बात करीब 15 साल पहले से शुरू होती है. देवास जिले के मोखा पिपलिया गांव में रहने वाले सिद्धूजी बेहद खुश थे कि वे भी अब जमीन के मालिक बनेंगे. दूसरों के खेत में मजदूरी करते हुए उनकी कई पीढ़ियां गुजर चुकी थीं. एक दलित परिवार के मुखिया सिद्धूजी ने सोचा कि देर से ही सही, उनके भाग जग गए. उनका ऐसा सोचना लाजमी था. उन्हें सरकार ने बाकायदा पट्टा लिखकर अपने ही गांव की पांच बीघा जमीन का मालिक करार दे दिया था.
लेकिन सरकारी कागज मिलने के अगले ही दिन 60 साल के सिद्धूजी के सारे सपने तार-तार हो गए. उन्हें सरकार ने जो जमीन दी थी, वहां तो नदी बह रही थी. उन्हें समझ में नहीं आया कि वे बहती हुई नदी में खेती कैसे करें. तब से अब तक उन्होंने गांव से जिले तक सब तरफ कोशिश की, पर समस्या वहीं की वहीं है.
कइयों की जमीन कागजों पर ही रह गई, कइयों को नदी-नालों और पहाड़ों में मिली और कइयों के साथ ऐसा हुआ कि इसे पाने की लड़ाई में उनके बर्तन तक बिक गए
मध्यप्रदेश में यह अकेले सिद्धूजी की कहानी नहीं है. प्रदेश के 30 से ज्यादा जिलों में रहने वाले करीब सवा दो लाख दलित और आदिवासी परिवारों का यही हाल है. 1999 से 2002 के बीच सरकार ने निर्धन भूमिहीन दलित–आदिवासी परिवारों को खेती के लिए जमीन के पट्टे बांटे थे. ये पट्टे उनके ही गांव की सरकारी जमीन में से दिए गए थे. तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार ने प्रदेश के अनुसूचित जाति और जनजाति के के तीन लाख 24 हजार 329 परिवारों को छह लाख 98 हजार 524 एकड़ जमीन आवंटित की थी. लेकिन 15 साल बीत जाने के बाद भी हाल यह है कि इनमें से 70 फीसदी लोग अपनी जमीन पर काबिज नहीं हो सके हैं.
खुद सरकार ने विधानसभा में यह बात मानी है. फरवरी 2013 में तत्कालीन राजस्व मंत्री करण सिंह वर्मा ने कांग्रेस विधायक केपी सिंह के एक सवाल के जवाब में बताया था कि प्रदेश के कई जिलों में पट्टेधारकों को उनकी जमीन पर काबिज नहीं कराया जा सका है. हालांकि उन्होंने विधानसभा में इस आंकड़े को 60 प्रतिशत ही बताया था लेकिन, प्रदेश भर में सर्वे करने वाली संस्था भू अधिकार अभियान का दावा है कि यह 70 फीसदी है. यानी लोगों के हाथों में पट्टे के कागज तो हैं पर उनकी नियति वही है जो पहले थी.
भू अधिकार अभियान के गजराज सिंह कहते हैं, 'कुछ लोगों को तो यह तक पता नहीं था कि सरकार ने उनके नाम कोई जमीन की है. सूचना के अधिकार से उन्हें अब इस बात का पता चल पा रहा है. कई लोगों को पट्टे तो मिल गए पर उन्हें आज तक कब्जा नहीं मिला. उनकी जमीनों पर आज भी दबंग या प्रभावी लोग ही खेती कर रहे हैं.'
गजराज अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, 'कुछ को जमीन तो मिल गई पर उनकी जमीन तक जाने का कोई रास्ता ही नहीं दिया गया. ऐसे में वे खेती नहीं कर पा रहे. कई जगह जंगल की जमीन आवंटित कर दी है, वहां वन विभाग खेती नहीं करने दे रहा. वहां राजस्व और वन विभाग के बीच दलित दो पाटन के बीच की तरह पीस रहे हैं. किसी को नदी -नालों पर ही पट्टे दे दिए. किसी को पहाड़ पर तो किसी को रास्ते पर. किसी को आधी तो किसी को चौथाई हिस्सा जमीन ही मिल पायी है.'
गजराज यह भी बताते हैं कि जब सरकार ने सारी कृषि जमीनों का विवरण कंप्यूटराइज्ड किया तब कई जिलों में पट्टे की जमीनों को कंप्यूटर रिकार्ड में चढाया ही नहीं गया. बाद में जब इसकी शिकायत हुई तो सुधार किया गया. ऐसे में प्रभावितों को शासकीय रिकार्ड कैसे मिलता? कुल मिलाकर कहें तो सरकारी अमले की निष्क्रियता से पूरी योजना ही मटियामेट हो चुकी है.
'कुछ को जमीन तो मिल गई पर उनकी जमीन तक जाने का कोई रास्ता ही नहीं दिया गया. कई जगह जंगल की जमीन आवंटित कर दी है, वहां वन विभाग उन्हें खेती नहीं करने दे रहा.'
इसके बाद प्रदेश सरकार ने बीते साल जो आदेश किया उससे प्रभावितों की मुश्किलें और बढ़ गईं. 21 अगस्त 2015 को जारी राजपत्र में मप्र भू राजस्व संहिता के प्रावधानों में संशोधन करते हुए दलितों को दिए गए पट्टों को अहस्तांतरणीय से बदलकर दस सालों बाद हस्तांतरणीय कर दिया गया. गजराज सिंह मानते हैं कि इससे जमीन पर लम्बे समय से कब्ज़ा कर रहे दबंगों को अप्रत्यक्ष रुप से फायदा मिलेगा. अब वे इन्हें डरा–धमकाकर या थोड़े पैसों का लालच दिखाकर इनकी पट्टे की जमीन को वैधानिक तौर पर अपने नाम करा सकेंगे. तत्कालीन दिग्विजय सरकार ने पट्टे दिए जाने वाले घोषणापत्र में स्पष्ट उल्लेख किया था कि ये अहस्तांतरणीय रहेंगे. घोषणापत्र में यह भी कहा गया था कि लोगों को अपनी जमीन पर काबिज करवाने का पूरा जिम्मा प्रशासन का होगा और जिला कलेक्टर इस काम की निगरानी करेंगे. इसके बावजूद प्रदेश में कहीं कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हो पा रही. सबसे बुरी स्थिति छतरपुर,टीकमगढ़, दमोह, उज्जैन, देवास, शाजापुर, नीमच, मंदसौर, विदिशा, सागर और इंदौर जिलों की है.
शाजापुर जिले में नलखेडा तहसील के चांपाखेडा के कंवरलाल अब तक अपनी जमीन पर काबिज नहीं हो सके हैं. सीहोर जिले की इछावर तहसील के 14, आष्टा तहसील के 111, नसरुलागंज में बालागांव के 47 लोगों को अब तक कब्जे नहीं मिले. टीकमगढ़ जिले की बडागांव तहसील के कनेसनगर में 18 तथा नीमच की मनासा तहसील के कुंडला में 21 तो महागड में 10 लोगों की जमीन पर अब भी दबंगों का कब्ज़ा है. देवास जिले में सोनकच्छ के धन्धेडा में तो अजीबोगरीब दलील दी गई कि राजस्वकर्मियों के पास गांव का सरकारी नक्शा ही नहीं है, इस वजह से अब तक यहां पट्टों की जमीन बताई ही नहीं जा सकी है. अभियान के सर्वे में मिली जानकारी के अनुसार प्रदेशभर में करीब दो लाख से ज्यादा लोगों को आज तक भी अपनी जमीनों पर कब्ज़ा नहीं मिल सका है.
दबंगों का डर
छतरपुर जिले में महाराजपुर के सैला गांव में 55 वर्षीय अजोध्या अहिरवार ने पट्टे की जमीन पर दबंगों के कब्जे को लेकर न्यायालय में गुहार लगाई तो फैसला उनके पक्ष में आया. फैसले से उत्साहित अजोध्या ट्रैक्टर लेकर तिल्ली बोने अपने खेत पर गए तो वहां मौजूद दर्जनभर से ज्यादा दबंगों ने उनकी लाठियों से पीट–पीट कर हत्या कर दी. देवास जिले के बागली में बडियामांडू के 70 साल के दोलूजी से गांव के ही दबंग लोगों ने पट्टे की जमीन पर काबिज होने की बात पर दो बार खून-खराबा किया. आखिरकार परिवार सहित उन्हें गांव से भागना पड़ा.
हालात इतने बुरे हैं कि पट्टे की जमीन पर बरसों से कब्जा जमाए दबंग अब किसी की सुनने को तैयार नहीं है. कई बार तो वे कब्ज़ा दिलाने खेत पर पहुंचे सरकारी अमले पर भी हमला करने से भी बाज़ नहीं आते. कुछ समय पहले देवास जिले के खेडा माधौपुर में एक परिवार के लिए जमीन का सीमांकन कर उसे कब्जा दिलाने गए पटवारी विनोद तंवर, चौकीदार और कालू को 30 -40 दबंगों ने पीट–पीटकर अधमरा कर दिया. विनोद तंवर बताते हैं कि उन्हें सात दिन अस्पताल में रहना पड़ा. आरोपियों पर कोर्ट में मामला भी लंबित है. जिले के ही निपनिया हुरहुर, इस्माइल खेडी, राजोदा और सामगी गांव में भी यही हालात हैं. शाजापुर जिले के गांव खड़ी में भगवंता बाई दबंगों के साथ हुए टकराव में बंदूक के छर्रे लगने से जख्मी हो गई थीं. प्रदेश में कई जगह पट्टों की जमीन को लेकर दलितों का खून बहाया गया पर फिर भी कब्जे नहीं मिले.
पट्टे की जमीन पर बरसों से कब्जा जमाए दबंग अब किसी की सुनने को तैयार नहीं है. कई बार तो वे कब्ज़ा दिलाने खेत पर पहुंचे सरकारी अमले पर भी हमला करने से भी बाज़ नहीं आते
विधवा जसोदाबाई अपनी आपबीती सुनाते हुए फफक पड़ती हैं. सीहोर जिले में आष्टा के रामपुरा की 55 वर्षीया जसोदाबाई को पांच एकड़ जमीन का पट्टा मिला था. लेकिन इस पर काबिज दबंगों ने आज तक उन्हें कब्ज़ा नहीं दिया. वे परिवार में अकेली हैं और मजदूरी करके अपना पेट पालती हैं. उन्हें हर दिन काम की तलाश में दूसरों के खेत पर जाना पड़ता है. वे पूछती हैं, 'जब तक हाथ–पैर चल रहे हैं, तब तक तो ठीक पर उसके बाद किसका सहारा? कौन रोटी देगा और कौन इलाज़ कराएगा? थोड़ी सी जमीन मिल जाती तो बुढ़ापा सुधर जाता.'
दबंग उन्हें धमकाते हैं कि कहीं शिकायत की तो ठीक नहीं होगा. जसोदाबाई के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ़ नजर आती हैं. इसी गांव की रहने वालीं और विकलांग 50 साल की रेशमबाई की पांच एकड़ जमीन पर भी दबंग ही खेती कर रहे हैं. उज्जैन जिले की तराना तहसील के नांदेड गांव में मोहनलाल को जो जमीन मिली वह दबंगों के कब्जे में थी. मोहनलाल ने जमीन के लिए बहुत संघर्ष किया पर 2012 में जमीन का सपना लिए ही उनकी टीबी से मौत हो गई.
बहुत से लोग ऐसे भी हैं जिन्हें जमीनें तो मिल गई हैं लेकिन, उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि इनका क्या करें. विदिशा जिले की लटेरी तहसील के गांव बांदीपुर में हरप्रसाद और जवाहरसिंह को सिंद नदी का ऊबड़-खाबड़ कराड (खाईनुमा) किनारा मिला है. लटेरी में ही रतनलाल अहिरवार को गोलाखेडा और बाबूलाल अहिरवार को आनंदपुर में नालों की जमीन का पट्टा मिला है. टीकमगढ़ के बक्सोई में प्रभुदयाल तनय को भी नाले की जमीन का पट्टा दे दिया गया. टीकमगढ़ जिले में बडागांव के अमरपुर में अमना तनय वंशकार को 0.5 हेक्टेयर पहाड़ी जमीन दी गई लेकिन, वहां चट्टानों के सिवा कुछ नहीं है. यहां मुट्ठी भर मिटटी ही नजर नहीं आती तो खेती की बात तो बहुत दूर की है.
सीहोर जिले के इछावर ब्लाक में जमोनिया गांव के दलित अशोक कुमार बताते हैं कि उन्हें 2002 में जमीन का पट्टा मिला था. वे बताते हैं, 'कुछ सालों बाद कब्ज़ा भी मिल गया लेकिन हमारी जमीन तक जाने के लिए रास्ता ही नहीं है. हमने दो बार फसल भी बोई लेकिन खेत के पड़ोसी ने दोनों बार नष्ट कर दी और कुल्हाड़ी लेकर हमें जान से मारने की धमकी देता है. अब हम खेत तक जाएं ही कैसे?'
'हमने इन विसंगतियों की जांच करने के आदेश दिए हैं. जांच का काम प्रदेश में पूरा हो गया है हालांकि अब तक जांच रिपोर्ट नहीं मिल सकी है.
अधिकांश प्रभावित यह लड़ाई लम्बे समय से लड़ रहे हैं. अब तो उनका धीरज भी जवाब देने लगा है. कुछ बुजुर्ग तो जमीन मिलने से पहले ही जिंदगी की लड़ाई हार चुके हैं तो कुछ इस फेर में जिले और तहसील के चक्कर लगाते–लगाते थक चुके हैं. कई परिवारों की पहले से बिगड़ी माली हालत और बदतर हो चुकी है. उनके बर्तन तक बिक चुके हैं.
भू अधिकार अभियान नाम की संस्था बीते 10 सालों से प्रदेश के करीब 16 जिलों में जमीन की लड़ाई में इन परिवारों का हौसला बढ़ा रही है. संस्था के कार्यकर्ता पीड़ित परिवारों को कानूनी सलाह और परामर्श तो देते हैं ही, प्रशासन और पीड़ितों के बीच कड़ी का काम भी करते हैं. संस्था से जुड़े राजेन्द्र सिंह बताते हैं, 'हम कोशिश कर रहे हैं कि इन पीड़ितों की आवाज़ प्रशासन और सरकार तक पहुंचा सकें ताकि इन्हें न्याय मिल सके.'
प्रदेश की सरकार में काबीना मंत्री रामपाल सिंह भी मानते हैं कि दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में जिस तरह पट्टों का वितरण किया गया उसमें कई तरह की विसंगतियां हैं. वे कहते हैं, 'हमने इन विसंगतियों की जांच करने के आदेश दिए हैं. जांच का काम प्रदेश में पूरा हो गया है हालांकि अब तक जांच रिपोर्ट नहीं मिल सकी है. जांच रिपोर्ट को विधानसभा में रखा जाएगा.'
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