‘अांथा मानुषअनुक्कू बयंगरा आदिष्टम, सर’ यानी ‘यह आदमी बहुत किस्मत वाला है, सर’. तमिलनाडु के वित्त मंत्री ओ पन्नीरसेल्वम के लिए यह टिप्पणी एआईएडीएमके (अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कझगम) से जुड़े एक कार्यकर्ता ने बीते अक्टूबर में की थी. यह कार्यकर्ता भी पार्टी के उन सैकड़ों कार्यकर्ताओं में एक था, जो 22 सितंबर से करीब-करीब रोज ही चेन्नई के अपोलो अस्पताल पहुंच रहे थे. तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता 22 सितंबर से यहां भर्ती थीं. यह बात एआईएडीएमके कार्यकर्ता ने तब कही थी जब पूरे देश को यह साफ हो चला था कि पन्नीरसेल्वम एक बार फिर जयललिता के स्वस्थ होने तक उनका उत्तराधिकार संभालेंगे.

राज्यपाल सी विद्यासागर राव द्वारा उस समय जारी निर्देश के मुताबिक, तब से कल रात तक पनीरसेल्वम जयललिता की गैरमौजूदगी में न केवल मंत्रिमंडल की बैठकों की अध्यक्षता कर रहे थे, सरकार भी चला रहे थे और जयललिता की जिम्मेदारी वाले गृह तथा लोकनिर्माण सहित और कई अहम मंत्रालयों का कामकाज भी देख रहे थे. कल रात हुई एआईएडीएमके प्रमुख की मृत्यु के बाद अब वे तमिलनाडु के 18वें मुख्यमंत्री हैं. वे इससे पहले भी दो बार कामचलाऊ इंतजाम के तहत ही बतौर मुख्यमंत्री, जयललिता की सरकार चला चुके हैं. पहली बार 2001 में और दूसरी बार 2014 में. दोनों ही बार जयललिता को अपने ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों पर आए कोर्ट के फैसलों की वजह से मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा था.

ओपीएस (पन्नीरसेल्वम को बोचलाल में इसी नाम से जाना जाता है) की इस बार की पदोन्नति कुछ अलग संदेश-संकेत लेकर आई है. जो बताते हैं कि वे अब पार्टी में शायद सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बन चुके हैं. शायद इसलिए कि पार्टी की कमान किसके हाथ में और कैसे रहने वाली है यह अभी पूरी तरह से साफ होना बाकी है. उसके साथ ओपीएस के संबंध कैसे रहने वाले हैं यह भी (संभावना से कुछ ज्यादा ही है कि जयललिता की करीबी मित्र शशिकला सत्ता की जिम्मेदारी अपने हाथ में ही रखने वाली हैं). फिर भी मुख्यमंत्री होने के नाते राज्य की सत्ता अब अगले करीब साढ़े तीन साल के लिए उनके ही हाथ में रहने वाली है और इसका फायदा वे खुद को पार्टी में बेहद मजबूत करने के लिए कर सकते हैं.

जयललिता के बीमार होने से पहले और कुछ समय बाद तक ये अटकलें लगाई जा रही थीं कि जयललिता और ओपीएस के बीच मतभेद चल रहे हैं. 2016 की शुरुआत से ही इन अटकलों को उस घटनाक्रम से बल मिला था, जब जयललिता की अध्यक्षता में हुई पार्टी की दो अहम बैठकों में पन्नीरसेल्वम को नहीं बुलाया गया था. जयललिता की नजदीकी मित्र शशिकला के साथ भी ओपीएस के मतभेदों की खबरें कई महीनों से चल रही थीं. इसके अलावा मई में जब एआईएडीएमके सत्ता में लौटी तो जयललिता ने ओपीएस को वित्त मंत्री तो बनाया मगर इस बार उन्हें लोकनिर्माण विभाग नहीं दिया गया. जबकि 2011 से 16 तक के कार्यकाल में यह विभाग भी ओपीएस के पास ही हुआ करता था. लेकिन अक्टूबर में ओपीएस को मिली अहम जिम्मेदारी के बाद इन तमाम अटकलों पर विराम लग गया.

तेज रफ्तार तरक्की

ओपीएस ने जिस तेजी से पार्टी और सरकार में तरक्की की, उसका किसी ने अंदाजा तक नहीं लगाया था. पहली बार 2001 में जयललिता के खिलाफ सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जे से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया और मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी नियुक्ति को ‘शून्य’ घोषित कर दिया गया था. तब उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा. उस वक्त उनका पद संभालने के लिए एआईएडीएमके में कई बड़े और अनुभवी नेता थे. जैसे कि सी पोन्नैयन, जो तब राज्य के वित्त मंत्री हुआ करते थे. वे पार्टी के साथ उस वक्त से जुड़े थे, जब 1972 में एमजी रामचन्द्रन ने इसकी स्थापना की थी. दूसरा बड़ा नाम था, केए सेंगोट्‌टैयन का, जो जयललिता के करीबी थे. उन्होंने उस वक्त जयललिता का चुनाव अभियान भी संभाला था.

लेकिन जयललिता ने सबको दरकिनार कर पेरियाकुलम विधानसभा सीट से चुने गए ओपीएस को तरजीह दी. उनका यह फैसला पार्टी ही नहीं, मीडिया के लिए भी चौंकाने वाला था. क्योंकि सितंबर 2001 में जब पार्टी विधायक ओपीएस को अपना नेता चुनने के लिए इकट्‌ठे हुए, तो किसी ने उनका नाम भी ठीक से नहीं सुना था. ऐसे में सबके लिए यह रहस्य ही रहा कि आखिर जयललिता को आेपीएस में ऐसा क्या दिखाई दिया कि उन्हें इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी.

लेकिन जब अपनी नेता की कुर्सी संभालते वक्त ओपीएस को रोते हुए पूरे देश ने देखा, और दोबारा 2014 में इसी तरह के मौके पर वैसा ही मंज़र फिर दिखाई दिया, तो इस रहस्य की कुछ परतें खुलती दिखीं. हालांकि राज्य की राजनीति के अच्छे जानकारों में शुमार आर दुरईसामी कहते हैं, ‘ओपीएस को मुख्यमंत्री पद सौंपते वक्त जयललिता ने काफी सोच विचार किया होगा. खासतौर पर यह गुणा-भाग जरूर लगाया होगा कि उनके सामने पार्टी और सरकार में किसी तरह की चुनौती न खड़ी हो. हो सकता है कि वे किसी अन्य वरिष्ठ नेता पर ज्यादा भरोसा ही न करती हों.’

पनीरसेल्वम के राजनीतिक सफर की शुुरुआत

ओपीएस का जन्म 1951 में थेनी जिले के पेरियाकुलम कस्बे में हुआ. शुरू में वे अपने गृहनगर में चाय की दुकान चलाते थे. अपनी पीढ़ी के अन्य कई युवाओं की तरह ओपीएस भी एमजीआर (एमजी रामचन्द्रन, जो पहले फिल्म स्टार थे) से बेहद प्रभावित थे. एमजीआर ने नई पार्टी बनाई तो ओपीएस भी उसमें शामिल हो गए. फिर अपने राजनीतिक करियर में उन्हें पहला बड़ा मौका मिला 1996 में.

उस वक्त एआईएडीएमके उम्मीदवार की हैसियत से पनीरसेल्वम पेरियाकुलम नगरपालिका के अध्यक्ष चुने गए. उसी साल की शुरुआत में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को करारी हार मिली थी. वह 234 में से सिर्फ चार विधानसभा सीटें ही जीत पाई थी. इसके बाद कई नेता पार्टी छोड़कर जा चुके थे. पन्नीरसेल्वम को भी सत्ताधारी डीएमके (द्रविड़ मुनेत्र कझगम) की तरफ से ऐसा करने का प्रस्ताव मिला था, लेकिन ओपीएस डीएमके में शामिल नहीं हुए. सत्याग्रह की सहयोगी वेबसाइट स्क्रोल से बातचीत में एआईएडीएमके से जुड़े एक नेता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘उनके (पन्नीरसेल्वम) लिए एमजीआर भगवान की तरह थे. हमसे उन्होंने एक बार कहा था कि वे अगर एआईएडीएमके छोड़कर करुणानिधि (डीएमके प्रमुख) के पास चले गए तो एमजीआर की आत्मा उन्हें माफ नहीं करेगी.’

दूसरा कार्यकाल

पार्टी और अपने नेता के प्रति संभवत: यही वफादारी ओपीएस को 2001 के अहम पड़ाव तक ले आई थी. यह बात एक बार फिर उस वक्त साबित हुई जब मार्च 2002 में जयललिता को जमीन अावंटन घोटाले के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दोषमुक्त कर दिया. उस वक्त पन्नीरसेल्वम ने तुरंत अपनी पार्टी प्रमुख के लिए मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया और जयललिता ने भी इनाम के तौर पर उन्हें अपने मंत्रिमंडल में लोकनिर्माण विभाग का मंत्री बना दिया. इसके बाद मई 2011 में एआईएडीएमके फिर सत्ता में लौटी. अब तक ओपीएस पार्टी में जयललिता के सबसे खास और भरोसेमंद नेता के तौर पर स्थापित हो चुके थे. अपनी इसी हैसियत के बलबूते वे राज्य सरकार में भी नंबर दो के रूप में सामने आए. इसीलिए जब सितंबर 2014 में जयललिता को आय से अधिक संपत्ति के मामले में बेंगलुरू की अदालत ने चार साल की सजा सुनाई तो उत्तराधिकारी के तौर पर फिर से ओपीएस उनकी पहली पसंद थे. यानी कि पिछले 13 साल में जयललिता के लिए उनकी छवि में कोई बदलाव नहीं हुआ था.

पार्टी के एक पदाधिकारी बताते हैं, ‘सजा सुनाए जाने के बाद जब जयललिता को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़़ा, तो उन्होंने वहीं अदालत परिसर में ही आेपीएस को सरकार की कमान सौंपने का फैसला कर लिया था. उस वक्त इस फैसले पर किसी को अचरज भी नहीं हुआ.’ इन पदाधिकारी के मुताबिक ओपीएस जानते थे कि वे अपनी नेता की कृपा के कारण मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचे हैं. शायद इसीलिए वे सीधे-सीधे पार्टी या सरकार में किसी से टकराव भी मोल नहीं लेते थे. वे कभी अपने साथियों या पर्टी नेताओं के साथ बदमिजाजी से पेश नहीं आए. यह भी संभवत: इसलिए कि जयललिता ने कभी औपचारिक रूप से उन सहित किसी को भी अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था.

हालांकि इसका अर्थ यह नहीं है कि ओपीएस दब्बू किस्म के नेता हैं. ओपीएस के मंत्रिमंडल में रहे एक नेता बताते हैं, ‘मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने अपने दूसरे कार्यकाल में कई बड़े और ठोस फैसले लिए. हमने उनके भीतर बड़ा बदलाव देखा था. थेनी जिले से आया एक सीधा-सादा शर्मीला नेता अब तक विपक्ष के साथ पूरी दमदारी के साथ दो-दो हाथ करने वाला राजनेता हो चुका था. विधानसभा में विपक्ष के साथ हुए ऐसे ही कई बहस-मुकाबलों में ओपीएस विजेता की तरह उभरे थे. वे ‘बेनामी मुख्यमंत्री’ संबंधी कहे जाने जैसे विपक्ष के तमाम आरोपों को भी बकवास बताकर खारिज करने लगे थे.’ वैसे, पार्टी के भीतर जयललिता की खास शशिकला के साथ ओपीएस के मतभेद बताए जाते हैं. दुरईसामी के मुताबिक, ‘इसकी वजह संभवत: ओपीएस से ज्यादा शशिकला हो सकती हैं. क्योंकि दोनों ही थेवार समुदाय के ही अलग-अलग वर्गों से ताल्लुक रखते हैं. ओपीएस मरावार हैं तो शशिकला केलार. दोनों जयललिता के नजदीकी हैं. ऐसे में संभव है कि अोपीएस को शशिकला अपने लिए चुनौती समझने लगी हों.’ अब शशिकला से पन्नीरसेल्वम के संबधों पर ही यह निर्भर करेगा कि मुख्यमंत्री के रूप में उनकी तीसरी पारी कैसी होने वाली है.

...वैसे जमीन तो पन्नीरसेल्वम की काफी मजबूत है

तमिलनाडु की राजनीति जातियों के इर्द-गिर्द घूमती है. खास तौर पर अन्य पिछड़ा वर्ग वाली जातियों का राज्य की राजनीति में प्रभुत्व है. इस लिहाज से देखें तो पन्नीरसेल्वम की राजनीतिक जमीन मजबूत नजर आती है. क्योंकि उनका जाति समुदाय भी इसी वर्ग से ताल्लुक रखता है. राज्य में कांग्रेस के दिग्गज के कामराज को छोड़ दें, जो कि मजबूत नडार समुदाय से आते थे, तो बाकी सभी मुख्यमंत्री उन जातियों से बने जिनकी आबादी राज्य में कम है. जैसे, जयललिता ब्राह्मण हैं. करुणानिधि इसई वेल्लालर. डीएमके के संस्थापक सीएन अन्नादुरई मुदलियार थे. जबकि एआईएडीएमके का गठन करने वाले एमजीआर का तो परिवार ही केरल से तमिलनाडु में आकर बसा था.

ऐसे में जब ओपीएस पहली बार 2001 में मुख्यमंत्री बने तो एक तरह से राज्य के थेवार समाज की आकांक्षा भी पूरी हुई. और इसीलिए अब इस समुदाय की अपेक्षाएं ओपीएस से जुड़ गई हैं. राजनीतिक जानकारों के मुताबिक, इसी वजह से भविष्य में अगर कभी एआईएडीएमके में शीर्ष नेतृत्व पर काबिज होने का संघर्ष सामने आया तो थेवार समाज ओपीएस के साथ खड़ा होगा. दुरईस्वामी कहते भी हैं कि इसीलिए जब भी कभी पार्टी नेतृत्व को लेकर किसी तरह का विवाद होगा तो अपनी वरिष्ठता और समर्थन के बल पर ओपीएस एक बड़े दावेदार के तौर पर हमेशा मैदान में होंगे.