यह कहानी 1910 के किसी महीने की है. हेमाडपंत नाम के भक्त एक रोज सुबह-सुबह साई बाबा से मिलने पहुंच गए थे. लेकिन जब वे साई के ठिकाने पर पहुंचे तो वहां का नजारा देखकर उनके अचरज का ठिकाना न रहा. उन्होंने देखा कि साई हाथ की चक्की से गेहूं पीस रहे हैं. इस घटना को याद करते हुए हेमाडपंत यह भी बताते हैं कि शिरडी में 60 साल तक रहने के दौरान ऐसा कोई दिन शायद ही कभी गुजरा हो, जिस दिन साई ने सुबह-सुबह उस चक्की से गेहूं न पीसा हो. यानी यह उनका रोज का काम था.
शिरडी के साईबाबा संस्थान ट्रस्ट (एसएसएसटी) की वेबसाइट पर मौजूद 51 अध्यायों वाले साई सच्चरित्र के पहले अध्याय में इस घटना का जिक्र है. अब तक 15 भाषाओं में अनुवाद किए जा चुके साई सच्चरित्र को हेमाडपंत ने ही लिखा है. इसी में उन्होंने यह दिलचस्प तथ्य भी बताया है कि साई ने कभी अपने हाथ से पीसे हुए आटे तक का संग्रह नहीं किया. उसे वे कभी गांव की मेड़ (सीमा) पर फिंकवा देते थे ताकि जीवजंतुओं के काम आ जाए और कभी किसी जरूरतमंद को दे देते थे. क्योंकि उनका अपना भरण-पोषण तो भिक्षा के जरिए होता था.
अब याद कीजिए साई की वेशभूषा. कंधे से पैर तक झूलता हुआ गाउननुमा लबादा और सिर पर बंधा एक कपड़ा. इसके अलावा उनकी कोई और तस्वीर न तो याद आएगी और न शायद होगी. क्योंकि फिर वही बात कि उन्होंने अपनी जिंदगी में कभी कुछ संग्रह किया ही नहीं. लेकिन आज देखिए, इन्हीं साई के नाम पर साल-दर-साल हजारों कराेड़ रुपए का कारोबार फलफूल रहा है. कैसे? उसकी एक मिसाल देखिए. सितंबर-2016 की बात है. एसएसएसटी ने ऐलान किया था कि साईं के देहावसान को 100 साल पूरे होने के मौके पर 2017 से 2018 की विजयादशमियों (15 अक्टूबर 1918 को साई ने इसी राेज शरीर छाेड़ा था) के बीच सालभर देश-विदेश में विभिन्न आयोजनों का एक सिलसिला (आधिकारिक नाम- साईं बाबा महासमाधि सोहला) चलाया जाएगा. ताकि साई की शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया जा सके.
साल भर के इस आयोजन के दौरान साई की शिक्षा का कितना प्रचार-प्रसार हुआ यह तो आयोजक ही जानें. लेकिन इस दौरान पैसा खूब जुटा और जुटाया गया. द टाइम्स ऑफ इंडिया ने सितंबर-2016 में ही ख़बर दी थी कि इस आयोजन पर लगभग 3,050 करोड़ रुपए खर्च किए जाने का अनुमान है. और ग़ौर करने की बात है कि एसएसएसटी ने यह पूरी रकम अपने ख़जाने से ख़र्च नहीं की है. इसके लिए उसने महाराष्ट्र सरकार से मदद ली है और ‘भक्तों’ से खुले हाथों दान करने की अपील की है.
इसीलिए ये विरोधाभासी तथ्य हैरान भी करते हैं क्योंकि जिन साईं ने अपने हाथ से पीसे आटे का भी संग्रह नहीं किया उन्हीं के नाम की आड़ में अब इतने बड़े पैमाने पर धन जुटाए जाने का प्रयास जारी है. वह भी तब जबकि मंदिर के पास अथाह संपदा स्वाभाविक रूप से आ रही है. सिर्फ यही नहीं, साई बाबा की भक्ति के नाम पर ऐसा और भी बहुत कुछ हो रहा है जो उनकी शिक्षाओं के उलट दिखता है.
साई फकीर थे लेकिन उनका मंदिर अरबों का मालिक है
पूरी जिंदगी फकीरी में गुजार देने वाले साई का मंदिर देश के उन चुनिंदा तीन-चार धर्मस्थलों में शुमार होता है, जहां सालाना सैकड़ों करोड़ रुपए का चढ़ावा आता है. फ्री-प्रेस जर्नल की एक खबर के मुताबिक 2016 में 18 से 20 जुलाई तक ही शिरडी साई मंदिर में गुरु पूर्णिमा के आयोजन के दौरान 3.50 करोड़ रुपए का दान और चढ़ावा इकट्ठा हुआ. दिसंबर-2017 के आखिरी चार दिनों में श्रद्धालुओं ने मंदिर की झोली में करीब साढ़े पांच करोड़ रुपए डाल दिए और 2018 में गुरु पूर्णिमा पर 6.66 करोड़ रुपए आए. इतना ही नहीं एसएसएसटी की मुख्य कार्याधिकारी रूबल अग्रवाल के हवाले से खबरों में यह भी आ चुका है कि मंदिर के कोषागार में 425 किलोग्राम सोना और 4,800 किलोग्राम चांदी भी है. ट्रस्ट ने अलग-अलग राष्ट्रीयकृत बैंकों में 2,180 करोड़ रुपए का सावधि जमा (फिक्स्ड डिपॉजिट) भी किया है.
सो ऐसे में सवाल स्वाभाविक है कि अपने पास आ रहे इस अकूत पैसे का ट्रस्ट करता क्या है. इसका कुछ अंदाज़ा 2013-14 की उसकी अपनी ऑडिट रिपोर्ट से होता है. इसके मुताबिक कि उस वित्तीय वर्ष में आई कुल 347.27 करोड़ में से 188 करोड़ रुपए यानी करीब 54 फीसदी बैंक में संग्रहीत कर दिए गए. बाकी 24.4 करोड़ रुपए का खर्च सड़क और बस स्टैंड बनवाने जबकि 66.4 करोड़ रुपए का खर्च अन्य मदों में दिखाया गया. करीब 25 करोड़ रुपए महाराष्ट्र सरकार को बाढ़ राहत के लिए दिए गए. यह बात अलग है कि उस साल महाराष्ट्र में कोई बाढ़ नहीं आई थी. इसके अलावा 35.4 करोड़ रुपए कर्मचारियों की तनख्वाह पर खर्च हुए. आठ करोड़ रुपए का खर्च मंदिर पर हुआ. यानी संग्रह न करने की शिक्षा देने वाले साई के नाम पर आए पैसे का सबसे ज्यादा इस्तेमाल संग्रह में ही हुआ.
जहां अमीर-गरीब में फर्क नहीं था वहीं अब कुछ लोग वीआईपी होते है:
साई सच्चरित्र में ही जिक्र है कि उन्होंने अपने जीवनकाल में अमीर-गरीब में कभी कोई फर्क नहीं किया. बल्कि गरीबों को अमीरों से पहले और ज्यादा तवज्जो दी. लेकिन अब, जैसा कि श्री साई निवास की वेबसाइट बताती है, ‘एसएसएसटी ने 2010 से भक्तों के लिए वीआईपी दर्शन का प्रबंध शुरू किया. पहले यह सुविधा शनिवार-रविवार को ही थी. अब पूरे हफ्ते मिलती है. वह भी बढ़ी हुई दरों के साथ.’ इस वेबसाइट पर वीआईपी दर्शन के शुल्क की दो श्रेणियां बताई गई हैं. एक-सुबह 4.30 होने वाली काकड़ आरती के लिए प्रतिव्यक्ति 500 रुपए. दूसरी- मध्यान्ह (दोपहर 12 बजे), धूप (सूर्यास्त के वक्त) और सेज (रात 10.30 पर) आरती के लिए प्रतिव्यक्ति 300 रुपए. इसके अलावा बताया जाता है कि सामान्य समय में भी 100 रुपए प्रतिव्यक्ति के हिसाब से शुल्क देकर लोग वीआईपी की तरह ‘उस फकीर’ के दर्शन कर सकते हैं.
हिंदू-मुस्लिम एकता की छीजती परंपरा
शिरडी में साई जिस मस्जिद में रहते थे, उसे उन्होंने ‘द्वारकामयी’ नाम दिया था. कहने की जरूरत नहीं कि यह नाम श्रीकृष्ण की द्वारका से ही लिया गया होगा ताकि ‘मस्जिद’ से हिंदुओं को और ‘द्वारका’ से मुस्लिमों को भाईचारे का संदेश मिलता रहे. यही वजह है कि हिंदू-मुस्लिम एकता साई बाबा की भक्ति परंपरा का अभिन्न हिस्सा रही है.
लेकिन कुछ समय से यह हिस्सा लगातार छीजता गया है. एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक दशक के भीतर देश भर में अस्सी हजार के करीब ‘साई मंदिर’ अस्तित्व में आ चुके हैं. उनमें भी करोड़ों रुपए का चढ़ावा आ रहा है. शिरडी के इतर देश के दूसरे हिस्सों में साई मंदिरों के विस्तार के साथ-साथ उनकी पूजा पद्धतियों में भी धीरे-धीरे बदलाव आता गया है. उनकी पूजा-अर्चना का पूरी तरह से हिंदूकरण हो गया है. यही वजह है कि साई भक्तों में मुसलमानों की संख्या तेजी से घटी है.
कुछ समय पहले एक साक्षात्कार में एसएसएसटी के तत्कालीन चेयरमैन जयंत सासने ने यह बात मानी थी. हालांकि उनका कहना था कि मुसलमान साई से इसलिए दूर हुए हैं क्योंकि उन्हें साई की मूर्ति से परेशानी होती है जो इस्लाम की मूल धारणा के खिलाफ है. वैसे कुछ साल पहले ही खबर यह भी आई थी कि साई संस्थान ट्रस्ट ने इस संकट को देखते हुए अपनी वेबसाइट पर देश के दूसरे हिस्सों में स्थित साई मंदिरों के पुजारियों के लिए 15 दिन की ट्रेनिंग की व्यवस्था की है ताकि पूजा-पद्धति में आते जा रहे भटकाव को रोका जा सके.
हालांकि एसएसएसटी से जुड़े शैलेष कुटे साई स्थल को हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक अब भी मानते हैं. उनके मुताबिक शिरडी साई मंदिर देश में इकलौता ऐसा धार्मिक स्थल है जहां हर साल रामनवमी और उर्स, दोनों का आयोजन होता है. वे कहते हैं, ‘यहां आज भी रोज सुबह 10 बजे की आरती में मुस्लिम शामिल होते हैं और साई की समाधि पर फूलों की चादर चढ़ाते हैं.’
शैलेष की बात अपनी जगह सही हो सकती है. लेकिन वे जिस ट्रस्ट के सदस्य हैं उसके सब काम भी सही हैं, इस पर कइयों को संशय होने लगा है जो दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है.
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