्थित आदिवासियों और दलितों की संख्या देश में इन तबकों की कुल आबादी का नाममात्र हिस्सा रह जाएगी

सेनाओं में शारीरिक योग्यता का पैमाना वह लक्ष्मण-रेखा है जिसे देश के अधिकांश दलित-आदिवासी पार नहीं कर पाते. जीव विज्ञान कहता है किसी व्यक्ति की शारीरिक बनावट उसकी आनुवांशिकी और उसके खानपान का मिलाजुला परिणाम होती है. हमारे यहां ज्यादातर दलित-आदिवासी समुदाय आनुवांशिक रूप से ऊंची कद काठी के नहीं रहे. फिर उनमें कभी ऐसी संपन्नता भी नहीं रही कि सिर्फ खानपान के बूते उनकी पीढ़ियां आनुवांशिकता को पराजित कर दें. बीते सालों में हुए अध्ययन भी कुछ यही बताते हैं.

बस्तर जिले के ‘गदबा’ आदिवासियों की लंबाई और वजन की प्रवृत्ति का अध्ययन करने वाली इंटरनेशनल जर्नल ऑफ सोशियोलॉजी एंड एंथ्रोपोलॉजी की 2012 की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस समुदाय के एक 20 साल के नौजवान की औसत लंबाई 154.26 सेंटीमीटर है. वहीं द यूनाइटेड नेशन यूनिवर्सिटी के फूड एंड न्यूट्रीशन जर्नल के अध्ययन के मुताबिक एक छत्तीसगढ़ी की औसत लंबाई 163.7 सेंटीमीटर है. उसी तरह एक झारखंडी की औसत लंबाई 162.5 सेंटीमीटर है. छत्तीसगढ़ और झारखंड दोनों की आबादी में तकरीबन एक चौथाई हिस्सा (जो उत्तर भारत में सबसे ज्यादा है) आदिवासियों का है. ध्यान देने वाली बात है कि ये आंकड़े पूरी आबादी के आधार पर लिए गए हैं और यह आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है कि यहां औसत ऊंचाई से कम ऊंचाई वाली ज्यादातर आबादी आदिवासी या दलित वर्ग की ही होगी. इन दोनों राज्यों में अनुसूचित जाति के लोगों की आबादी तकरीबन 12 प्रतिशत है.

अगर हम राष्ट्रीय औसत की बात करें तो नेशनल न्यूट्रीशन इंस्टट्यूट की रिपोर्ट के मुताबिक शहरी भारत के नागरिकों की औसत लंबाई 165.2 सेंटीमीटर और ग्रामीण भारत के नागरिकों की औसत लंबाई 161.2 सेंटीमीटर है. जबकि भारतीय थल सेना में भर्ती होने के लिए न्यूनतम लंबाई 167 सेंटीमीटर है जिसे खास जनजातियों के लिए घटाकर 162 सेंटीमीटर किया गया है. सीआरपीएफ में लंबाई की मांग 170 सेंटीमीटर की है जिसे जनजातियों के लिए 162.5 सेंटीमीटर रखा गया है. दिल्ली पुलिस के अभ्यर्थी की लंबाई 170 सेंटीमीटर होनी चाहिए. जनजातियों के लिए यह 160 सेंटीमीटर है.

छत्तीसगढ़ और झारखंड का उदाहरण बताता है कि इन पैमानों पर ज्यादातर आदिवासी खरे नहीं उतरेंगे. भारत में अनुसूचित जाति की आबादी यानी इस आधार पर कुछ करोड़ लोग सीधे-सीधे सेना के अयोग्य हैं. 2001 की जनसंख्या को आधार बनाएं तो भारत में तकरीबन 16 करोड़ अनुसूचित जाति और आठ करोड़ अनुसूचित जनजाति के लोग हैं. इतनी बड़ी आबादी का सेना के लिए अयोग्य होना सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है. बारीकी से देखें तो इससे हम अपने लोकतांत्रिक विकास की कमियों-खामियों को भी समझ सकते हैं.

इंग्लैण्ड के पुरुषों की औसत लंबाई 177 सेंटीमीटर है पर रॉयल ब्रिटिश आर्मी सिर्फ 148 सेंटीमीटर की न्यूनतम लंबाई की मांग रखती है

फौज-पुलिस की नागरिकों से ज्यादा लंबाई और लोकतंत्र

शोध कहते हैं कि फौजियों की दक्षता और शारीरिक क्षमता का कद से इतना ज्यादा लेना देना नहीं है. वह कई अन्य कारकों पर भी निर्भर करता है. आजकल वैसे भी युद्ध इतने तकनीक-केन्द्रित हो चुके हैं कि इंसानी ताकत अप्रासंगिक हो चुकी है. यह समझ में आता है कि एक सैनिक की नजर ठीक हो, शरीर स्वस्थ हो, उसमें चुस्ती-फुर्ती हो पर यह कौन सा तर्क है कि अगर आपका कद थोड़ा छोटा है तो आप सेना के योग्य नहीं हैं! दरअसल यह तर्क हमें विरासत में मिला है. अंग्रेजों ने इस देश पर शासन करने के लिए भारी-भरकम डीलडौल वाले लोगों की एक ऐसी सेना-पुलिस बनाई थी जिसका पहला मकसद था अपनी उपस्थिति से लोगों को डरा देना. आतंक या भय के बल पर नागरिकों को काबू रखने की यह एक सामंतवादी तकनीक थी और वर्तमान व्यवस्था देखते हुए आसानी से कहा जा सकता है कि सेना-पुलिस का वही मॉडल आज भी बदस्तूर जारी है.

दुनिया के अन्य देशों का क्या हाल है?

कनाडा के पुरुषों की औसत लंबाई 176 सेंटीमीटर और महिलाओं की औसत लंबाई 163.6 सेंटीमीटर है पर कनाडा की सेना न्यूनतम लंबाई की कोई शर्त ही नहीं रखती. इंग्लैण्ड के पुरुषों की औसत लंबाई 177 सेंटीमीटर है पर रॉयल ब्रिटिश आर्मी सिर्फ 148 सेंटीमीटर की न्यूनतम लंबाई की मांग रखती है. ब्रिटिश औरतों के लिए यह और भी कम है. कमोबेश यही ट्रेंड अमेरिका, स्वीडन, जर्मनी में भी लागू है.

अंग्रेजों ने इस देश पर शासन करने के लिए भारी-भरकम डीलडौल वाले लोगों की एक ऐसी सेना-पुलिस बनाई थी जिसका पहला मकसद था अपनी उपस्थिति से लोगों को डरा देना

इस संदर्भ में आयरलैंड का एक घटनाक्रम बड़ा दिलचस्प है. यहां जुलाई 2001 में इस मुद्दे पर आयरिश रक्षा मंत्रालय को एक विशेष समिति का गठन करना पड़ा था. लम्बी बहस के बाद अंततः 2006 में आयरिश सरकार ने ज्यादा से ज्यादा महिलाओं और पुरुषों के लिए अपनी सेना के दरवाजे खोलते हुए ‘न्यूनतम कद’ का पैमाना कम कर दिया था. आयरलैंड में पुरुषों की औसत लंबाई 179 सेंटीमीटर और औरतों की 163.5 सेंटीमीटर है. उस समय सेना में महिलाओं का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए इसे घटाकर 157.48 का सेंटीमीटर का प्रस्ताव पारित किया गया था.

फिलहाल बस्तरिया बटालियन के गठन ने एक नई बहस को जन्म दिया है. नैसर्गिक-न्याय की भी दृष्टि से इस प्रश्न पर बहस होनी चाहिए कि शारीरिक रचना/योग्यता के आधार पर लोगों को सेनाओं में जाने से कैसे रोका जा सकता है. हमारे यहां भी यह मांग की जा सकती है कि सेनाओं व सशस्त्र-बलों में शारीरिक योग्यता का पैमाना देश के औसत शारीरिक मापदंडों से ज्यादा नहीं होना चाहिए. और अगर इस दिशा में सरकार कोई सकारात्मक फैसला लेती है तब हम कह पाएंगे कि हमारी सेना समावेशी है.