इन गांवों में कई मौत की नींद सो चुके. कई धीरे-धीरे उस तरफ बढ़ रहे हैं. कुछ कमजोर होते हुए जिंदा कंकाल हो चुके हैं तो कुछ ने खाट पकड़ ली है. मध्यप्रदेश के धार, झाबुआ और अलीराजपुर जिले में पड़ने वाले आदिवासियों के कई गांवों का यही हाल है. ये गांव सिलिकोसिस की चपेट में हैं.

ऊंची -नीची पहाड़ियों से होते हुए हम झाबुआ में आदिवासियों के फलिए (गांव) कचलधरा में पहुंचे. सुबह के निकले शाम हो गई थी हमें यहां तक पहुंचने में. सबसे पहले हमारी मुलाकात उस परिवार से हुई जिसका आखिरी आसरा भी अब मौत की घड़ियां गिनने को मजबूर है. महज 35 साल के दिनेश रायसिंह पिछले तीन साल से हर पल मंडराती मौत के खौफ में जीते हैं. उनके हाथ में सरकार से मिला सिलिकोसिस पीड़ित होने का कार्ड है. करीब दस साल पहले उनकी पत्नी भी इसी बीमारी की भेंट चढ़ गई और उसके बाद बहन भी. दिनेश के दो छोटे-छोटे बच्चे हैं. दो -ढाई बीघा सूखी जमीन है और घर में फाके के हालात.

धार, झाबुआ और अलीराजपुर जिले के कमोबेश एक हजार से ज्यादा परिवारों का यही हाल है. उन पर सिलिकोसिस का कहर इस तरह टूटा है कि वे पूरी तरह से बर्बाद हो चुके हैं.

यह कहानी सिर्फ दिनेश की ही नहीं है. धार, झाबुआ और अलीराजपुर जिले के कमोबेश एक हजार से ज्यादा परिवारों का यही हाल है. उन पर सिलिकोसिस का कहर इस तरह टूटा है कि वे पूरी तरह से बर्बाद हो चुके हैं. ये सभी लोग उन आदिवासी मजदूर परिवारों से हैं जो आसपास काम न मिलने की वजह से पेट पालने के लिये पत्थर की पिसाई करने गुजरात गए थे. उन्हें काम तो मिला लेकिन इस दौरान सिलिकोसिस ने उन्हें ऐसा जकड़ा कि वे किसी काम के न रहे.

सिलिकोसिस की गंभीरता का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि इससे पीड़ित मरीजों के बचने की कोई उम्मीद नहीं बचती. तिल–तिल कर मरने और हर पल मौत के इंतज़ार के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं होता. अप्रैल 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक धार, झाबुआ और अलीराजपुर जिले के 105 गांवों में सिलिकोसिस से हाहाकार मचा हुआ है. बीते करीब एक दशक के दौरान इस बीमारी के 1721 पीड़ितों में से 589 की मौत हो चुकी है और बाकी 1132 लोग हर एक दिन मौत के साए में दिन गुजार रहे हैं.

सिलिकोसिस फेफड़ों की बीमारी है. पत्थर या सीमेंट की खदानों जैसी धूल भरी जगहों पर लगातार काम करते रहने से नाक के जरिये धूल, सीमेंट या कांच के महीन कण फेफड़ों तक पहुंच जाते हैं. धीरे–धीरे व्यक्ति की शारीरिक क्षमता कम होती जाती है. वह दिन-ब-दिन सूखकर कांटा होता जाता है और आखिर में उसकी मौत हो जाती है.

सिलिकोसिस से पीड़ित एक व्यक्ति
सिलिकोसिस से पीड़ित एक व्यक्ति

अलीराजपुर जिले के मालाबाई, रोडधा और रामपुरा जैसे गांवों में यही हुआ है. कुछ परिवारों में मुखिया और औरतों की असमय मौत हो गई. उनमें अनाथ बच्चे रह गए हैं. इसी जिले की ध्याना पंचायत में 80 लोग अपनों को छोड़ इस दुनिया से विदा हो गए. इसी तरह झाबुआ जिले के मुण्डेत, बरखेडा और रेदता गांव के 150 से ज्यादा लोगों ने भी सिलिकोसिस के चलते दम तोड़ दिया. आदिवासियों के फलियों में कहीं अनाथ बच्चे हैं तो कहीं विधवाएं और कहीं परिवार का मुखिया बरसों से खटिया पकड़ कर आसमान की ओर टकटकी बांधे पड़ा है. उसकी सांसें अटक-अटक कर चल रही हैं मानो किसी भी वक्त शरीर का साथ छोड़ देंगी.

झाबुआ, अलीराजपुर और धार जिले की 80 फीसदी आबादी आदिवासियों की है. ये तीनों जिले मध्यप्रदेश के सबसे पिछड़े जिलों में से हैं. यहां रोजी -रोटी का भारी टोटा है. सरकारें इनके रोजगार के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च करती हैं लेकिन नाकारा तंत्र और भ्रष्टाचार की वजह से इन तक धेला भी नहीं पंहुच पाता. रोजगार मिल भी जाता है तो मजदूरी पूरी नहीं मिलती. इलाके के 80 प्रतिशत गांवों से लोग मजदूरी के लिये पलायन कर जाते हैं. ज्यादातर लोग इन तीनों जिलों की सीमा से सटे गुजरात के गोधरा और बालासिन्नौर जाकर मजदूरी करते हैं. हालात ये हैं कि बारिश को छोड़ आठ महीने इन गांवों में सन्नाटा रहता है. घर भर के लोग कमाने जाते हैं. फलियों में सिर्फ बूढ़े होते हैं.

गोधरा और बालासिन्नौर में पत्थरों की पिसाई के कई कारखाने हैं. इन पत्थरों की धूल से कांच बनता है. यहां बडी संख्या में आदिवासी काम करते हैं. पत्थरों की पिसाई के दौरान लापरवाही से जहरीली और घातक सिलिका धूल सांस के जरिये इनके फेफड़ों में जमा हो जाती है. तीन महीनों में यह महीन धूल फेफड़ों में सीमेंट की तरह जम जाती है. आरोप आम हैं कि गुजरात की इन फैक्ट्रियों में गैरकानूनी तरीकों से मजदूरों से काम कराया जाता है. आदिवासी अज्ञानता की वजह से पेट के लिये यह काम करते हैं और अपनी जिंदगी दांव पर लगा देते हैं.

करीब एक दशक पहले इन इलाकों में तेजी से होने वाली मौतें पहली बार चर्चा में आईं. इसके पीछे की वजह यानी सिलिकोसिस का पता चला तो नई शुरूआत नाम के एक सामाजिक संगठन इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की. शीर्ष अदालत ने इस मामले को निपटारे के लिए राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भेज दिया. नवंबर 2009 को आयोग ने फैसला सुनाया कि सिलीकोसिस नामक बीमारी से गुजरात में मरने वाले 238 लोगों के परिजनों को गुजरात सरकार 3-3 लाख रुपये का मुआवजा दे. आयोग ने यह भी कहा कि इस बीमारी से पीड़ित जो 304 लोग मध्‍यप्रदेश के रहने वाले हैं, उनका निशुल्‍क उपचार मध्‍यप्रदेश सरकार कराए. साथ ही वह उन सभी का पुनर्वास भी करे.

चार मई 2016 को शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में गुजरात सरकार को मृतक के परिवारों को मुआवजा देने और मध्यप्रदेश सरकार को जीवित पीड़ितों और उनके परिवारों के पुनर्वास के लिये कहा

हालांकि गुजरात सरकार ने इस आदेश के पालन में असमर्थता जताई. सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर कर उसने कहा कि उसने मानवाधिकार आयोग के आदेश के बाद सिलिकोसिस बीमारी से पीड़ित 238 मृतकों के मामलों की जांच कराई थी. इनमें उसे 148 मामले ऐसे मिले जिनमें पीड़ितों या उनके परिजनों को अन्य सरकारी योजनाओं के तहत मुआवजा मिल चुका है. राज्य सरकार ने कहा कि उसकी ओर से इन 148 लोगों को मुआवजा नहीं दिया जा सकता. उधर, मध्‍यप्रदेश सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दायर किया. इसमें उसका कहना था कि आयोग के आदेश के बाद उसने मध्‍यप्रदेश के झाबुआ, अलीराजपुर और धार नामक तीन जिलों में सर्वे कराया था. इसमें उसे कुछ ऐसे लोग मिले जो गुजरात गए थे और वहां पर काम करने के दौरान सिलिकोसिस से पीड़ित हो गए. सरकार ने अदालत को बताया कि वह ऐसे लोगों की सूची तैयार कर रही है.

चार मई 2016 को शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में गुजरात सरकार को मृतकों के परिवार को मुआवजा देने और मध्यप्रदेश सरकार को जीवित पीड़ितों और उनके परिवारों के पुनर्वास के लिये कहा. इस पर गुजरात सरकार ने सिलिकोसिस पीडि़त 238 परिवारों के लिए प्रति परिवार तीन लाख रुपये के हिसाब से करीब सात करोड़ 14 लाख रुपये की मुआवजा राशि मध्य प्रदेश के तीनों जिलों के कलेक्टर के शासकीय खाते में जमा कर दी है. बताया जा रहा है कि इसमें से करीब 70 फीसदी राशि का भुगतान भी पीड़ितों को किया जा चुका है. लेकिन 304 पीड़ितों के पुनर्वास आदेश में अब तक कोई प्रगति नहीं हुई है. अब इसे लेकर पीड़ित एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का मन बना चुके हैं.

इलाके में तीन स्वयंसेवी संगठन इन पीड़ितों की लड़ाई लड़ रहे हैं. सिलिकोसिस पीड़ित संघ के दिनेश रायसिंह, कुंवरसिंह और खेमसिंह बीमार लोगों के साथ मिलकर उन्हें उनके अधिकारों के बारे में सजग कर रहे हैं. इसी तरह संगठन नई शुरुआत के अमूल्य निधि, मोहन सिंह सुल्या और राकेश सस्तिया लोगों के साथ मिलकर सरकार के खिलाफ अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं. जन स्वास्थ्य अभियान भी इसमें मदद कर रहा है. तीनों संगठनों ने 2005 -06 में इन जिलों के 21 गांवों का सर्वे किया था. सर्वे में पाया गया था कि 489 लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं और 158 लोगों की मौत हो चुकी है. 2008 में 40 गांवों का सर्वे हुआ जिसमें 199 लोगों की मौत का दावा किया गया. 2011 -12 में भी एक सर्वे हुआ जिसमें मौतों का आंकड़ा 503 था जिसके 2016 में बढकर 589 तक पहुंचने की बात कही जा रही है.

'इसी बीच एक बात ने ध्यान खींचा कि मरने वालों का शव जब जलाया जाता तो उनके फेफड़े नहीं जलते थे बल्कि ऐसे ही रह जाते थे'

नई शुरूआत से जुड़े अमूल्य निधि के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल ने अपनी रिपोर्ट में साफ़ तौर पर कहा था कि गुजरात के पत्थर घिसाई कारखानों में पर्यावरण और स्वास्थ्य मानकों का ध्यान नहीं रखा जाता. अमूल्य कहते हैं, 'ऐसे में सरकार को इनके खिलाफ सख्त वैधानिक कार्रवाई कर इन्हें बंद करना था. पर अब तक गुजरात सरकार ने कारखानों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया.' अमूल्य यह भी मांग करते हैं कि मध्य प्रदेश सरकार को अन्य जिलों में भी सर्वे कराना चाहिए ताकि इस बीमारी से जुड़े सही आंकड़े सामने आ सकें. वे कहते हैं, 'प्रदेश के पन्ना, छतरपुर, मंदसौर, विदिशा, शिवपुरी और कटनी आदि जिलों में सैकड़ों ग्रामीण और आदिवासी इस बीमारी से पीड़ित हैं पर सरकार के पास इनका कोई आंकड़ा तक नहीं है.'

अमूल्य बताते हैं कि 2004 से उनका संगठन इस आदिवासी इलाके में काम कर रहा है. वे कहते हैं, 'इस दौरान हमने पाया कि कई गांवों में मौतों का आंकड़ा बढ़ रहा है. कई जवान और हट्टे –कट्टे लोग भी धीरे –धीरे हड्डियों के कंकाल में बदलते जा रहे हैं. ग्रामीणों से बातचीत की पर कोई कुछ नहीं बता पाया. इलाके के डॉक्टरों से भी मिले पर कहीं से कोई बीमारी के बारे में पता नहीं चल सका.'

वे आगे जोड़ते हैं, 'इसी बीच एक बात ने ध्यान खींचा कि मरने वालों का शव जब जलाया जाता तो उनके फेफड़े नहीं जलते थे बल्कि ऐसे ही रह जाते थे. इसकी पड़ताल की तो पता चला कि जो लोग सूखकर कांटा हो जाते हैं उन्हीं रोगियों के मरने पर ऐसा होता है बाकी में नहीं. कुछ ग्रामीणों ने बचे हुए फेफड़े को काटने–चीरने की कोशिश की तो पता लगा कि उसमें कोई सफ़ेद रंग का चूर्ण जैसा पदार्थ है. तब किसी ने कहा कि यह तो गोधरा वाला पाउडर है.' तहकीकात में बात सामने आई कि पास में बसे गुजरात के गोधरा में पत्थर घिसाई और कांच घिसने के दौरान उससे उड़ने वाला पदार्थ ही इनके फेफड़ों में सीमेंट की तरह जम जाता है. इलाके में लोग इसे गोधरा वाली बीमारी के नाम से ही जानते हैं. बाद में 2006 में केन्द्रीय श्रम संस्थान की टीम जब इलाके में आई तो उसने पुष्टि की कि यह सिलिकोसिस है.