एक सबसे अच्छा लीडर वह जो अच्छे लीडर तैयार करे. इस मायने में विक्रम अंबालाल साराभाई काफी काबिल लीडर कहे जा सकते हैं. पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने अंतरिक्ष विज्ञान में अपने करियर की शुरुआत उनके मार्गदर्शन में ही की थी. एक भाषण में कलाम का कहना था, ‘मैंने कोई बहुत ऊंचे दर्जे की शिक्षा नहीं ली है लेकिन अपने काम में बहुत मेहनत करता था और यही वजह रही कि प्रोफेसर विक्रम साराभाई ने मुझे पहचाना, मौका दिया और आगे बढ़ाया. जब मेरा आत्मविश्वास सबसे निचले स्तर पर था तब उन्होंने मुझे जिम्मेदारी दी और यह सुनिश्चित किया कि मैं अपने काम में सफल रहूं. यदि मैं असफल होता तब भी मुझे पता था कि वे मेरे साथ हैं.’ कलाम ही नहीं, इसरो के पूर्व अध्यक्ष के कस्तूरी रंगन से लेकर वरिष्ठ वैज्ञानिकों की एक ऐसी पीढ़ी साराभाई ने तैयार की थी जो भारतीय वैज्ञानिक जगत की रीढ़ कही जा सकती है.

12 अगस्त 1919 को जन्मे साराभाई उस पीढ़ी के सदस्य थे जो भारतीय पुनर्जागरण काल के नेताओं की कहानियां सुनते हुए बड़ी हुई थी या उन्हें देश में काम करते हुए देख रही थी. महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर, पंडित जवाहरलाल नेहरू सहित अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गज इस दौर में मौजूद थे और उनकी मानवीय विचारधारा से साराभाई ताउम्र प्रभावित रहे. हालांकि जिस तरह के काम साराभाई ने किए हैं इस आधार पर उन्हें भी भारतीय पुनर्जागरण काल का प्रतिनिधि माना जा सकता है.
उस दौर में परमाणु वैज्ञानिक डॉ होमी जहांगीर भाभा भारतीय वैज्ञानिक समुदाय के अगुवा थे. सिर्फ भारत में ही नहीं अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में भी भाभा की खासी प्रतिष्ठा थी. परमाणुओं में इलेक्ट्रॉन की गति-स्थिति से संबंधित बोर मॉडल देने वाले नील्स बोर के साथ-साथ उस जमाने के और दूसरे जाने-माने भौतिक विज्ञानियों के साथ भाभा काम कर चुके थे और वे परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के बड़े हिमायती थे. जैसे कलाम को साराभाई ने पहचाना था वैसे ही भाभा ने साराभाई की प्रतिभा को पहचाना था.
अपनी पढ़ाई के बीच 1939 में भाभा भारत आए थे और इसी समय दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया. इसके बाद उन्होंने यूरोप जाने का विचार छोड़ दिया और बैंगलोर के इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएस) से जुड़ गए. कैंब्रिज से लौटे साराभाई को भी अपने अध्ययन और शोध के लिए यही ठिकाना मिला और आखिरकार उनकी यहां भाभा से मुलाकात हुई. अद्भुत वैज्ञानिक मेधा से संपन्न इन दोनों वैज्ञानिकों की मुलाकात अपने-अपने अध्ययन क्षेत्रों के मुताबिक दो विपरीत ध्रुवों की मुलाकात थी. दोनों ने कॉस्मिक किरणों के क्षेत्र में अनुसंधान किया था लेकिन भाभा जहां अणु विज्ञान में दिलचस्पी रखते थे तो साराभाई के अध्ययन का क्षेत्र अंतरिक्ष विज्ञान था.
यह 1950 का दशक था. दुनिया के तमाम शीर्ष देशों में परमाणु अनुसंधान और अंतरिक्ष विज्ञान से संबंधित संस्थानों और परियोजनाओं को प्रोत्साहन दिया जा रहा था. भारत के पास इन दोनों क्षेत्रों का नेतृत्व करने के लिए दो प्रतिभाशाली वैज्ञानिक मौजूद थे. भारत में आजादी के तुरंत बाद 1948 में परमाणु ऊर्जा आयोग बनाया गया और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भाभा को इसका पहला अध्यक्ष नियुक्त किया. वे नेहरू के वैज्ञानिक सलाहकार भी थे.
उस समय साराभाई की उम्र महज 28 साल थी लेकिन कुछ ही सालों में उन्होंने ‘भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (पीआरएल)‘ को विश्वस्तरीय संस्थान बना दिया था
वहीं दूसरी तरफ साराभाई ने 1947 में अहमदाबाद में ‘भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (पीआरएल)’ की स्थापना की थी. साराभाई के पिता उद्योगपति थे और भौतिक विज्ञान के अध्ययन-अनुसंधान के इस केंद्र के लिए उन्होंने अपने पिता से ही वित्तीय मदद मिली थी. उस समय साराभाई की उम्र महज 28 साल थी लेकिन कुछ ही सालों में उन्होंने पीआरएल को विश्वस्तरीय संस्थान बना दिया. और बाद में भारत सरकार से उसे मदद भी मिलने लगी.
पीआरएल मुख्यरूप से अंतरिक्ष विज्ञान के अनुसंधान से जुड़ी संस्था है लेकिन इसकी स्थापना और संचालन के अनुभव ने वैज्ञानिक साराभाई को एक कुशल प्रबंधक भी बना दिया था. इसके बाद उन्होंने पारिवारिक कारोबार में हाथ आजमाया और गुजरात के साथ-साथ देश के कई हिस्सों में उद्योगों की स्थापना की. उन्होंने साराभाई कैमिकल्स, साराभाई ग्लास, सेमिबायोटिक्स लिमिटेड, साराभाई इंजीनियरिंग ग्रुप जैसी प्रतिष्ठित कंपनियों की स्थापना ही नहीं की थी बल्कि इन्हें अपने-अपने क्षेत्र में अगुवा भी बना दिया. यही नहीं देश के पहले प्रबंधन संस्थान – इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (अहमदाबाद) की स्थापना भी साराभाई ने ही की थी. हालांकि इस सबके बावजूद उनका मन कॉस्मिक किरणों और अंतरिक्ष विज्ञान में ज्यादा रमता था.
जुलाई, 1957 में रूस ने दुनिया का पहला उपग्रह – स्पूतनिक, पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया था. इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रूस और अमेरिका सहित 50 से ज्यादा देशों ने अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में एक साल तक चलने वाली एक परियोजना के लिए गठबंधन किया था. साराभाई चाहते थे कि भारत भी इसका हिस्सा बने और उन्होंने इसके लिए सरकार को एक प्रस्ताव बनाकर भेज दिया. प्रधानमंत्री नेहरू निजी तौर पर भी साराभाई को जानते थे और होमी भाभा की वजह से उनकी प्रतिभा भी पहचानते थे. उनकी सरकार ने यह प्रस्ताव मान लिया. भारत की तरफ से इस प्रयोग को देखने-समझने की जिम्मेदारी साराभाई को ही दी गई थी.
भाभा और साराभाई ने पहले रॉकेट परीक्षण के लिए केरल के थुंबा का चयन किया था और इनके निर्देशन में ही 1963 में यहां से पहला प्रायोगिक रॉकेट छोड़ा गया
स्पूतनिक की लॉन्चिंग के साथ अचानक दुनिया के तमाम देशों की दिलचस्पी अंतरिक्ष विज्ञान में हो गई थी. विक्रम साराभाई के लिए भी यह क्रांतिकारी घटना थी और इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने पंडित नेहरू को चिट्ठी लिख दी कि भारत को इस दिशा में काम करना चाहिए. उनकी सलाह मानते हुए सरकार ने 1962 में इंडियन नेशनल कमेटी फॉर स्पेस रिसर्च (इनकॉस्पर) बना दी और नेहरू ने इसकी कमान साराभाई को सौंप दी. यही इनकॉस्पर बाद में इसरो बना था.
साराभाई के लिए भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान का विकास सीधे-सीधे सामाजिक विकास से जुड़ा था
रूस के लिए स्पूतनिक का निर्माण और उसकी लॉन्चिंग अमेरिका से होड़ का नतीजा थी और दूसरी तरफ अमेरिका भी रूस पर बढ़त बनाने के लिए अपने अंतरिक्ष अभियानों पर भारी निवेश कर रहा था. उस दौर में भारत नया आजाद हुआ मुल्क था और जिसके पास संसाधनों की भारी कमी थी. ऐसे में देश के भीतर-बाहर यह सवाल भी उठा कि भारत को अंतरिक्ष विज्ञान के विकास पर पैसा खर्च करने की क्या जरूरत है. साराभाई ने सरकार के सामने जब अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए परियोजना शुरू करने का प्रस्ताव रखा उसी समय इस सवाल का जवाब भी दिया. उनका कहना था, ‘हमारे सामने लक्ष्यों को लेकर कोई अस्पष्टता नहीं है. आर्थिक रूप से समृद्ध देश चंद्रमा पर खोजबीन या दूसरे ग्रहों तक इंसानों को पहुंचाने जैसे अभियान चला सकते हैं लेकिन हमारी इन देशों से होड़ लगाने की कोई इच्छा नहीं है... लेकिन इस बात पर पक्का यकीन है कि अगर हमें राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका अदा करनी है तो इंसान और समाज की समस्याओं को सुलझाने में आधुनिक तकनीक के उपयोग में किसी से पीछे नहीं रहना है.’
साराभाई अब जल्दी से जल्दी भारत में अतरिक्ष कार्यक्रम की शुरुआत करना चाहते थे. उन्हें इसके लिए अपने मार्गदर्शक और साथी वैज्ञानिक डॉ भाभा का भरपूर सहयोग मिल रहा था. इन्हीं दोनों ने पहले रॉकेट परीक्षण के लिए केरल के थुंबा का चयन किया था और इनके निर्देशन में ही 1963 में यहां से पहला प्रायोगिक रॉकेट छोड़ा गया. यह अमेरिका में बना रॉकेट था और अब साराभाई चाहते थे कि यहां से भारत निर्मित रॉकेट छोड़ा जाए.
भारतीय वैज्ञानिकों को देसी रॉकेट बनाने में चार साल का समय लग गया. हालांकि इस बीच में एक ऐसी घटना भी हुई जिससे साराभाई सहित पूरे भारतीय वैज्ञानिक समुदाय को भारी धक्का लगा था. दरअसल जनवरी, 1966 में डॉ होमी जहांगीर भाभा अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) की बैठक में भाग लेने विएना रवाना हुए थे और स्विटजरलैंड के ऊपर उनका हवाई जहाज क्रैश हो गया. इस हादसे में भारत ने अपना सर्वश्रेष्ठ परमाणु वैज्ञानिक खो दिया था. इस दुर्घटना पर आज भी संदेह जताया जाता है. यह कहा जाता है कि कई विकसित देश भारत को परमाणु शक्ति संपन्न होते नहीं देखना चाहते थे और इस काम में बाधा पहुंचाने के लिए एक साजिश के तहत भाभा का हवाई जहाज क्रैश करवाया गया. ऐसे समय में सरकार और पूरे देश की विक्रम साराभाई से उम्मीदें और बढ़ गईं. आखिरकार नवंबर, 1967 में थुंबा से पहला भारत निर्मित रॉकेट – रोहिणी छोड़ा गया. इस परीक्षण के साथ ही अब भारत ने अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में नन्हा सा ही सही लेकिन अपना पहला कदम बढ़ा दिया था.
डॉ भाभा की मृत्यु के बाद साराभाई के ऊपर और जिम्मेदारियां बढ़ गई थीं. उन्हें अब भारतीय परमाणु ऊर्जा आयोग का भी अध्यक्ष बना दिया गया. इसके साथ ही 1969 में इनकॉस्पर को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन या इसरो बना दिया गया. साराभाई इसके पहले अध्यक्ष थे. उन्हीं के नेतृत्व में इसरो की कई इकाइयों की स्थापना हुई है. अब साराभाई भारत द्वारा संचार उपग्रह अंतरिक्ष में छोड़े जाने की योजना पर काम करने लगे थे.
भारत में टेलीविजन प्रसारण में साराभाई की अहम भूमिका थी
पंडित जवाहरलाल नेहरू संचार साधनों के महत्व को बखूबी समझते थे लेकिन तब टेलिविजन के खिलाफ थे. उनका मानना था कि आम जनता के विकास में भूमिका निभाने से ज्यादा टीवी ‘मध्य वर्ग का खिलौना’ साबित होगी. जबकि साराभाई मानते थे कि टेलिविजन भारत की ग्रामीण आबादी के विकास और देश एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. वे टीवी प्रसारण के लिए संचार सेटेलाइटों का उपयोग करना चाहते थे.
भारत में टीवी प्रसारण की औपचारिक शुरुआत 1959 से मानी जाती है लेकिन इसे प्रायोगिक स्तर से निकलकर चलन में आने में छह साल का वक्त लगा. इसका पहला परीक्षण दिल्ली में किया गया और सामान्य प्रसारण भी सबसे पहले यहीं शुरू हुआ. फिर सात साल के बाद बंबई और अमृतसर में टीवी पहुंचा. सन 1975 तक देश के सात शहरों तक टीवी की पहुंच हो चुकी थी. तब हमारी प्रसारण तकनीक टेरेस्ट्रियल नेटवर्क पर आधारित थी. इसमें ऊंचे-ऊंचे टावरों का निर्माणकर 30-35 किमी तक के क्षेत्र में प्रसारण के सिग्नल भेजे जाते थे. इस व्यवस्था में कुछ खामियां थीं. पहली तो यही कि इससे दुर्गम और ग्रामीण इलाकों में टीवी की पहुंच नहीं हो पा रही थी तो वहीं दूसरी तरफ इससे प्रसारण की गुणवत्ता भी कुछ कमतर रहती थी. उस समय देश की वैज्ञानिक बिरादरी भी इस कोशिश में लगी थी कि किसी तरह टीवी को देश के कोने-कोने तक पहुंचाया जाए. लेकिन दुर्गम क्षेत्रों तक निर्बाध प्रसारण के लिए जरूरी था कि भारत के पास अपना संचार उपग्रह हो.
इसी समय अमेरिका की अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसी, नासा अपने एक संचार उपग्रह एटीएस-6 से प्रसारण का परीक्षण करने की तैयारी में थी. विक्रम साराभाई ने तब नासा से संपर्क कर उसे भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रयोग करने के लिए सहमत किया था.
इसके तहत भारत में जो प्रायोगिक टीवी प्रसारण होना था उसे ‘साइट’ यानी सेटेलाइट इंस्ट्रक्शनल टेलीविजन एक्सपरिमेंट नाम दिया गया. यह अपनी तरह का दुनिया का सबसे बड़ा प्रयोग होने जा रहा था.
‘साइट’ एक अगस्त, 1975 से 31 जुलाई, 1976 तक चला. इसके तहत छह राज्यों के तकरीबन 2,500 गांवों को चुना गया था. इस प्रयोग के लिए जमीनी स्तर पर सभी काम भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (इसरो) की देखरेख में किए गए. ‘साइट’ के बारे में कहा जाता है इसके माध्यम से उस समय लाखों लोगों ने पहली बार टीवी पर कार्यक्रम देखे थे. तब ये कार्यक्रम ऑल इंडिया रेडियो के प्रोडक्शन विभाग ने तैयार किए थे. ‘साइट’ परियोजना समाप्त होने के बाद जब सरकार ने इसका आकलन करवाया तो पता चला इन क्षेत्रों में ग्रामीण आबादी पर कार्यक्रमों का व्यापक सकारात्मक असर पड़ा था.
दूसरा जो सबसे महत्वपूर्ण फायदा भारत को मिला वह यह था कि हमारे वैज्ञानिक व इंजीनियर संचार उपग्रह की कार्यप्रणाली से इस हद तक परिचित हो गए कि अब वे स्वदेशी उपग्रह बना सकते थे. अंतत: भारतीय वैज्ञानिकों ने 1982 में इनसेट-1ए अंतरिक्ष में पहुंचाकर यह करके भी दिखाया.
इस तरह भारत को संचार उपग्रह के क्षेत्र में लाने के पीछे भी डॉ साराभाई की दूरदृष्टि कारगर साबित हुई थी. हालांकि जब ‘साइट’ का परीक्षण शुरू हुआ तब उसे देखने के लिए साराभाई मौजूद नहीं थे. 30 दिसंबर, 1971 को उनकी मृत्यु उसी स्थान के नजदीक हुई थी जहां उन्होंने भारत के पहले रॉकेट का परीक्षण किया था. दिसंबर के आखिरी हफ्ते में वे थुंबा में एक रूसी रॉकेट का परीक्षण देखने पहुंचे थे और यहीं कोवलम बीच के एक रिसॉर्ट में रात के समय सोते हुए उनकी मृत्यु हो गई.
होमी भाभा की तरह साराभाई की मृत्यु पर भी संदेह जताया जाता है. इसरो से संबंधित एक पूर्व वैज्ञानिक नंबी नारायण अपनी आत्मकथा में इस बात का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि साराभाई की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई थी लेकिन फिर भी उनका पोस्टमार्टम नहीं कराया गया. वैसे अगर साराभाई दुश्मन देशों की साजिश का शिकार हुए हों तब भी आज इस बात में कोई दो राय नहीं है कि उनका सपना उनके बाद भी पूरा हुआ और आज भारत अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में विकसित देशों के आसपास ही खड़ा है.
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