राजेंद्र जी को उस तरह बिलकुल याद नहीं कर सकती, या फिर उन पर उस तरह बिलकुल नहीं लिख सकती जैसे अन्य लेखकों पर लिखती या फिर उन्हें याद करती हूं. चाहूं भी तो असंभव सा ही है यह कुछ मेरे लिए... अपने आप से जैसे दूरी नहीं बरती जा सकती कुछ उसी तरह... तो फिर उन्हें वैसे ही याद करती हूं, जैसे कि उन्हें सोचती और देखती रही हूं मैं. उनके लेखक, सम्पादक और आलोचक रूप से परे उन्हें सिर्फ राजेंद्र यादव की तरह.

गोकि उऩका यह रूप विवादित भी बहुत रहा. पर ये विवाद कई बार बहुत फालतू से रहे, कई बार आदतन उनके ही फैलाए हुए. इन सबके भीतर बसे उस शख्स को मैंने बहुत करीब से देखा. आखिरी वक़्त के राजेंद्र जी को मैंने नहीं देखा, और सोचकर तसल्ली ही लगती है. उस निरीह राजेंद्र यादव को देखना मेरे बस की बात नहीं थी.
1998 से लेकर 2008 तक का समय उनके सानिध्य और साथ का समय रहा है. हंस में थी कि नहीं थी, पर उनकी छाया छत्रछाया की तरह सर पर रही हमेशा... और दूर जाने पर भी वो मन से हमेशा साथ ही लगे मुझे... उनकी यादें बहुत सारी हैं. हालांकि उन्हें यादें या कि स्मृतियां कह कर संबोधित करते हुये कलम अभी भी थरथरा रही है... स्मृतियां तो उनकी होती हैं जो... और मन है कि अब भी नहीं मानता कि राजेंद्र जी नहीं रहे... कायदे से स्मृतियों को भूतकाल में आना चाहिए, लेकिन फिलहाल तो ये कुछ दृश्य हैं जो चले आ रहे हैं मेरे सामने... बेतरतीब. जो तरतीब से आयें वो यादें भी कहां होंगी...
दिल्ली आये महीनों हो गये हैं. हंस बहुत पहले से पढ़ती रही हूं लेकिन हंस के दफ्तर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही. एक दिन हिम्मत कर के फोन करती हूं... मेरी आशा के विपरीत फोन पर खुद राजेंद्र जी हैं... अपना नाम बताने के बाद मिलने के लिये समय मांगती हूं... उत्तर मेरे लिये निराशाजनक है. उन्हें प्रसार भारती जाना है, आज नहीं मिल सकते. उन्होंने कल बुलाया है. मैं उदास मन से फोन रखती हूं.
उस कल से भी पहले का एक पल आ धमका है मेरी स्मृतियों में. साहित्य अकादमी के वार्षिकोत्सव में लंच टाइम में वे भीड़ से घिरे हैं. हंस रहे हैं, ठहाके लगा रहे हैं. मैं सोचती हूं, बल्कि ठानती हूं मन ही मन कि आज बल्कि अभी तो उनसे बात करनी ही है मुझे. मैं धकेलती हूं भीड़ में खुद को. फिर खड़ी रहती हूं वहां, भीड़ छंटने के इंतजार में. अब इक्का-दुक्का लोग ही बच गये हैं बस. ‘जी, मेरा नाम कविता है...’ ‘कहो कविता जी क्या कहना है’ वे महिलाओं को बेतरह भाव देने की अपनी प्रचलित छवि के विपरीत कुछ निस्पृह से हैं.
मैं अपना संकोची स्वभाव संभालते हुए कुछ साहस बटोरकर कहती हूं, ‘मुज़फ्फरपुर की हूं... पिछले छ: महीने से दिल्ली में हूं.’ वे थोड़े सजग होते हैं, ‘फिलहाल क्या कर रही हो?’ ‘बस फ्री लांसिंग...हंस लगातार पढ़ती रही हूं.’ उनके चेहरे पर एक अविश्वास है (बाद में जाना कि उनसे मिलने वाले सभी लोग तो पहली बार ऐसा ही कहते हैं). वे पूछते हैं, ‘कोई रचना जो इधर के अंकों में अच्छी लगी हो?’ मैं बताती हूं, फलां-फलां और धीरे-धीरे जैसे मेरी हिचकिचाहट की अर्गलायें खुलने लगती हैं. एक के बाद एक कई कहानियों की चर्चा...
राजेंद्र जी के चेहरे का अविश्वास अब एक तरह की प्रसन्नता में बदल रहा है. मेरा आत्मविश्वास थोड़ा और खुलता है. मैं एक सवाल पूछती हूं, ‘जब हंस में पिछले डेढ़-दो साल से यह घोषणा लगातार छप रही है कि कॄपया नई कहानियां न भेजें फिर भी कई कहानियों में हाल-फिलहाल की घटनाओं का जिक्र कैसे मिल जाता है.’ वे हंसते हुये कहते हैं, ‘ऐसा है कविता जी कि बातें फिर होंगी, आप हंस के दफ्तर भी आ सकती हैं. अभी तो आप यह आइस्क्रीम खा लीजिये.’ मैं बहुत देर बाद अपने हाथ की उस आइस्क्रीम की प्लेट को देखती हूं जो अब पिघल कर अब बहे या तब की हालत में है. मैं झेंप कर उनके पास से चल देती हूं.
मैं जानती हूं कि राजेंद्रजी की स्मृति में हमारी यह मुलाकात कहीं नहीं थी. होती भी कैसे. ऐसी सभा-गोष्ठियों में न जाने कितने लोग रोज उनसे मिलते थे. उन्हें तो शायद हंस में मेरा पहली दफा जाना भी याद नहीं होगा जब उनके कहने पर मैने उन्हें अपनी दो लघुकथायें सुनाई थीं. इनमें से एक उन्होंने रख भी ली थी जो बाद में हंस के एक स्त्री विशेषांक में छपी भी. राजेंद्रजी के भीतर जो बात बैठ जाये वह आसानी से जाती नहीं थी. उन्हें बहुत दिनों तक यह लगता रहा कि मैं उनके यहां सबसे पहले अपने मित्र समरेन्द्र सिंह के साथ गई थी और उसे पसंद भी करती थी. जबकि सच तो यह है कि समरेन्द्र तब राकेश (मेरे पति) के ही मित्र थे और उसी के माध्यम से मैं उन्हें जानती थी. पता नहीं अपनी इस भ्रांति से वे कभी मुक्त हो भी पाये या नहीं.
स्मृतियां कुछ आगे बढ़ती हैं. हंस आने-जाने का सिलसिला शुरु हो गया है. अखबारी लेखन के समानांतर मैं कहानियां भी लिखती रहती हूं. लेकिन उन कहानियों को जब राजेंद्र जी ने ‘हंस’ के दफ्तर में लौटाया तब यही कहा था कि ‘कहानी बुनना तो तुमको आता है लेकिन इन कहानियों में तुम कहां हो?’ उस दिन पापा बेतरह याद आये थे. यथार्थ और सच्चाइयों के आग्रही वे पापा जो बचपन में परीकथाओं के बदले जीवन जगत से जुड़ी छोटी-छोटी कहानियां सुनाते और पढ़ने को उत्प्रेरित करते थे. एक के बाद एक मेरी कई शुरुआती कहानियां इसी सवाल के साथ लौटती रहीं. ‘सुख’ वह पहली कहानी थी जिसे अपने भीतर के सारे भय से लड़कर मैंने लिखा था, और इस भय से जूझकर भी कि अपनी कहानियों में मैं कहीं पहचान न ली जाऊं. वह हंस के फरवरी, 2002 के अंक में प्रकाशित हुई थी. अब लगता है यदि राजेंद्र जी ने मेरी शुरुआती कहानियां नहीं लौटाई होतीं तो पता नहीं कब मैं अपने उस भय से मुक्त हो पाती.
स्मृतियां थोड़ा और खिसकती हैं... मैं एक बजे के आस-पास रोज ‘हंस’ पहुंच जाती हूं. पांच बजे के बाद चल देती हूं. राजेंद्र जी के ही कमरे में उनकी एक पुरानी कुर्सी और टेबल पर उनकी तरफ पीठ किये दिनभर कहानियां पढ़ती रहती हूं, आते-जाते लोगों के ठहाकों, मजलिसों से बेखबर. सौ साल की हिन्दी की महत्वपूर्ण कहानियों के चयन के जिस काम में मैं राजेंद्र जी और अर्चना जी का सहयोग कर रही हूं, है ही इतना बड़ा कि चाहते न चाहते मुझे उन ठहाकेदार गोष्ठियों के बीच रह कर भी वहां नहीं रहने देता. कहानियां पढ़ने के बाद चयन के लिये खूब बहसें होती हैं. मैं समृद्ध हो रही हूं कहानियों के उस संसार से गुजरते हुये और राजेंद्र जी लगातार कई माह तक उसके एवज में एक निश्चित राशि मुझे देते रहते हैं. मै नहीं जानती वे पैसे राजेंद्र जी ने अपनी जेब से दिये या कि हिन्दी अकादमी की तरफ से. एक मनचाही भूमिका नहीं लिख पा सकने की राजेंद्र जी की विवशता के कारण वह चयन आज तक अप्रकाशित है.
उस दौरान अक्सर राजेंद्र जी मुझे पांडवनगर छोड़ते हुये अपने घर चले जाते हैं. खाना खाकर आई होने के बावजूद अपने खाने का कुछ हिस्सा खिलाये बिना नहीं मानते वे. बाद में मैं भी अपना खाना लाने लगी हूं. उनके आसपास होने वाले कई लोगों की तरह कुछ विशिष्ट होने की अनुभूति या कि भ्रम कुछ-कुछ मुझे भी होने लगा है.
उस दिन अचानक आकाश में ढेर सारे बादल आ जाते हैं. मैं साढ़े चार बजे ही उठ खड़ी होती हूं. ‘लगता है तेज बारिश होगी, छतरी भी नहीं है...’ ‘रुक तो, मैं छोड़ दूंगा’ राजेंद्र जी अपने मस्तमौला अंदाज में कहते हैं. मैं रुक जाती हूं. बारिश हो रही है धारदार. हम निकलने ही वाले हैं कि उनके कई मित्र और परिचित चले आते हैं. मौसम सुहाना है और बातों ही बातों में रसरंजन का कार्यक्रम तय हो जाता है. मैं सब को नमस्कार करती हूं, चलने को होती हूं. राजेंद्रजी कुछ नहीं कहते. बाहर बारिश हो रही है जोरदार. मेरी आंखों के आंसू भी उसी गति से बह रहे हैं, बस स्टॉप तक, घर तक की यात्रा में, घर पर भी. सोचती हूं बार -बार कि इतना क्यों रो रही हूं, आखिर ऐसा हुआ क्या है. कुछ भी तो नहीं. पर आंसू हैं कि रुक ही नहीं रहे.
स्मृतियां कुछ पीछे खिसक रही हैं. शायद सन 2000. राजेंद्र जी का जन्मदिन इस बार आगरे में ही मनना है. उनके सम्मान में गोष्ठी भी है. ‘तू भी चलेगी?’ बिना सोचे-समझे हां कह देती हूं. ‘निकलना सुबह-सुबह ही है.’ ‘सुबह?’ मै चौंकती हूं. ‘साढ़े चार-पांच के आसपास.’ देर रात तक जगे रहने की अपनी आदत और मजबूरी के कारण उतनी सुबह मुझसे उठा नहीं जाता. पर उनसे कुछ भी नहीं कहती. सुबह राकेश के बार-बार उठाये जाने के बावजूद जगना मेरे लिये बहुत भारी है. किसी तरह उठ कर चली जाती हूं, बस. गाड़ी राजेंद्र जी की नहीं है, ड्राइवर भी किशन नहीं... मैं राजेंद्र जी के साथ पीछे बैठी हूं. आगे दूसरे सज्जन. मेरी बोझिल आंखें कब नींद में डूब गईं मुझे पता नहीं. नींद जब खुलती हैं, देखती हूं मैं राजेंद्र जी के पांव पर सिर रखे सो रही हूं. हड़बड़ा कर उठना चाहती हूं. वे कहते हैं, ‘सो जा, इतने चैन से तो सो रही थी. अभी आगरा पहुंचने में एक-सवा घंटे और लगेंगे.’ मैं दुबारा सो जाती हूं.
सोचें तो बहुत अजीब सा लगता है, पर मेरे लिये कुछ भी तो अजीब नहीं था. वह एक पुरसुकून और निश्चिंत नींद थी. मैं अपनी ज़िंदगी की बहुत कम निर्द्वंद्व नींदों में से उसे गिनती हूं. ऐसी नींद शायद ही कभी आई हो फिर. पर उठने के बाद मन में एक ग्लानि थी कि राजेंद्र जी के जिस पांव को तकिया बनाये मैं सो रही थी वह उनका वही पैर था जिसमें उन्हें तकलीफ रहती थी.
ज़िंदगी का वह दौर बहुत सारी अनिश्चितताओं और मुश्किलों से भरा था. निश्चित आय का स्रोत नहीं. हां लिखने और छपने के लिये जगहें थीं, और काम भी इतना कि सारे असाइन्मेंट पूरे कर लिये जायें तो रहने-खाने की दिक्कत न हो. पर फ्री-लांसिग के पारिश्रमिक के चेकों के आने का कोई नियत समय तो होता नहीं, जल्दी भी आये तो तीन महीने तो लग ही जाते थे. लेकिन उस पूरे समय राजेंद्र जी का साथ मेरे लिये इन अर्थों में भी एक बड़ा संबल था कि उस ढाई-तीन वर्षों के कठिन काल-खंड में उन्होंने मुझे किसी न किसी ऐसे प्रोजेक्ट में लगातार शामिल रखा जिससे मुझे नियमित आर्थिक आमदनी भी होती रही. और सिर्फ मैं ही नहीं, मेरी जानकारी में ऐसी मदद उन्होंने कई लोगों की की है.
यह मेरी एक कहानी ‘उलटबांसी’ से जुड़ा प्रकरण है. तब मैं महाराष्ट्र में रहती थी. छुट्टियों में दिल्ली आने के पहले तब मैने राजेंद्र जी को पढ़ाने के लिये वह कहानी जल्दी-जल्दी साफ की थी. तब राजेंद्र जी से जब भी बात होती वे नई कहानी भेजने को कहते. अब यह अलग बात है कि कोंच-कोंच कर लिखवाई गई कहानी भी यदि उन्हें नहीं पसंद आये तो वे उसे भी बिना हील-हुज्जत के लौटाने से नहीं चूकते थे. पहली दृष्टि में तो राजेंद्र जी ने ही इसे बकवास करार दिया. ‘बूढ़ी मां अचानक शादी कैसे कर सकती है, कौन मिल जायेगा उसे?’ ‘वह बूढ़ी नहीं है, प्रौढ़ा है. और अगर पुरुषों को मिल सकती है कोई, किसी भी उम्र में तो फिर औरत को क्यों नहीं?’ बातें खिंचती-खिंचती लंबी खिंच गई थीं. और जो भी उस दिन हंस के दफ्तर में आता उस बहती गंगा में हाथ धो डालता. मेरे भीतर उस दिन बहुत कुछ टूट-बिखर रहा था.
बाद में मैंने वह कहानी अरुण प्रकाश जी को पढ़ाई थी. कहानी उन्हें पसंद आई थी. उन्होंने मेरा मनोबल भी बढ़ाया. सोचा था कहानी उन्हीं को दूंगी लेकिन, टाइप होने के बाद राजेंद्र जी ने कहानी दुबारा पढ़ने को मांगी. उन्हें पुन: कहानी देकर मैं अभी घर तक लौटी भी नहीं थी कि उनका फोन आ गया था ‘मुझे कहानी पसंद है, मैं रख रहा हूं किसी और को मत देना. पर एक आपत्ति अब भी है मेरी...कहानी से एक पात्र सिरे से नदारद है... वह कौन है... कहां मिला, कैसे मिला कुछ भी नहीं.’ ‘मुझे उसकी जरूरत नहीं लगती... कहानी मां और बेटी के बदलते संबंधों की है... मैंने तर्क दिया था, अपूर्वा के भीतर की स्त्री अपनी मां के निर्णय में उसके साथ है’ मैंने कहा. ‘लेकिन उसके भीतर की बेटी अपने पिता की जगह पर कैसे किसी और को देख कर सहज रह सकती है. इसलिये बेहतर है वह अपनी मां के नये पति के बारे में ज्यादा दिलचस्पी न दिखाये.’
लेकिन राजेंद्र जी अंतत: मान गये थे. बाद में उन्हें यह मेरी कहानियों में शायद सबसे ज्यादा पसंद रही. देखें तो मूल में वह प्रतिवाद एक पुरुष का, पुरुष दृष्टि का था, जिससे जूझ कर अंततः वे उस कहानी को स्वीकार कर सके थे. हां राजेंद्र जी अपने भीतर के पुरुष से लगातार संघर्ष करते थे और उसे संशोधित भी. उनकी यही खासियत उन्हें औरों से अलग बनाती थी. उनका बहुविरोधित लेख ‘होना / सोना एक खूबसूरत दुश्मन के साथ’ भी अपने भीतर बसे इसी पुरुष से जूझने की एक कोशिश थी, जिसकी भाषा को तो लोग हाथों-हाथ ले उड़े, पर जिसके भीतर के व्यंग्य की अनदेखी कर दी गई.
पिता की कमी, घर से दूरी सबका खामियाजा मैंने राजेंद्र जी से ही चाहा. अपनी पहली मुलाकात से ही. पिता जैसी ठहाकेदार हंसी, पाइप, किताबों आदि से उनमें मुझे पापा का चेहरा ही दिखाई पड़ता है. अगर मायके का संबंध स्त्रियों के अधिकार भाव, बचपने और खुल कर जीने से होता है तो मैं कह सकती हूं ‘हंस’ मेरा दूसरा मायका था. दिल्ली की इस दूसरी पारी में जहां जाने की हिम्मत चाह कर भी नहीं बटोर पाती. उसे बगैर राजेंद्र जी देख पाना मेरे लिए बहुत कठिन है.
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