जब जयप्रकाश नारायण अमेरिका गए तो प्रभावती गांधी जी के साथ रहने साबरमती आश्रम चली गईं. गांधी जी ने ब्रजकिशोर प्रसाद को पत्र लिखकर आग्रह किया था कि वे अपनी बेटी को आश्रम में रहने की अनुमति दें. जयप्रकाश ने अमेरिका से अपने पिताजी को चिट्ठी लिखकर अनुरोध किया कि वे प्रभावती को साबरमती आश्रम जाने दें. इसलिए प्रभावती आश्रम चली गईं और जयप्रकाश के अमेरिका प्रवास के दौरान वहीं रहीं.
आश्रम में प्रभावती जी पर गांधी का ऐसा प्रभाव पड़ा कि ब्रह्मचर्य का व्रत लेने की बात उनके दिमाग में बैठ गई. पहले उन्होंने अपनी इच्छा कस्तूरबा को बताई और फिर बाद में गांधी जी से भी इसकी चर्चा की. गांधी जी ने पहले तो ऐसा करने से मना कर दिया और उन्हें जयप्रकाश से मशविरा करने को कहा. इसके बाद प्रभावती ने जयप्रकाश को अमेरिका पत्र लिखा. जवाब में जयप्रकाश नारायण ने लिखा कि पत्र में इसका जवाब क्या दूं, वापस आने पर बात करूंगा. लेकिन प्रभावती जी व्रत लेने को उद्विग्न थीं. उन्होंने जयप्रकाश के वापस आने का इंतजार नहीं किया और ब्रह्मचर्य की शपथ ले ली.

प्रभावती ने स्पष्ट किया है कि ब्रह्मचर्य का व्रत उन्होंने स्वेच्छा से लिया, गांधी जी के दबाव में नहीं, ‘मैं यह कहना चाहती हूं कि जो लोग कहते हैं कि गांधी जी ने ऐसा करा दिया, और उनके कहने से मैंने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया, तो गांधी जी ने कुछ नहीं कहा था. बल्कि उन्होंने तो मना ही किया था, और वे बराबर कहते थे कि मुझको जेपी के साथ रहना चाहिए, उनकी देखभाल करनी चाहिए, उनकी सेवा करनी चाहिए. गांधी जी की मेरे नाम की सब चिट्ठियों में भी उन्होंने ऐसा ही लिखा है. तो मैंने कोई व्रत किसी के कहने से नहीं लिया था. लेकिन बचपन से ही कुछ ऐसी वृत्ति मेरी थी. वहां आश्रम में जाकर सब देखा, तो स्वाभाविक रूप में इस तरफ अग्रसर हुई.’
स्पष्ट है कि महात्मा गांधी ने भले ही सीधे ढंग से प्रभावती को ब्रह्मचर्य का व्रत लेने को न कहा हो, किंतु उनके संस्पर्श में जिस तरह का संस्कार प्रभावती के अन्दर विकसित हुआ उसकी यह स्वाभाविक परिणति थी. आध्यात्मिक और चारित्रिक दृष्टि से प्रभावती का व्यक्तित्व अत्यधिक विकसित था और आश्रम का संस्कार उसमें उत्प्रेरक बना. गांधी जी स्वयं सन 1906 में ब्रह्मचर्य का व्रत ले चुके थे. व्रत लेने के दिन तक उन्होंने अपनी पत्नी के साथ विचार नहीं किया था पर व्रत लेते समय किया. ब्रह्मचर्य की महिमा से वे अभिभूत थे. उन्होंने स्वयं लिखा है, ‘ब्रह्मचर्य के सम्पूर्ण पालन का अर्थ है, ब्रह्म दर्शन. यह ज्ञान मुझे शास्त्र द्वारा नहीं हुआ. यह अर्थ मेरे सामने क्रम-क्रम से अनुभव सिद्ध होता गया. इससे संबंध रखने वाले शास्त्र वाक्य मैंने बाद में पढ़े. ब्रह्मचर्य में शरीर-रक्षण, बुद्धि-रक्षण और आत्मा का रक्षण समाया हुआ है. इसे मैं व्रत लेने के बाद दिनोंदिन अधिकाधिक अनुभव करने लगा.’
इस बीच जेपी अमेरिका से नवंबर 1929 में वापस आए तो प्रभावती उनसे पटना में मिलीं. प्रभावती से उन्हें मालूम हुआ कि उन्होंने ब्रह्मचर्य का संकल्प ले लिया है. जेपी मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं थे और न ही ब्रह्मचर्य में उन दिनों उनका विश्वास था. इसके अलावा बच्चों से उन्हें बेहद लगाव था और उनकी अपनी इच्छा भी थी कि उनके बच्चे हों. इसलिए प्रभावती का निर्णय सुनकर वे काफी विचलित हुए. किंतु प्रभावती अपने व्रत में अडिग थीं. इससे उनके दांपत्य जीवन में द्वंद्व और आतंरिक संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई.

दिसंबर में जेपी और प्रभावती गांधी जी से मिलने वर्धा गए. यह जेपी की महात्मा गांधी से पहली भेंट थी. कस्तूरबा ने आश्रम में जेपी का स्वागत एक दामाद की तरह किया. उनकी आत्मीयता से जेपी मुग्ध हो गए. ब्रह्मचर्य के बारे में जेपी की गांधी जी से चर्चा हुई. गांधी जी ने महसूस किया कि प्रभावती के व्रत से जेपी के अंदर आक्रोश है, किंतु वे नैतिक रूप से प्रभावती के साथ थे और उन्हें अपने संकल्प से हटने की सलाह नहीं दे सकते थे. सन 1929 से 1936 तक इस विषय को लेकर जेपी का गांधी जी से काफी पत्राचार होता रहा. जेपी ने बहुत कठोर शब्दों में गांधी जी को कई पत्र लिखे, लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न कर बड़े स्नेह से उन्हें समझाने का प्रयास किया.
एक पत्र में उन्होंने जेपी को लिखा, ‘तुम्हारे दुःख को समझ सकता हूं. तुम्हारे दुःख से मुझे दुःख हुआ है. तुम्हारा पत्र मिला है. स्वच्छ है, प्रभावती के साथ रहने की तुम्हारी इच्छा स्वाभाविक है. इस हालत में मैं उसे वर्धा रखना नहीं चाहता हूं. तुम्हारा जीवन नीरस बन रहा है, यह मुझे दुःख है ही. तुम्हारा मीठा और शुद्ध ह्रदय से लिखा हुआ ख़त मिला. मेरे लिए तुम्हारे दिल में स्थान व मान है, सो तो मैं अच्छी तरह जानता हूं. मिलेंगे तब बातें करेंगे.’
एक अन्य पत्र में गांधी जी ने लिखा. ‘इसमें मेरी जिम्मेदारी तो है ही. प्रभा मेरे साथ रही, और मेरी बातों ने, मेरे आचार ने उस पर असर डाला. अब मैं नहीं जानता क्या करना उचित है. प्रभा मेरे पास आई, ब्रजकिशोर बाबू और तुम्हारी सम्मति से. मेरा जो कुछ असर प्रभा पर पड़ा, उसके लिए तो क्या किया जाए? लेकिन मेरे संपर्क से प्रभा की पिता-भक्ति और पति-प्रेम में न्यूनता नहीं आई है. अब मुझे कहो, मैं क्या करूं? यदि ऐसा चाहोगे कि प्रभा न मेरे पास आए और न मुझे पत्र लिखे, तो तुम्हारे संतोष के कारण मैं ऐसा प्रतिबंध भी स्वीकार कर लूंगा. तुम दोनों के आदर्श में भेद पाता हूं. प्रभावती के आदर्श बनने में मेरा हाथ है सही. उसका मुझे दुःख नहीं है. लेकिन तुम्हारा प्रेम उसे तुम्हारे आदर्श की ओर खींच जाए तो मैं राजी हूंगा, मेरी जिम्मेवारी कम होगी, तुमको संतोष होगा. मेरे लिए यह इतनी खेद की बात सही कि जो शिक्षा प्रभा ने मेरे पास पाई है, उसमें तुम्हारी पूर्ण सम्मति नहीं है.
गांधी जी ने अपनी स्थिति एक दूसरे पत्र में स्पष्ट की, ‘मेरी यही अभिलाषा है कि तुम्हारा दांपत्य आदर्श बने. मेरे लिए धर्म-संकट है. प्रभा मुझे अथवा आश्रम को छोड़ना नहीं चाहती. मैं कैसे उसको निकाल दूं? मैं चाहता हूं प्रभा तुम्हारे पीछे-पीछे घूमे, और तुम दोनों में जो अंतर पड़ गया है, सो दूर हो जाए. दोनों मिलकर कुछ फैसला करो. मैं तो जहां कहो वहां सलाह दे सकता हूं. हां, कोई एक दूसरे पर बलात्कार न करे.’
अंत में गांधी जी ने एक ख़त में उन्हें दूसरी शादी करने की सलाह दी, ‘इसलिए मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि यदि प्रभावती को विकार नहीं है तो उसको मुक्ति दे देनी चाहिए और तुम्हें दूसरी शादी करनी चाहिए. उसमें मैं अधर्म नहीं मानता. क्या किया जाए? तुम्हारी भोगेच्छा को बलात्कार से कैसे रोका जाए. तुम तो भोगेच्छा को आवश्यक और आत्मा के लिए लाभदायी मानते हो. ऐसे अवसर पर दूसरी शादी को मैं किसी दृष्टि से बुरी चीज नहीं समझता हूं. मेरा ख्याल है कि तुम्हारे ऐसा करने से समाज को एक दृष्टांत मिलेगा. कई नवयुवक अपनी पत्नी पर बलात्कार करते हैं. कई वेश्यागमन करते हैं. कई इससे भी ज्यादा अनीति करते हैं. यहां तो प्रभावती ने कुमारी का जीवन पसंद किया है. तुम्हारी ब्रह्मचर्य की इच्छा नहीं है. इसलिए तुम प्रभावती की इच्छा के रक्षक बनते हो और अपने लिए दूसरी स्त्री ढूंढ़ते हो, इस योजना में कहीं भी मुझको बुराई प्रतीत नहीं होती है.’
गांधी जी के इस पत्र से जेपी बुरी तरह आहत हुए थे और डॉ हरिदेव शर्मा के साथ बातचीत में उन्होंने इसे गांधी जी का ‘रुथलेस लॉजिक’ कहा था. दूसरे विवाह के विचार तक से उनके आत्मसम्मान को ठेस लगती थी. चूंकि दूसरा विवाह नहीं करना था इसलिए उन्होंने भी प्रभावती का साथ निभाने के लिए ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया. गांधी जी के आनंद का ठिकाना न रहा. हर्षातिरेक में उन्होंने आशीर्वाद दिया, ‘यदि दूसरी स्त्री का ख्याल तक भी तुमको नहीं है, तो प्रभावती के लिए (तुम्हें) ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिए और प्रभावती पर तुम्हारा सचमुच ऐसा प्रेम है, तो अनुभव से तुम देखोगे कि तुम्हारे विकार प्रभावती के निकट शांत हो जाएंगे.’
यह एक अद्भुत और अनोखी घटना थी. इसके पहले केवल पुरुषों के ब्रह्मचर्य व्रत का उदाहरण मिलता है और स्त्रियों ने अपने पति की अनुगामिनी के रूप में ऐसा संकल्प लिया है. रामकृष्ण परमहंस की साधना के लिए मां शारदा ने ताउम्र ब्रह्मचर्य का पालन किया. महात्मा गांधी की साधना के लिए कस्तूरबा ने ऐसा किया. किंतु जेपी और प्रभावती जी के मामले में बिलकुल उल्टा हुआ. प्रभावती जी की साधना के लिए जेपी ने व्रत लिया. सन 1973 में प्रभावती जी की मृत्यु के बाद एक दिन जेपी को पुराने पत्रों का एक पुलिंदा मिल गया जिसमें गांधी जी को उनके द्वारा लिखे गए पत्र थे. जेपी एक-एक कर पत्र को पढ़ते गए और फफक-फफक कर रोते रहे, मैंने ऐसे महात्मा को क्या-क्या लिख दिया.
प्रभावती का व्रत जीवनपर्यंत निष्कलंक रहा. इसे जेपी ने भी माना है, लेकिन अपने बारे में उन्होंने ऐसा दावा नहीं किया. पवनार आश्रम में जब बहनों ने उनसे ब्रह्मचर्य के अनुभव के बारे में पूछा तो उन्होंने इस बारे में प्रभावती से बात करने को कहा. सन 1972 में डॉ हरिदेव शर्मा के साथ बातचीत में उन्होंने स्वीकारा, ‘ब्रह्मचर्य की शपथ मैंने नहीं ली थी. वह तो हमको श्रेय मिलता है बेकार ही. वैसे, ब्रह्मचर्य निभाया है, ऐसा भी नहीं है. अब यह था कि प्रभावती ने ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया था. हमें तो इसको ऑनर करना था... तो एक तरह से कम्पलसरी ब्रह्मचर्य हुआ. कोई बहुत अधिकांश तो निभाया, लेकिन पूर्ण रूप से नहीं निभा हमारी तरफ से. इन्होंने तो निभाया.’
प्रभावती जी की मृत्यु के बाद भी कुछ पत्रिकाओं के साथ भेंटवार्ता में ब्रह्मचर्य से संबंधित प्रश्न का जवाब उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि कह नहीं सकता ब्रह्मचर्य का पालन किया या नहीं.
(यह लेख डॉ सुधांशु रंजन की किताब ‘जयप्रकाश नारायण’ के तीसरे अध्याय ‘स्वदेश वापसी और ब्रह्मचर्य’ के कुछ अंशों को जोड़कर बनाया गया है. इस किताब को पहली बार 1994 में नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया ने प्रकाशित किया था.)
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