संतोष अपनी ठीक-ठीक उम्र नहीं जानतीं. इस बारे में वे कहती हैं, ‘शायद 45 बरस होगी.’ उन्हें अपनी शादी की तारीख और वह साल भी ठीक से याद नहीं जब वे बहू बनकर ‘डेरा भगीरथ’ नाम के इस गांव में आई थीं. एक मात्र तारीख जो उन्हें याद है वह है दो दिसंबर 2010. इस दिन उन्होंने अपने जवान बेटे की लाश देखी थी. अपने उसी बेटे की तस्वीर हाथ में लिए, अपने आंसुओं को रोकने की नाकाम कोशिश करतीं संतोष बताती हैं, ‘वो रात में कभी नहीं भूल सकती. हम सब घर पर सो रहे थे. अचानक पुलिस के 10-12 लोग घर में घुसे और दीपक को अपने साथ ले गए. फिर अगले दिन हमें उसकी लाश ही मिली. वो सिर्फ 20 साल का था.’
संतोष के गांव डेरा भगीरथ से कुछ ही दूरी पर खानपुर कलां नाम का एक अन्य गांव है. इस गांव के जगमोहन की आपबीती भी कमोबेश संतोष जैसी ही है. जगमोहन का भाई इलम सिंह गांव के ही कुछ अन्य लोगों के साथ किसी की तेरहवीं में शामिल होने गया था. वहीं से पुलिस ने इन लोगों को गिरफ्तार कर लिया. जगमोहन बताते हैं, ‘कुछ दिन हिरासत में रखने के बाद बाकी लोगों को तो पुलिस ने छोड़ दिया लेकिन पप्पू (इलम सिंह) को नहीं छोड़ा. वही आखिरी दिन था जब हमने उसे देखा था. यह 2004 की बात है. तब से न वो लौटा और न ही हमें उसकी लाश नसीब हुई.’ जगमोहन को अब अपने भाई के लौटने की कोई उम्मीद भी नहीं है. वे मान चुके हैं कि पुलिस ने उसे मार दिया है.
ये 12 गांव जम्मू-कश्मीर या पूर्वोत्तर के किसी ऐसे राज्य के नहीं हैं जहां अफ्स्पा (आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट) जैसा कोई सख्त कानून लागू हो, जिसके चलते आए दिन सैन्य बल किसी को आतंकवादी होने के आरोप में उठा रहे हों
डेरा भगीरथ और खानपुर कलां के आसपास बसे ऐसे कुल 12 गांव हैं जहां के लोग संतोष और जगमोहन जैसा ही दर्द लिए जी रहे हैं. यहां ऐसे दर्जनों लोग हैं जिनके परिवार के किसी सदस्य को पुलिस ने गिरफ्तार किया था और वह फिर कभी या तो वापस ही नहीं लौटा या लौटा भी तो जीवित नहीं था. भगत राम पुत्र बाबूराम, रामदर्शी पुत्र कन्हैया, जितेन्द्र पुत्र फेरु, सुंदर सिंह पुत्र जनार्दन, प्रवेंद्र पुत्र जीतराम, जंबू पुत्र बाबुराम, साधू पुत्र धर्मपाल, गोविंद पुत्र मुरारी, दीपलू पुत्र कर्णा, भीम सिंह पुत्र पेमी और चरण सिंह पुत्र मलखान सिंह ऐसे ही कुछ नाम हैं. लेकिन इन गांवों में ऐसे लोगों की भी संख्या कम नहीं जिन्हें पुलिस ने गिरफ्तार किया और उसके बाद से उनका मामला तो वहीं पर लटका हुआ है और वे सालों से जेलों में सड़ रहे हैं.
ये 12 गांव जम्मू-कश्मीर या पूर्वोत्तर के किसी ऐसे राज्य के नहीं हैं जहां अफ्स्पा (आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट) जैसा कोई सख्त कानून लागू हो, जिसके चलते आए दिन सैन्य बल किसी को आतंकवादी होने के आरोप में उठा रहे हों. या जिसके दुरुपयोग के चलते सैन्य बलों पर लोगों को लापता करने और उनकी हत्याएं करने के आरोप लग रहे हों. ये गांव उत्तर प्रदेश के शामली जिले में हैं. लेकिन इन गांवों में एक ‘अघोषित अफस्पा’ सिर्फ इसलिए लागू है क्योंकि ये सभी गांव बावरिया जनजाति के लोगों के हैं. वही बावरिया जनजाति जो बीते दिनों बुलंदशहर में हुए बलात्कार के चलते इन दिनों देश भर में चर्चा का विषय बनी हुई है.
बीती 29 जुलाई को बुलंदशहर में हुए वीभत्स अपराध में अब तक कुल छह लोग गिरफ्तार हो चुके हैं. इन लोगों के नाम हैं सलीम, परवेज़, जुबैर, मोहम्मद शावेज़, रईसुद्दीन और जबर सिंह. इन सभी लोगों में से किसी एक भी व्यक्ति के बावरिया जनजाति से होने की कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है. लेकिन इस अपराध की शुरूआती ख़बरों में ही ‘बावरिया गिरोह’ का नाम आने के चलते आज पूरी बावरिया जनजाति ही लोगों के निशाने पर आ गई है.
ऐसी दर्जनों ख़बरें छप चुकी हैं जो कहती हैं कि बावरिया लोग ‘क्रूर, संगठित और घृणित’ होते हैं. एक पूरी जनजाति को निशाना बनाते हुए कई ख़बरों में बताया जा रहा है कि बावरिया लोग हत्या, बलात्कार, चोरी और लूट के लिए कुख्यात हैं और ये स्वभाव से बर्बर और हिंसक हुआ करते हैं. कुछ ख़बरें कहती हैं कि बावरिया ही ‘कच्छा-बनियान गिरोह’, ‘सीढ़ी गिरोह’, ‘सरिया-मार गिरोह’ के सदस्य होते हैं. यह भी कि ये लोग अपराध से पहले पूजा करते हैं, इनकी महिलाएं और बच्चे भी लूट में शामिल होते हैं, ये जहां चोरी करते हैं वहां अपना मल छोड़ जाते हैं और इनके नाम से ही लोग कांप उठते हैं.
देश की आजादी के कुछ साल बाद ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ को समाप्त कर दिया और इन सभी जनजातियों को ‘विमुक्त’ कर दिया. लेकिन समाज और प्रशासन दोनों, इन घुमंतू जनजातियों को अपराधी की तरह से देखने का जो नज़रिया बना चुके थे, वह बना ही रहा
यह कोई पहला मौका नहीं है जब बावरिया जनजाति के बारे में इस तरह की बातें लिखी जा रही हैं. जब भी इस जनजाति का कोई भी व्यक्ति किसी अपराध में पकड़ा जाता है या उस पर किसी अपराध का आरोप होता है, तब अक्सर ही यह पूरी जनजाति लोगों के निशाने पर आ जाती है. दुर्भाग्य यह है कि इस जनजाति के बारे में लिखी जाने वाली ऐसी ख़बरों का कोई तथ्यात्मक आधार नहीं होता. सिर्फ प्रचलित बातों और भ्रांतियों के आधार पर ही पूरी जनजाति को अपराधी घोषित कर दिया जाता है. ऐसा बीते कई सालों से लगातार हो रहा है और इसीलिए समाज में अब बावरिया जनजाति के प्रति कई पूर्वाग्रह बन चुके हैं. इन्हीं पूर्वाग्रहों की कीमत संतोष और जगमोहन जैसे सैकड़ों बावरिया समुदाय के लोग हर दिन चुका रहे हैं.
उत्तर प्रदेश में बावरिया जनजाति के सबसे ज्यादा लोग शामली जिले में रहते हैं. शामली शहर से लगभग 15 किलोमीटर करनाल की तरफ बढ़ने पर सींगरा नाम का एक क़स्बा है. यहीं से बाईं ओर एक सड़क बावरिया कॉलोनी की तरफ जाती है. यहां बावरिया लोगों के कुल 12 गांव हैं. ये हैं रामपुरा, खोकसा, नयाबास, अहमदगढ़, खेडी जुन्नारदार, खानपुर कलां, बिरालियान, जटान खानपुरा, मस्तगढ़, डेरा भगीरथ, दूधली और अलाउद्दीनपुर. इन सभी गांवों की कुल जनसंख्या लगभग 14 हजार है. ये सभी लोग बावरिया जनजाति में पैदा होने की कितनी कीमत चुका रहे हैं, इसके सैकड़ों उदाहरण इन गांवों में मौजूद हैं.
रामपुर गांव के निवासी और ‘बावरिया समाज कल्याण समिति’ के अध्यक्ष धीर ध्वज कहते हैं, ‘मेरे ऊपर कोई आपराधिक मुकदमा नहीं है. इसके बावजूद भी कुछ साल पहले पुलिस मुझे उठा कर ले गई थी और थाने में मुझे इतना पीटा गया कि मेरा हाथ टूट गया. आज भी मैं सीधे हाथ से भारी चीज़ें नहीं उठा पाता. यह सलूक मेरे साथतब हुआ जब मैं दो बार सींगरा ग्राम सभा का प्रधान रह चुका हूं. आम बावरियों के साथ पुलिस क्या-क्या करती होगी इसकी आप कल्पना कर लीजिये.’
धीर ध्वज 1988 से 1995 तक सींगरा ग्राम सभा के प्रधान रहे हैं. उसी दौरान की एक घटना के बारे में वे कहते हैं, ‘एक बार हरियाणा पुलिस दर्जनों गाडियां लेकर यहां आई थी और कुल 86 लोगों को एक साथ उठाकर ले गई थी. इनमें महिलाएं और बच्चे भी थे. एक महिला का तो उसी दिन बच्चा हुआ था. उस महिला को भी पुलिस ले गई और उसके एक दिन के बच्चे को यहीं छोड़ गई.’ वे आगे कहते हैं, ‘ऐसी एक नहीं बल्कि अनेकों घटनाएं हैं. यहां कई बार दूसरे राज्यों की पुलिस बिना स्थानीय पुलिस को साथ लिए आती है और किसी को भी उठाकर ले जाती है. क्या किसी भी अन्य समुदाय के साथ पुलिस ऐसा कर सकती है जैसा हमारे साथ किया जाता है?’
‘स्थायी लोगों को तो कानून के जरिये नियंत्रण में रखना आसान था लेकिन घुमंतू जनजातियों पर नज़र रखना इन कानूनों से भी संभव नहीं था. इसलिए अंग्रेजों ने आपराधिक जनजाति अधिनियम बनाया और लगभग सभी घुमंतू जनजातियों को सिरे से अपराधी घोषित कर दिया‘
बावरिया जनजाति के साथ ही ऐसा बर्ताव क्यों होता है और क्यों इस जनजाति पर अपराधी होने का दाग लगा है? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए इतिहास में वहां तक पीछे जाना जरूरी है जहां पहली बार इस जनजाति को ‘आपराधिक जनजाति’ घोषित किया गया था. यह 1871 की बात है. भारत में शासन कर रहे अंग्रेजों ने तब ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ लागू किया था. इस अधिनियम में समय-समय पर संशोधन हुए और लगभग 190 जनजातियों को इसके तहत ‘आपराधिक जनजाति’ घोषित कर दिया गया. इस अधिनियम के जरिये पुलिस को इन जनजातियों को गिरफ्तार करने, इनका शोषण करने और इनकी हत्या तक करने की असीमित शक्तियां दे दी गई थीं. उस दौर में पुलिस में भर्ती होने वाले हर जवान को विशेष तौर से इन जनजातियों के बारे में पढ़ाया जाता था ताकि उसे ‘आपराधिक जनजातियों’ की पहचान हो.
अंग्रेजों को यह कानून बनाने की ज़रुरत क्यों पड़ी? इस सवाल के जवाब में राजस्थान उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता और बावरिया जनजाति के अधिकारों के लिए लंबे समय से कार्य कर रहे रतन कात्यायनी बताते हैं, ‘1857 में हुए विद्रोह को आजादी की पहली लड़ाई भी कहा जाता है. लेकिन देखा जाए तो वह विद्रोह आज़ादी के लिए नहीं बल्कि अपनी पहचान के लिए किया गया था. उसमें हिंदू-मुस्लिम सभी अपनी धार्मिक मान्यताओं को लेकर विद्रोह पर उतरे थे. उस विद्रोह में कबीलाई लोगों और घुमंतू जनजातियों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. अंग्रेज उस विद्रोह के बाद ज्यादा सतर्क हो गए और उन्होंने यहां के लोगों को नियंत्रण में रखने के लिए लगातार कई कानून बनाने शुरू किये.’ रतन आगे कहते हैं, ‘बसे हुए और स्थायी लोगों को तो कानून के जरिये नियंत्रण में रखना आसान था लेकिन घुमंतू जनजातियों पर नज़र रखना इन कानूनों से भी संभव नहीं था. इसलिए अंग्रेजों ने आपराधिक जनजाति अधिनियम बनाया और लगभग सभी घुमंतू जनजातियों को सिरे से अपराधी घोषित कर दिया. ताकि इन्हें कैद करने के लिए इनका इस जनजाति से होना ही काफी हो.’
1871 के कानून से जिन जनजातियों को आपराधिक घोषित किया गया था, उनमें बावरिया जनजाति भी शामिल थी. तभी से इस जनजाति पर ‘आपराधिक जनजाति’ होने की मुहर लगी. देश की आजादी के कुछ साल बाद ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ को समाप्त कर दिया और इन सभी जनजातियों को ‘विमुक्त’ कर दिया. लेकिन समाज और प्रशासन दोनों, इन घुमंतू जनजातियों को अपराधी की तरह से देखने का जो नज़रिया बना चुके थे, वह बना ही रहा. यह नजरिया तब से और मजबूत होता गया जब से 1950 के दशक के अंत में ‘हैबिचुअल ऑफेंडर्स एक्ट’ बना और ‘विमुक्त जनजातियों’ को ‘हैबिचुअल ऑफेंडर्स’ यानी आदतन अपराध करने वालों की तरह से देखा जाने लगा. संयुक्त राष्ट्र और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इस कानून को रद्द करने के लिए भारत सरकार को कह चुके हैं लेकिन इस दिशा में अभी तक कुछ किया नहीं जा सका है.
साल 2005 में तत्कालीन सरकार ने ‘विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजातियों’ के लिए एक राष्ट्रीय आयोग का गठन किया था. इस आयोग के अध्यक्ष बालकृष्ण रेनके थे. 2008 में इस रेनके आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी जिसमें इन जनजातियों के इतिहास से लेकर वर्तमान समय में इनकी चुनौतियों और उनसे निपटने के तरीकों पर विस्तार से चर्चा की गई थी. लगभग 150 पन्नों की इस रिपोर्ट में बावरिया जनजाति के बारे में यह भी जिक्र मिलता है कि वह कई पीढ़ियों से जंगली जानवरों के शिकार का काम किया करती थी. लेकिन ‘फारेस्ट एक्ट’ और ‘वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट’ जैसे कानून बनने के कारण बावरिया लोगों का जंगल से रिश्ता टूट गया. ऐसे कानून बनाते हुए यह ध्यान नहीं रखा गया कि जो लोग जंगल पर इस तरह से निर्भर हैं उनका पुनर्वास किया जाना भी जरूरी है. लिहाजा इन कानूनों के बनते ही बावरिया जनजाति का पारंपरिक काम अवैध घोषित हो गया और वे अपने रोज़गार से हाथ धो बैठे.
‘यह स्थापित सिद्धांत है कि जब तक कोई व्यक्ति दोषी साबित नहीं हो जाता उसे निर्दोष माना जाता है. साथ ही कोई भी व्यक्ति जन्म से अपराधी नहीं होता. लेकिन इन जनजातियों के मामलों में समाज और पुलिस, दोनों का नजरिया ठीक उल्टा होता है.’
बावरिया समुदाय के लोगों को आज भी जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है उनके बारे में रेनके आयोग की रिपोर्ट कहती है, ‘दुर्भाग्य से ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ के समाप्त होने के बाद भी उसके दुष्परिणाम इन जनजातियों को भुगतने पड़ रहे हैं. अंग्रेजों द्वारा चलाई गई इस कुरीति के चलते आज भी समाज और पुलिस इन लोगों को शक और घृणा की ही नज़र से देखती है.’ रिपोर्ट में यह भी जिक्र है कि विमुक्त जनजाति के लोगों के मामले में न्याय के मूलभूत नियमों तक का उल्लंघन किया जाता है. रिपोर्ट कहती है, ‘यह स्थापित सिद्धांत है कि जब तक कोई व्यक्ति दोषी साबित नहीं हो जाता उसे निर्दोष माना जाता है. साथ ही कोई भी व्यक्ति जन्म से अपराधी नहीं होता. लेकिन इन जनजातियों के मामलों में समाज और पुलिस, दोनों का नजरिया ठीक उल्टा होता है.’
अपनी रिपोर्ट में रेनके आयोग ने बावरिया समुदाय के जीवन स्तर और उनके प्रति हमारी मानसिकता में बदलाव के लिए 76 सिफारिशें की थीं. पहले ही बहुत देर से किये गये इस काम को हुए भी अब आठ साल हो चुके हैं लेकिन अब तक केंद्र सरकार का ध्यान इस पर नहीं जा सका है और न ही निकट भविष्य में ऐसी कोई उम्मीद दिखती है.
रतन कात्यायनी बताते हैं, ‘इन लोगों का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह भी है कि भारत के संविधान में इनका कहीं कोई जिक्र नहीं है. संविधान सभा में हर वर्ग का नेतृत्व करने और उनके अधिकार सुनिश्चित करने के लिए कोई न कोई प्रतिनिधि था लेकिन इन जनजातियों का कोई भी प्रातिनिधि संविधान सभा में नहीं था. लिहाजा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ी जाति के अधिकार तो संविधान में सुनिश्चित किये गए लेकिन ये जनजातियां वंचित ही रह गई.’
राष्ट्रीय स्तर पर इन जनजातियों के पुनर्वास की कभी कोई पहल नहीं हुई लेकिन छोटे-छोटे स्तर पर कुछ लोगों ने ऐसे प्रयास जरूर किये हैं. शामली जिले में रह रहे बावरिया समुदाय के लोग ही यह बताते हैं कि आईएएस अधिकारी योगेंद्र नारायण माथुर ने कैसे लगातार उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ी है. माथुर 1973-76 के दौर में मुजफ्फरनगर के जिलाधिकारी हुआ करते थे. तब तक शामली अलग जिला नहीं बना था लिहाजा बावरिया समुदाय के यह गांव उनके ही कार्यक्षेत्र में आते थे. पूर्व प्रधान धीर ध्वज बताते हैं, ‘हम लोगों ने हमेशा प्रशासन का सौतेला व्यावहार ही देखा है. लेकिन माथुर साहब को बावरिया समुदाय का हर व्यक्ति भगवान की तरह पूजता है. वे जब यहां थे तब से ही उन्होंने हमारे लिए काम करना शुरू किया था और आज भी वे समय-समय पर यहां आते हैं.’
अभी स्थिति ऐसी है कि इनमें से जो लोग पढ़-लिख कर बाहर भी चले जाते हैं, उन्हें भी अपनी पहचान छिपानी पड़ती है. इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि किसी समुदाय को आज भी अपनी पहचान छिपाकर जीना पड़े.
उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव और राज्यसभा के प्रधान सचिव रहे योगेंद्र माथुर बताते हैं, ‘जब मैं बतौर जिलाधिकारी उस क्षेत्र में था तो मेरे एक मित्र ने मुझे बावरिया समुदाय की समस्याओं के बारे में बताया था. तब हमने वहां काम करना शुरू किया. वहां स्कूल खुलवाया, ग्राम पंचायत से बात करके बावरिया लोगों को खेती की जमीनें आवंटित करवाई, कुछ लोगों को पुलिस में और कुछ को बतौर लेखपाल नौकरी दिलवाई और एक साबुन बनाने की फैक्ट्री भी लगवाई. हालांकि वह फैक्ट्री चल नहीं सकी थी.’ माथुर आगे कहते हैं, ‘यदि इन लोगों के लिए सिर्फ अच्छी शिक्षा और रोजगार की व्यवस्था हो जाए तो सुधार आ सकता है. इनके प्रति समाज का नजरिया भी तब आसानी से बदल सकता है. लेकिन अभी स्थिति ऐसी है कि इनमें से जो लोग पढ़-लिख कर बाहर चले जाते हैं, उन्हें अपनी पहचान छिपानी पड़ती है. इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि किसी समुदाय को आज भी अपनी पहचान छिपाकर जीना पड़े.’
जब योगेंद्र माथुर ने बावरिया समुदाय के साथ काम करना शुरू किया था उस समय इस समुदाय के कई लोग कच्ची शराब बनाने का काम किया करते थे. ‘लेकिन जब हमने उनके रोजगार के लिए खेती या अन्य विकल्प उपलब्ध कराए तो गांव के लोगों ने खुद शराब की भट्टियां तोड़कर कभी यह काम दोबारा नहीं करने की पहल की थी’ माथुर कहते हैं.
शराब बनाने का काम आज भी बावरिया समुदाय के कुछ लोग करते हैं. साथ ही यह भी एक तथ्य है कि शामली के इन गांवों में रह रहे कुछ बावरिया चोरी-चकारी के काम में भी लिप्त हैं. पूर्व प्रधान धीर ध्वज स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘इन 12 गांवो में लगभग 14 हजार बावारिये रहते हैं. इनमें से 150-200 लड़के चोरी-चकारी करते हैं. हमने खुद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को चिट्ठी लिखकर यह बात बताई है. इन लोगों को गिरफ्तार किया जाए और सजा दी जाए हमें कोई आपत्ति नहीं. आपत्ति इस बात से है कि हर कोई हमारे पूरे समुदाय को बदनाम क्यों करता है? ऐसा कौन सा समुदाय है जिसके लोग अपराधी नहीं हैं. लेकिन अन्य समुदायों को तो इस तरह निशाना नहीं बनाया जाता जैसे हमें बनाया जाता है. पुलिस कभी भी हमारे घर से लोगों को उठा ले जाती है और फर्जी मामलों में हमें सिर्फ इसलिए फंसा दिया जाता है क्योंकि हम बावरिया हैं.’
फर्जी मामलों में बावरिया समुदाय के लोगों को फंसाने और पुलिस द्वारा प्रताड़ित किये जाने की यह बात सिर्फ उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है. हरियाणा और राजस्थान में भी ऐसे दर्जनों मामले सामने आए हैं. गुडगांव जिले के नरहेडा गांव में भी बावरिया समुदाय के करीब दो सौ परिवार रहते हैं. यहां के लोग भी बताते हैं कि कैसे उनकी बावरिया होने की पहचान उन्हें हर बार शक के दायरे में ला खड़ा करती है. पुलिस उत्पीड़न से इतर भी इन लोगों को कई मोर्चों पर अपनी इस जनजातीय पहचान का नुकसान भुगतना पड़ता है. यहीं के रहने वाले छन्नूराम बावरिया कहते हैं, ‘मैं जन स्वास्थ्य विभाग में नौकरी करता हूं. मेरी कई साल की सरकारी नौकरी हो चुकी है. लेकिन अपने बच्चे की इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए मैंने जब बैंक से लोन मांगा तो मुझे नहीं दिया गया. मैंने अपने घर के कागज़ तक गिरवी रखने की बात आवेदन पत्र में लिखी है लेकिन तब भी मुझे इसलिए लोन नहीं मिल रहा क्योंकि मैं बावरिया समाज से हूं. हमारे ऊपर मोहर लगी है कि बावरिया है तो चोर ही होगा.’
अन्य प्रदेशों में तो बावरिया लोग स्थायी तौर से बस चुके हैं और कई सालों से एक ही जगह रह रहे हैं लेकिन राजस्थान में अभी तक ऐसा नहीं हो सका है. यहां ऐसे कई मामले हो चुके हैं जब गांव के लोगों ने बावरिया समुदाय के लोगों की झोपड़ियों में आग लगा दी ताकि वे उनके गांव के पास न बस सके.
नरहेडा गांव की रहने वाली 80 वर्षीय कलावती बताती हैं, ‘मैंने लगभग 30 साल तक पुलिस की मुखबरी की. मैंने बावरिया समुदाय के कई ऐसे लोगों को गिरफ्तार करवाया जो चोरी-चकारी किया करते थे.’ साल 1975 में हरियाणा पुलिस द्वारा दिया गया प्रमाण पत्र दिखाते हुए वे कहती हैं, ‘इसके साथ मुझे नकद इनाम भी दिया गया था. लेकिन इतने साल पुलिस का काम करने के बाद भी आज जब हमारे बच्चे कहीं बाहर जाते हैं तो उन्हें चोर ही समझा जाता है.’
हरियाणा, उत्तर प्रदेश या पंजाब की तुलना में राजस्थान में रहने वाले बावरिया समुदाय के लोगों की स्थिति और भी ज्यादा बुरी है. इसका मुख्य कारण यह कि अन्य प्रदेशों में तो बावरिया लोग स्थायी तौर से बस चुके हैं और कई सालों से एक ही जगह रह रहे हैं लेकिन राजस्थान में अभी तक ऐसा नहीं हो सका है. यहां ऐसे कई मामले हो चुके हैं जब गांव के लोगों ने बावरिया समुदाय के लोगों की झोपड़ियों में आग लगा दी ताकि वे उनके गांव के पास न बस सके. राजस्थान उच्च न्यायालय के अधिवक्ता रतन कात्यायनी कहते हैं, ‘बावरिया लोगों को गांव के लोग इसी मानसिकता के चलते नहीं बसने देते कि ये लोग चोर-लुटेरे हैं. इस समुदाय का एक बड़ा तबका आज भी ऐसा है जिनकी जनगणना में भी गिनती नहीं है. जिन्हें आज तक हमारी व्यवस्था ने देश का नागरिक ही नहीं माना उनके अधिकारों की बातें तो बहुत दूर की हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘बांग्लादेश से आए शरणार्थियों को भी हमारे देश में राशन कार्ड मिल जाता है लेकिन इन लोगों को नहीं. ये लोग संगठित नहीं हैं इसलिए किसी का वोट बैंक नहीं हैं. इसलिए नेताओं के लिए भी इनकी समस्याएं मुद्दा नहीं हैं.’
कभी ‘शिकारी जनजाति’ कही जाने वाली बावरिया जनजाति आज स्वयं पुलिस, समाज और व्यवस्था की सबसे बड़ी शिकार बन चुकी है. इन लोगों के नाम का इस्तेमाल पुलिस अक्सर अपराधियों के नाम के लिए छूटे ‘रिक्त स्थान’ को भरने के लिए करती रहती है. इस पर जब प्रेस में ‘बावरिया गिरोह’ के नाम से ख़बरें छपने लगती हैं तो बवारियाओं को लेकर समाज में प्रचलित भ्रांतियां और भी मजबूत होती चली जाती हैं. पुलिस का काम इससे कुछ और आसान हो जाता है.
‘विमुक्त जनजातियों’ में शामिल बावरिया जनजाति अकेली नहीं है जो इस तरह का सामाजिक भेदभाव झेल रही है. कभी ‘आपराधिक जनजाति’ कही जाने वाली जनजातियों में नट, कंजर, भांतु, सांसी, मदारी जैसी सैकड़ों जनजातियां और भी हैं. इनकी कुल आबादी करीब 14 करोड़ है. अपने मौलिक अधिकारों से वंचित ये जनजातियां भी बावरिया जनजाति की ही तरह समाज और पुलिस के उत्पीडन के लिए अभिशप्त हैं.
(ऐसी अन्य जनजातियों का ब्यौरा इस रिपोर्ट की अगली कड़ी में है)
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