किसी एक लेखक की कई कहानियों को मिलाकर उनका एक रंग-पाठ बनाना बहुत दुष्कर काम है. अक्सर ऐसी रंग प्रस्तुतियों के साथ बहुत बड़ा जोखिम दर्शकों तक ठीक से न पहुंचने और अपने अंतिम प्रभाव में बिखर जाने का होता है. कई बार ये अलग-अलग कहानियां दर्शकों के जेहन में नहीं होतीं और कई बार उनके बीच के तारतम्य की कमी उनके वांछित प्रभाव को नष्ट कर डालती है. इतना सबकुछ होते हुए अगर रंग निर्देशक मंटो या प्रेमचंद सरीखे किसी मशहूर लेखक की कई कहानियों को गूंथ कर एक रंग-प्रस्तुति तैयार करने का जोखिम उठाते हैं तो या तो इसे उनकी प्रयोगशीलता का दुस्साहस कह सकते हैं या फिर भारतीय रंगमंच में नए अच्छे नाट्यालेखों के अभाव के पुराने रुदन की किसी अवचेतन में बसी प्रतिक्रिया.

मंटो की कहानियों का जो तनाव है वह दृश्यों और घटनाओं का नहीं, उस मनोविज्ञान का है जो उनके पीछे काम कर रहा है. ये कहानियां दरअसल हमारी पथराई हुई रूहों का आईना हैं 

बहरहाल इस लंबी भूमिका का मकसद इस रविवार को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के तीसरे वर्ष के छात्रों की प्रस्तुति ‘नेकेड वायसेस’ की चर्चा करना है जो मंटो की कहानियों पर आधारित है और जिसे वरिष्ठ रंग-शिक्षक और निर्देशक नीलम मान सिंह ने निर्देशित किया है. कहानियों के मंचन की मुश्किल एक चीज़ है और मंटो के मंचन की मुश्किल दूसरी चीज़. मंटो कई वजहों से पकड़ में नहीं आता- रंग-प्रस्तुतियों में तो कतई नहीं. इसकी एक बड़ी और बहुत आसानी से समझ में आने वाली वजह तो यह है कि वह ‘भद्रलोक’ का लेखक नहीं है, मध्यवर्गीय विद्रोह का भी लेखक नहीं है, वह सीधे-सीधे ज़िंदगी के उन अंधेरे हिस्सों का लेखक है जिन पर हम नज़र नहीं डालते, जिनकी बू से नाक बंद कर लेते हैं, जिन्हें ‘गंदा’ मान कर उनसे आंख नहीं मिलाते. यह मंटो जब रंगमंच पर लाया जाता है तो अमूमन बहुत साफ़-सुथरा होता है. इस कटे-छंटे, ‘सुसंस्कृत’ मंटो की मार्फत हम अपने संतोष के लिए ‘टोबा टेक सिंह’ को देख लेते हैं, ‘खोल दो’ को भी और ‘ठंडा गोश्त’ को भी- लेकिन वह सिहरन, वह भय, वह यातना, वह गंध महसूस करना आसान काम नहीं होता जो उसकी जलती और जलाती हुई कहानियां महसूस करा देती हैं.

दूसरी बात यह कि मंटो की कहानियों का जो तनाव है वह दृश्यों और घटनाओं का नहीं, उस मनोविज्ञान का है जो उनके पीछे काम कर रहा है- जिस्मों की मार्फ़त कही गई उसकी कहानियां दरअसल हमारी पथराई हुई रूहों का आईना हैं जिसे देखकर या तो आंख मूंद लेने, कान ढंक लेने और नाक बंद कर लेने की इच्छा पैदा होती है या फिर सबकुछ तोड़फोड़ देने की. यह तनाव वह चीज़ है जिसे मंच पर पकड़ना आसान नहीं.

लेकिन रविवार को नीलम मान सिंह की प्रस्तुति का मंटो जैसे पूरे रंगमंच के अनुशासन और व्याकरण को तोड़-फोड़ रहा था, तहस-नहस कर दे रहा था. मंच पर हमने चूल्हा भी जलता देखा, पानी भी गिरता देखा, लोगों को नहाते, कपड़े बदलते देखा, जिस्मों का सौदा करते देखा, रेत और धूल के बीच से खोद-खोद कर निकाले गए अखाद्य को भी भकोस-भकोस कर खाते देखा, दंगों के बीच लुटती, ठेलों पर भरी स्त्रियां देखीं, बार-बार उनका टूटता यक़ीन देखा, उनको लूटते उनके ही प्रेमी देखे और अपने प्रेम और अपनी मनुष्यता में दूसरों का बोझ उठाती इन स्त्रियों का साहस भरा गीत देखा.

इस बहुत यथार्थवादी किस्म की लेखकीय टेक को मंच पर उतारना इसलिए भी संभव हुआ कि निर्देशक ने इसमें प्रतीकात्मकता को बहुत करीने और कल्पनाशीलता के साथ गूंथा

यह सब दिखाना आसान काम नहीं था. बेशक, इसके पीछे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की साधन-संपन्नता का भी योगदान है, लेकिन इन साधनों के बावजूद अगर वह रंग-दृष्टि नहीं होती जो इस बहुत जटिल विन्यास का अपना एक अलग मुहावरा गढ़ने में कामयाब रही तो यह प्रस्तुति संभव नहीं होती. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छोटे से ‘बहुमुख’ प्रेक्षागृह के दर्शकों से बिल्कुल लगे मंच को निर्देशक ने पूरा का पूरा इस्तेमाल किया- पिछले हिस्से के ऊपरी परकोटों में अलग-अलग दुनियाएं बनती रहीं- सामने दो छोरों पर बंटी दृश्य संरचनाएं अक्सर एक विडंबनामूलक व्यंजना बनाती रहीं. दौलत वैद की प्रकाश व्यवस्था ने इस जटिलता का पूरी सहजता से संवहन किया.

इस पूरी परिकल्पना को अभिनेताओं की ऊर्जा एक अलग आयाम देती रही. लगभग सारे के सारे कलाकार बहुत जीवंतता के साथ बहुत मुश्किल किरदारों को निभाते नज़र आए. निस्संदेह, बाज़ी लड़कियों ने मारी जिनके हिस्से ज़्यादा चुनौतियां थीं- उन्हें मार भी खानी थी और धोखा भी खाना था, पिटना भी था और प्रेम भी करना था, बिकना भी था और सबकुछ बचाना भी था, भूख और चोट से बेपरवाह होकर बीमार मनुष्यता को अपनी पीठ पर टांग कर ले भी जाना था.

शायद ये वही सारे काम हैं जो उनके जीवन में घटित होते हैं और जिन्हें मंटो जैसा अफसानानिगार पकड़ पाता है और उसके गुज़र जाने के आधी सदी से ज़्यादा वक़्त बाद कोई निर्देशक मंच पर उतार पाती है. इस बहुत यथार्थवादी किस्म की लेखकीय टेक को मंच पर उतारना इसलिए भी संभव हुआ कि निर्देशक ने इसमें प्रतीकात्मकता को बहुत करीने और कल्पनाशीलता के साथ गूंथा.

ऐसी प्रस्तुतियों के लिए ज़्यादा दिन तय होने चाहिए. अगर इन्हें कुल 500 दर्शक ही देख पाएं तो यह इन साधनों का अपव्यय भी है और कलाकारों की मेहनत का अपमान भी

यह प्रस्तुति देखने के लिए इस लेखक को करीब एक घंटे कार्ड के लिए लाइन में ख़डा रहना पड़ा और कार्ड न मिलने पर अपने स्वभाव के विपरीत जाकर किसी से गुज़ारिश करनी प़ड़ी जो अंततः इसीलिए सफल रही कि फोन पर अपने लिए कार्ड रखवाने के बावजूद किसी शख़्स ने आना ज़रूरी नहीं समझा. एक नाट्य-समीक्षा सी लगती इस टिप्पणी में यह क्षेपक जोड़ने का मक़सद दरअसल इस बात की ओर ध्यान खींचना है कि ऐसी प्रस्तुतियों के लिए ज़्यादा दिन तय होने चाहिए. आख़िर इनमें एनएसडी के बहुत सारे साधन लगते हैं- अगर इन्हें कुल 500 दर्शक ही देख पाएं तो यह इन साधनों का अपव्यय भी है और कलाकारों की मेहनत का अपमान भी. क्योंकि यह टीस तो अलग ही है कि आम तौर पर आर्थिक विपन्नता के मारे भारतीय रंगमंच में कुछ सांस्थानिक काम ही ऐसे हो पाते हैं जो इतने समृद्ध कलेवर के भीतर पूरे हो सकें. बहरहाल, वह एक अलग विडंबना है जिस पर भी बात की जानी ज़रूरी है.

मंटो पर लौटें. क्या मंटो अंततः पक़ड़ में आता है? उसकी तरह के बड़े लेखक शायद हमेशा छूट जाने के लिए बने होते हैं- खासकर आभिजात्य से भरी जगहों पर उनके जैसे ‘शो-पीस’ में बदल जाने का खतरा होता है. मंटो पर आधारित मेरी देखी कई प्रस्तुतियों में मंटो ही गायब नज़र आता है, उसकी कुछ कहानियां मिल जाती हैं, उसके कुछ जीवन के ब्योरे मिल जाते हैं, उसकी एक साफ-सुथरी मूर्ति मिल जाती है. लेकिन दरअसल यह मंटो की ताकत है जो इतनी सारी चुनौतियों के बीच रंग-निर्देशकों को बार-बार आमंत्रित करती है कि आओ और मुझे जियो. कहने की ज़रूरत नहीं कि यह आमंत्रण स्वीकार करके एनएसडी के छात्रों और उनकी निर्देशक नीलम मान सिंह ने बहुत दूर तक इसके साथ न्याय किया है. बहुमुख के पानी-कीचड़, बारिश और नहाने से भरे-बिखरे, बिल्कुल धूल-धूल हो जाते मंच पर हम बिल्कुल दम साध कर मंटो के किरदारों की यातना और जीवटता दोनों को प्रगट होता देखते हैं- यह छोटी उपलब्धि नहीं है.