बात 2015 की है. न्यायिक नियुक्तियों के लिए सालों से अपनाई जा रही ‘कॉलेजियम’ व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया था. इसकी जगह एक नई व्यवस्था बनाई गई थी जिसके तहत ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ (एनजेएसी) का गठन किया जाना था. इसके लिए जरूरी संविधान संशोधन तक किये जा चुके थे. इस आयोग का अध्यक्ष देश के मुख्य न्यायाधीश को होना था और उनकी ही अध्यक्षता में आयोग के दो अन्य सदस्य भी चुने जाने थे. यह चुनाव उन्हें प्रधानमंत्री और नेता-विपक्ष के साथ मिलकर करना था. लेकिन अप्रैल 2015 में जब इन सदस्यों को चुनने का समय आया तो तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एचएल दत्तू ने बैठक में शामिल होने से ही इनकार कर दिया.
इसके पीछे जस्टिस दत्तू का तर्क था कि चूंकि एनजेएसी की संवैधानिक मान्यता को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है, लिहाजा इस पर फैसला होने तक वे बैठक में शामिल नहीं होना चाहते. उनके इस कदम की जमकर आलोचना हुई. लेकिन कुछ महीनों बाद ही सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने चार-एक के बहुमत से एनजेएसी को असंवैधानिक करार देते हुए रद्द कर दिया. इस फैसले के साथ ही न्यायिक नियुक्तियों के लिए पुरानी कॉलेजियम व्यवस्था एक बार फिर से पुनर्जीवित हो गई.
अब इस कॉलेजियम व्यवस्था के तहत होने वाली नियुक्तियों में भी वैसा ही गतिरोध पैदा हो गया है जैसा 2015 में एनजेएसी में हुआ था. जिस तरह तब जस्टिस दत्तू ने एनजेएसी में शामिल होने से इनकार किया था, उसी तरह अब जस्टिस जे चेलामेश्वर ने कॉलेजियम में शामिल होने से इनकार कर दिया है. लेकिन जस्टिस चेलामेश्वर के इस फैसले को जस्टिस दत्तू के फैसले की तरह विवादास्पद नहीं बल्कि न्यायिक नियुक्तियों के लिए एक ऐतिहासिक कदम माना जा रहा है. कई पूर्व न्यायाधीशों और कानूनविदों ने उनके इस फैसले की तारीफ की है. जस्टिस चेलामेश्वर ने यह फैसला क्यों लिया, क्यों इसे ऐतिहासिक माना जा रहा है और इसके क्या परिणाम हो सकते हैं? इन सवालों के जवाब समझने की शुरुआत न्यायिक नियुक्तियों के विवादित इतिहास को समझने से करते हैं.
जिस तरह तब जस्टिस दत्तू ने एनजेएसी में शामिल होने से इनकार किया था, उसी तरह अब जस्टिस जे चेलामेश्वर ने कॉलेजियम में शामिल होने से इनकार कर दिया है.
भारतीय संविधान के अनुछेद 124 और 217 में सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के जजों की नियुक्ति की व्यवस्था दी गई है. इसमें कहीं भी कॉलेजियम का जिक्र नहीं मिलता. कॉलेजियम व्यवस्था समय के साथ हुई न्यायिक व्याख्याओं से पैदा हुई है. संविधान में मूल रूप से यह व्यवस्था थी कि संवैधानिक न्यायालयों (सर्वोच्च और उच्च न्यायालय) में जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद की जाएगी. 1970 के दशक तक इस व्यवस्था से किसी को आपत्ति नहीं थी.
न्यायिक नियुक्तियों में विवाद देश में लगे आपातकाल के दौरान और इसके बाद शुरू हुए. 1976 में आपातकाल के दौरान ही तत्कालीन राष्ट्रपति ने विभिन्न उच्च न्यायालयों के 16 जजों के तबादले कर दिए थे. हालांकि 1977 में जब नई जनता पार्टी की सरकार बनी तो इन सभी 16 जजों को इनके मूल प्रदेशों में वापस भेज दिया गया. लेकिन इस प्रकरण से यह बात जगजाहिर हो चुकी थी कि न्यायिक व्यवस्था में कार्यपालिका का हस्तक्षेप कितना घातक सिद्ध हो सकता है. यहीं से पहली बार इस बात पर विचार होना शुरू हुआ कि संविधान में जजों की नियुक्ति और तबादले के लिए राष्ट्रपति या केंद्र सरकार द्वारा मुख्य न्यायाधीश से ‘परामर्श’ की जो व्यवस्था दी गई है, उसमें ‘परामर्श’ शब्द के क्या मायने हैं.
क्या मुख्य न्यायाधीश का परामर्श मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य है? यदि नहीं, तो किन परिस्थितियों में राष्ट्रपति इसे मानने से इनकार कर सकता है? इन सवालों का जवाब सर्वोच्च न्यायालय ने मुख्यतः तीन अलग-अलग फैसलों में दिया जिन्हें ‘थ्री जजेस केस’ के नाम से जाना जाता है. न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया में हुए बदलाव इन्हीं तीन फैसलों के चलते हुए और ‘कॉलेजियम’ व्यवस्था भी इन्हीं के परिणामस्वरूप शुरू हुई.
इनमें सबसे पहला मामला है एसपी गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया. इस मामले को ‘फर्स्ट जजेस केस’ कहा जाता है. 30 दिसंबर 1981 को इस मामले में फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि मुख्य न्यायाधीश के परामर्श को ‘ठोस कारणों’ के चलते राष्ट्रपति द्वारा नकारा जा सकता है. इस फैसले से कार्यपालिका को न्यायिक नियुक्तियों में घोषित तौर से प्राथमिकता मिल गई थी. आने वाले 12 सालों तक कार्यपालिका की यह प्राथमिकता बरकरार रही.
जजों द्वारा जजों की नियुक्ति की जिस कॉलेजियम व्यवस्था की शुरुआत 1993 में हुई थी, वह हमेशा से ही सवालों में घिरी रही है. 1998-2004 की एनडीए सरकार ने इस व्यवस्था को परखने के लिए जस्टिस वेंकटचलैया आयोग का गठन किया था
इसके बाद 6 अक्टूबर 1993 को आया ‘सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया’ यानी सेकंड जजेस केस का फैसला. इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक नियुक्तियों में मुख्य न्यायाधीश को प्राथमिकता दे दी. इसमें व्यवस्था की गई कि मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय के दो अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श के बाद नियुक्तियां कर सकते हैं. कॉलेजियम व्यवस्था की शुरुआत इसी फैसले से हुई जिसमें न्यायालय ने कहा, ‘चूंकि नियुक्तियों का यह मामला न्यायपालिका से सम्बंधित है लिहाजा इसमें मुख्य न्यायाधीश की भूमिका अहम होनी चाहिए. कार्यपालिका को इसमें बराबर भागीदारी नहीं मिलनी चाहिए.’ इस फैसले के बाद न्यायिक नियुक्तियों में केंद्र सरकार की भूमिका नगण्य ही हो गई.
नियुक्ति संबंधी तीसरा मामला था ‘थर्ड जजेस केस’. 1998 में तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन की संस्तुति के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला दिया था. इसमें न्यायालय ने कहा कि नियुक्तिओं के लिए जरूरी है कि मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श के बाद ही जजों की नियुक्तियों और तबादले पर फैसला करें. इस फैसले के बाद ही कॉलेजियम व्यवस्था का वह स्वरुप तैयार हुआ जो आज भी जारी है.
जजों द्वारा जजों की नियुक्ति की जिस कॉलेजियम व्यवस्था की शुरुआत 1993 में हुई थी, वह हमेशा से ही सवालों में घिरी रही है. 1998-2004 की एनडीए सरकार ने इस व्यवस्था को परखने के लिए जस्टिस वेंकटचलैया आयोग का गठन किया था. इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कॉलेजियम व्यवस्था को समाप्त कर एनजेएसी के गठन की सलाह दी थी. लेकिन 2004 में यूपीए सरकार बनने के बाद वेंकटचलैया आयोग की रिपोर्ट ठंडे बस्ते में चली गई.
2014 में मोदी सरकार ने आते ही प्राथमिकता से कॉलेजियम व्यवस्था को समाप्त करने की ठानी. इसके लिए संविधान में संशोधन और एनजेएसी के गठन की जरूरत थी. यह काम भी जल्द ही कर लिया गया. संसद के दोनों सदनों के साथ ही देश भर के 20 राज्यों ने एनजेएसी को हरी झड़ी दिखा कर पास कर दिया. एनजेएसी छह सदस्यों का एक आयोग था जिसका अध्यक्ष देश के मुख्य न्यायाधीश को होना था. इसके अलावा इस आयोग में सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, देश के कानून मंत्री और दो ‘गणमान्य नागरिक’ शामिल थे. जैसाकि शुरुआत में बताया जा चुका है, इन दो गणमान्य नागरिकों का चुनाव प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता और मुख्य न्यायाधीश की एक समिति को करना था. एनजेएसी में यह भी व्यवस्था थी कि यदि इसके कोई भी दो सदस्य किसी नियुक्ति पर आपत्ति कर दें, तो वह नियुक्ति नहीं हो सकती थी.
न्यायिक शक्तियों सहित दुनिया की किसी भी शक्ति का दुरूपयोग संभव है. लेकिन इसका उपाय यह नहीं कि ऐसी शक्तियां देना ही बंद कर दिया जाए.'
— जस्टिस जे चेलामेश्वर
एनजेएसी कानून के कुछ समय बाद ही कुछ लोगों ने इसकी संवैधानिकता को चुनौती दे दी. इससे यह मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा और वहां जस्टिस केहर की अध्यक्षता में पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने इसे रद्द करते हुए कॉलेजियम व्यवस्था को ही पुनर्जीवित कर दिया. एनजेएसी को असंवैधानिक करार देने वाली पांच जजों की पीठ में सिर्फ जस्टिस चेलामेश्वर ही थे जिन्होंने एनजेएसी को असंवैधानिक नहीं माना.
एनजेएसी की संवैधानिकता को चुनौती देने वाले याचिकाकर्ताओं के मुख्य तर्क थे कि यह व्यवस्था ‘न्यायिक स्वतंत्रता’ को बाधित करती है जो कि संविधान की मूल भावना से छेड़छाड़ करना है. साथ ही याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि यह व्यवस्था न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका को प्राथमिकता देती है जिससे कि न्याय व्यवस्था का राजनीतिकरण होने के खतरे बढ़ जाते हैं. इन तर्कों को नकारते हुए जस्टिस चेलामेश्वर ने अपने फैसले में कहा, ‘कार्यपालिका को नियुक्तियों से पूरी तरह अलग करना बेहद अतार्किक और लोकतंत्र की मूल भावनाओं के खिलाफ है. जितने भी लोकतांत्रिक देशों का अध्ययन हमारी संविधान सभा ने किया था, उनमें से कहीं भी कार्यपालिका को नियुक्तियों से इस तरह अलग नहीं रखा गया है.’
एनजेएसी में दो ‘गणमान्य नागरिकों’ की उपस्थिति को लेकर भी कई लोगों ने सवाल किये थे. इन लोगों का कहना था कि राजनीतिक उद्देश्यों के लिए सत्ताधारी दल विपक्ष के साथ मिलकर अपनी पसंद के लोगों को एनजेएसी का सदस्य बना सकते हैं. इन आरोपों पर विचार करते हुए जस्टिस चेलामेश्वर ने एक वैकल्पिक व्यवस्था की बात भी अपने फैसले में सुझाई थी. उनका सुझाव था कि चयन समिति इन दो लोगों को सीधा चुनने की बजाय कुल छह लोगों के नाम सुझाए. फिर सर्वोच्च न्यायालय के जज इन छह लोगों को वोट करें और जिन दो लोगों को सबसे ज्यादा वोट मिलें उन्हें एनजेएसी का सदस्य नियुक्त किया जाए. जस्टिस चेलामेश्वर का मानना था कि ऐसी व्यवस्था से चयन समिति की प्राथमिकता भी बनी रहेगी और किसी गलत व्यक्ति के चयन की संभावनाएं भी नगण्य हो जाएंगी.
एनजेएसी के दुरूपयोग की संभावनाओं को देखते हुए जो लोग इस व्यवस्था को ही समाप्त करने की बात कह रहे थे, उन पर जस्टिस चेलामेश्वर का कहना था, ‘न्यायिक शक्तियों सहित दुनिया की किसी भी शक्ति का दुरूपयोग संभव है. लेकिन इसका उपाय यह नहीं कि ऐसी शक्तियां देना ही बंद कर दिया जाए. उपाय यही है कि ऐसी शक्तियों के दुरूपयोग की संभावनाएं कम करने के बारे में विचार किया जाए और इसके लिए एक व्यवस्था बनाई जाए.’ जस्टिस चेलामेश्वर के तमाम तर्क एनजेएसी को रद्द होने से इसलिए नहीं बचा सके क्योंकि उनके साथ संवैधानिक पीठ में शामिल अन्य चार जज मानते थे एनजेएसी असंवैधानिक है. लिहाजा इस पीठ ने चार-एक के बहुमत से अक्टूबर 2015 में एनजेएसी को रद्द कर दिया.
केंद्र ने इस फैसले के बाद एमओपी का मसौदा तैयार भी किया लेकिन न्यायपालिका द्वारा उसे स्वीकार नहीं किया गया. यह भी एक मुख्य कारण है कि जस्टिस चेलामेश्वर अब कॉलेजियम में शामिल होने से इनकार कर रहे हैं.
एनजेएसी को रद्द करने वाली संवैधानिक पीठ के सभी सदस्य जिस एकमात्र बात पर सहमत थे वह यह थी कि कॉलेजियम व्यवस्था में भी कई खामियां मौजूद हैं. इन खामियों को दूर करने के लिए इस पीठ ने दिसंबर 2015 में एक और फैसला दिया था. इस फैसले में केंद्र सरकार को मेमोरेंडरम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) बनाने के निर्देश दिए गए थे. यह एमओपी के जरिये कॉलेजियम में मुख्यत चार बिन्दुओं में सुधार किया जाना था: पारदर्शिता, कॉलेजियम सचिवालय, पात्रता के लिए मापदंड और शिकायतों की व्यवस्था. जस्टिस चेलामेश्वर का मानना था कि कॉलेजियम व्यवस्था में पारदर्शिता की कमी रही है और इसके चलते कई बार गलत लोगों की नियुक्तियां भी हुई हैं. उनका कहना था कि कॉलेजियम में शामिल जज क्या चर्चा करते हैं और क्या आपत्तियां दर्ज करते हैं यह कभी भी सार्वजानिक नहीं होता इसलिए यह व्यवस्था विश्वसनीय नहीं कही जा सकती. इन्हीं कारणों के चलते उन्होंने दिसंबर वाले फैसले में अन्य जजों से सहमत होते हुए केंद्र को एमओपी बनाने के निर्देश जारी किये थे.
केंद्र ने इस फैसले के बाद एमओपी का मसौदा तैयार भी किया लेकिन न्यायपालिका द्वारा उसे स्वीकार नहीं किया गया. यह भी एक मुख्य कारण है कि जस्टिस चेलामेश्वर अब कॉलेजियम में शामिल होने से इनकार कर रहे हैं. उनका कहना है कि जब तक इस व्यवस्था को पारदर्शी नहीं बनाया जाता, वे इसका हिस्सा नहीं होना चाहते. उनका मानना है कि कॉलेजियम में जिन नामों पर जो भी चर्चा हो, उसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए.
कानून के कुछ जानकार मानते हैं कि जस्टिस चेलामेश्वर की यह मांग सही नहीं है. इन लोगों के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिए जिन नामों पर चर्चा होती है वे लोग पहले ही किसी न किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश होते हैं. कॉलेजियम जब इन लोगों पर चर्चा करता है तो इन पर लगे अपुष्ट आरोपों का भी जिक्र होता है. यदि ये आरोप सार्वजनिक होते हैं तो किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पर अपुष्ट आरोपों के चलते ही लोग संदेह करने लगेंगे. यह उस न्यायाधीश के साथ भी अन्याय होगा और इससे न्याय व्यवस्था भी प्रभावित होगी.
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के कई पूर्व न्यायाधीश और अधिकतर कानूनविद जस्टिस चेलामेश्वर की मांग को सही ठहरा रहे हैं. इन लोगों का मानना है कि कॉलेजियम किस आधार पर लोगों का चयन करता है और किस आधार पर किसी व्यक्ति को अयोग्य घोषित करता है, वह सार्वजनिक होना ही चाहिए. कॉलेजियम व्यवस्था पर कई सालों से सवाल उठते रहे हैं. सवाल उठाने वालों में कई पूर्व न्यायाधीश भी शामिल रहे हैं. लेकिन यह पहला मौका है जब कॉलेजियम का हिस्सा रहते हुए किसी न्यायाधीश ने इस पर सवाल उठाए हैं और इसका हिस्सा होने से इनकार किया है.
जस्टिस चेलामेश्वर के इस कदम को इसलिए भी ऐतिहासिक माना जा रहा है क्योंकि न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता लाने और न्यायपालिका के एकाधिकार को तोड़ने की पहल इस बार न्यायपालिका के ही एक सदस्य द्वारा की गई है. इसलिए काफी संभावनाएं हैं कि उनकी इस पहल से वे सुधार हो जाएं जो अब तक न तो न्यायपालिका के लोग कर पाए हैं और न ही देश की संसद. यदि ऐसा होता है तो कहा जा सकता है कि उनका यह एक कदम न्यापालिका द्वारा न्यायिक नियुक्तियों के सुधार के लिए उठाए गए कदमों में से सबसे बड़ा होगा.
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