‘राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा में नहीं बल्कि किसी अन्य भाषा में शिक्षा पाते हैं, वे आत्महत्या करते हैं. इससे उनका जन्मसिद्ध अधिकार छिन जाता है.’ यह बात राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कही थी. लेकिन उनके आदर्शों पर हम कितना आगे बढ़े, यह इस तथ्य से समझा जा सकता है कि बीते 30-40 सालों में एक बड़ी आबादी की मातृभाषा गुम हो चुकी है. इस दौरान देश की 500 भाषा/बोलियों में से लगभग 300 पूरी तरह से खत्म हो चुकी हैं और 190 से ज्यादा वेंटिलेटर पर आखिरी सांसें ले रही हैं.

जिस देश के राष्ट्रपिता मातृभाषा के हिमायती रहे हैं, वहां ऐसी स्थिति बनना किसी हैरत से कम नहीं. लेकिन इससे भी ज्यादा हैरत की बात यह है कि भाषा का इतना बड़ा नुकसान होने के बाद भी कहीं कोई हलचल नहीं है. यह शायद इसलिए कि इनमें से ज्यादातर जनजातियों की मातृभाषाएं थीं.

दुनिया में 199 भाषा-बोलियों को तो महज अब 10-10 और 178 को 10 से 50 लोग ही बोलते समझते हैं. यानी इनके साथ ही ये भाषाएं खत्म हो जाएंगी

राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, उत्तराखंड और गुजरात जैसे प्रदेश अपनी सांस्कृतिक विविधता और लोकसंपदा की समृद्धता के कारण पहचाने जाते रहे हैं. इनका अपना भरा–पूरा लोक संसार रहा है. लेकिन अब यह खत्म होने की कगार पर है. कारण यह कि जिस भाषा में यह लोक संसार रचा–बसा है, वही भाषा/बोली अब खत्म होने जा रही है. उसके साथ ही शायद सब कुछ खत्म हो जाएगा.

किसी भी समाज की भाषा उस अंचल की रीढ़ होती है. उसके खत्म होने का सवाल सिर्फ भाषाई नहीं है. भाषा सिर्फ अभिव्यक्ति का साधन ही नहीं होती बल्कि उसमें इतिहास और मानव विकास क्रम के कई रहस्य छिपे होते हैं. बोली के नष्ट होने के साथ ही जनजातीय संस्कृति, तकनीक और उसमें अर्जित बेशकीमती परंपरागत ज्ञान भी तहस–नहस हो जाता है. बाज़ार, रोजगार और शिक्षा जैसी वजहों से जनजातीय बोलियों में बाहर के शब्द तो प्रचलित हो रहे हैं लेकिन, उनकी अपनी मातृभाषा के स्थानिक शब्द प्रचलन से बाहर हो रहे हैं. दुखद है कि हजारों सालों से बनी एक भाषा, एक विरासत, उसके शब्द, उसकी अभिव्यक्ति, खेती, जंगल, इलाज और उनसे जुड़ी तकनीकों का समृद्ध ज्ञान, उनके मुहावरे, लोकगीत, लोक कथाएं एक झटके में ही खत्म होने लगी हैं.

2010 में आई यूनेस्को की ‘इंटरेक्टिव एटलस’ की रिपोर्ट बताती है कि अपनी भाषाओं को भूलने में भारत अव्वल नंबर पर है. दूसरे नंबर पर अमेरिका (192 भाषाएं) और तीसरे नंबर पर इंडोनेशिया (147 भाषाएं) है. दुनिया की कुल 6000 भाषाओं में से 2500 पर आज विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है. 199 भाषा या बोलियां ऐसी हैं जिन्हें अब महज 10-10 और 178 को 10 से 50 लोग ही बोलते समझते हैं. यानी इनके साथ ही ये भाषाएं खत्म हो जाएंगी.

यूनेस्को के ‘एटलस आफ द वल्‌र्ड्स लैंग्वेजेस इन डेंजर’ के मुताबिक अकेले उत्तराखंड में ही गढ़वाली, कुमाऊंनी और रोंगपो सहित दस बोलियां खतरे में हैं. पिथौरागढ़ की दो बोलियां तोल्चा व रंग्कस तो विलुप्त भी हो चुकी हैं. वहीं उत्तरकाशी के बंगाण क्षेत्र की बंगाणी बोली को अब मात्र 12 हजार लोग बोलते हैं. पिथौरागढ़ की दारमा और ब्यांसी, उत्तरकाशी की जाड और देहरादून की जौनसारी बोलियां खत्म होने के कगार पर हैं. दारमा को 1761, ब्यांसी को 1734, जाड को 2000 और जौनसारी को 1,14,733 लोग ही बोलते-समझते हैं. एटलस के मुताबिक 20,79,500 लोग गढ़वाली, 20,03,783 लोग कुमाऊंनी और 8000 लोग रोंगपो बोली के क्षेत्र में रहते हैं लेकिन, इसका यह मतलब नहीं है कि यहां रहने वाले सभी लोग ये बोलियां जानते ही हों. राजी बोली पर देश में पहली पीएचडी करने वाले भाषाविद डॉ. शोभाराम शर्मा बताते हैं कि यूनेस्को ने पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों में रहने वाले राजी जनजाति की बोली को एटलस में शामिल नहीं किया है लेकिन, यह भाषा भी विलुप्ति की कगार पर है. अब उत्तराखंड में राजी या वनरावत जनजाति के महज 217 लोग ही बचे हैं.

‘मालवी सहित आदिवासियों की कई अन्य बोलियों के उजड़ने की बात किसी बड़े हादसे से कम नहीं है. लेकिन इसे लेकर कहीं कोई पछतावा नजर नहीं आता है. यह हमारी सांस्कृतिक पहचान के खत्म होने की तरह है.’

मध्यप्रदेश में भी करीब दर्जनभर बोलियां विलुप्ति के मुहाने पर पहुंच चुकी हैं. प्रदेश की कुल आबादी का 35.94 फीसदी अब भी आंचलिक बोलियों पर ही निर्भर है लेकिन, इन आदिवासी बोलियों पर बड़ा संकट मंडरा रहा है. भीली, भिलाली, बारेली, पटेलिया, कोरकू, मवासी निहाली, बैगानी, भटियारी, सहरिया, कोलिहारी, गौंडी और ओझियानी जैसी जनजातीय बोलियां यहां सदियों से बोली जाती रही हैं, लेकिन अब ये बीते दिनों की कहानी बनने की कगार पर हैं. प्रदेश के एक बड़े हिस्से, करीब 12 जिलों में बोली जाने वाली मालवी भी अब दम तोड़ने लगी है. मध्यप्रदेश के 8.58 फीसदी (51,75,793) लोगों की मातृभाषा मालवी है. उज्जैन में मुंशी प्रेमचंद के नाम पर बनी सृजन पीठ के निदेशक साहित्यकार जीवनसिंह ठाकुर कहते हैं, ‘मालवी सहित आदिवासियों की कई अन्य बोलियों के उजड़ने की बात किसी बड़े हादसे से कम नहीं है. लेकिन इसे लेकर कहीं कोई पछतावा नजर नहीं आता है. यह हमारी सांस्कृतिक पहचान के खत्म होने की तरह है.’

‘मध्यप्रदेश आदिम जाति अनुसंधान एवं विकास संस्थान’ के अनुसंधान अधिकारी एलएन पयोधि बताते हैं, ‘मध्यप्रदेश की 12 आदिवासी बोलियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है. हम इन बोलियों को बचाने का लगातार प्रयास कर रहे हैं. हमने खत्म होती हुई बोलियों - गौंडी, भीली और कोरकू- के शब्दकोष और व्याकरण बनाई है. अब बैगानी, भिलाली, बारेली और मवासी पर काम चल रहा है. इनमें ज्यादातर आदिवासी बोलियां हैं. चिंता यह भी है कि अब आदिवासियों के बच्चे भी अपनी बोली सीखने से कतराने लगे हैं.’

छत्तीसगढ़ में तो लोगों ने अपनी बोलियों और भाषा को बचाने के लिए आंदोलन भी किये. रायपुर में विधानसभा के सामने हाथों में तख्ती लेकर और मुंह पर सफेद पट्टी बांधे लोगों ने जमकर प्रदर्शन किया. मांग थी कि यहां सरकारी कामकाज में स्थानीय भाषा छत्तीसगढ़ी का प्रयोग शुरू किया जाए. 28 नवंबर 2007 को विधानसभा में इस भाषा को प्रदेश की राजभाषा का दर्जा मिला. प्रस्ताव में साफ़ था कि अब से विधानसभा में प्रतिनिधि और मंत्री छत्तीसगढ़ी का ही उपयोग करेंगे. लेकिन यह प्रस्ताव धरातल पर कभी भी प्रभावी रूप से नहीं उतर पाया. ‘छत्तीसगढ़िया क्रांति सेना’ के अध्यक्ष अमित बघेल बताते हैं, ‘सरकार यहां के लोगों की आदिम भाषा को अशिक्षितों की भाषा मानती है. अब तक हम लगातार शांतिपूर्ण तरीके से अपनी बात रखते आए हैं. लेकिन सरकार पर इसका कोई असर नहीं हो रहा है. यदि ऐसा ही चलता रहा तो हमें उग्र आन्दोलन करना पड़ेगा.’

‘राजभाषा आयोग का गठन तो किया गया था पर अब तक इसके क्रियान्वयन के लिए न तो कोई समिति बनी, न ही कोई दफ्तर और न कोई राजभाषा अधिकारी नियुक्त हुआ.'

छत्तीसगढ़ राजभाषा मंच के संयोजक नंदकिशोर शुक्ल बताते हैं, ‘राजभाषा आयोग का गठन तो किया गया था पर अब तक इसके क्रियान्वयन के लिए न तो कोई समिति बनी, न ही कोई दफ्तर और न कोई राजभाषा अधिकारी नियुक्त हुआ. राज्य में कोई बैनर तक नहीं लगया गया है.’ वे सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘न्यू टेस्टामेंट और लाइट ऑफ़ भागवत का अनुवाद तो छत्तीसगढ़ी में करवाया जाता है, एमए की पढाई भी छतीसगढ़ी में हो सकती है, लेकिन पहली से पांचवीं तक की बुनियादी पढाई–लिखाई को लेकर सरकार गंभीर नहीं है.’

राजस्थान में आधा दर्जन बोलियां यूनेस्को की लुप्तप्राय बोलियों की सूची में शामिल हैं. राजस्थान के पश्चिम में मारवाड़ी के साथ मेवाड़ी, बांगडी, ढारकी, बीकानेरी, शेखावटी, खेराड़ी, मोहवाडी और देवडावाटी; उत्तर–पूर्व में अहीरवाटी और मेवाती; मध्य–पूर्व में ढूंढाड़ी और उसकी उप बोलियां - तोरावटी, जैपुरी, काटेड़ा, राजावाटी, अजमेरी, किसनगढ़ी, नागर चौल और हाडौती; दक्षिण–पूर्व में रांगडी व सौंधवाड़ी (मालवी); और दक्षिण में निमाड़ी बोली जाती है. घुमंतू जातियों की अपनी बोलियां हैं. जैसे गरोडिया लुहारों की बोली-गाडी. इनमें ज्यादातर देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती हैं. मायण लिपि को मान्यता नहीं मिली है. राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए अगस्त 2003 में राजस्थान विधानसभा ने संकल्प पारित किया था.

कुछ संस्थान ऐसे भी हैं जो बोली-भाषाओं को सहेजने की दिशा में प्रयास कर रहे हैं. बड़ौदा स्थित भाषा संशोधन प्रकाशन केंद्र पश्चिम भारत की जनजातीय बोलियों सहेजने की कोशिश कर रहा है. यह गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और राजस्थान के सीमावर्ती इलाकों में रहने वाली आदिवासी जनजातियों की अर्थव्यवस्था, उनके वन-अधिकार, विस्थापन, परंपरा, खेती और सेहत से जुड़े ज्ञान आदि और इनके मौखिक साहित्य, गीत, कथाएं आदि मुद्दों पर काम कर रहा है. इसके लिए शोध और प्रकाशन भी किए जा रहे हैं.

ऐसा ही कुछ मैसूर का भारतीय भाषा संस्थान भी कर रहा है. इसके पूर्व उप-निदेशक प्रो. जेसी शर्मा बताते हैं, ‘बोलियां लगातार खत्म होने के कगार पर हैं. हमें आदिवासियों के बीच काम करते हुए इन्हें सहेजने की दिशा में काफी काम करने की जरूरत है. अपने स्तर पर हमने कुछ प्रयास शुरू किए हैं. इनका अच्छा परिणाम रहा है. हम बोली के साथ ही उसके परंपरागत ज्ञान को भी सहेजने की कोशिश कर रहे हैं.’ लेकिन ऐसे प्रयास बेहद सीमित ही हैं. इसका अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि भाषा विज्ञानी ग्रियर्सन के बाद बीते लगभग 100 सालों में कभी बोलियों या भाषाओं का सर्वेक्षण तक नहीं हुआ है.

प्राथमिक शिक्षा सिर्फ हिंदी और अंग्रेजी तक ही सिमट गई है. इस कारण बच्चे अपनी स्थानीय बोलियों से लगातार कटते जा रहे हैं और अपनी बोलियों को लेकर उनके मन में हीन भावना भी आने लगी है.

2011 की जनगणना के अनुसार देश के सवा अरब लोग 1652 मातृभाषाओं में बात करते हैं. इसमें सबसे ज्यादा 42,20,48,642 लोग (41.03 फीसदी) हिंदी भाषी हैं, राजस्थानी बोलने वाले 1,83,55,613 (1.78 फीसदी) लोग हैं. मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के 28,672 वर्ग मील के बड़े क्षेत्र में भील रहते हैं पर भीली बोलने वाले 95,82,957 लोग (0.93 फीसदी) और संथाली बोलने वाले तो मात्र 64,69,600 (0.63 फीसदी) लोग ही हैं. देश में लगभग 550 जनजातियां निवास करती हैं जिनकी अपनी-अपनी बोलियां भी हैं. लेकिन इनमें से कई बोलियों को बोलने वालों की तादाद अब घटकर सिर्फ हजारों में सिमट चुकी है. जनजातीय बोलियों को लिपिबद्ध किए जाने की अब तक कहीं कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई है. इन्होंने अपने वाचिक स्वरूप में ही हजारों सालों का सफ़र तय किया है.

कई जानकारों का मानना है कि जब तक इन बोलियों या भाषाओं को छात्रों के पाठ्यक्रम से नहीं जोड़ा जाता, तब तक इन्हें आगे बढ़ाने की बात बेमानी ही साबित होगी. खासतौर पर प्राथमिक शिक्षा में यह बहुत जरुरी है. प्राथमिक शिक्षा सिर्फ हिंदी और अंग्रेजी तक ही सिमट गई है. इस कारण बच्चे अपनी स्थानीय बोलियों से लगातार कटते जा रहे हैं और अपनी बोलियों को लेकर उनके मन में हीनभावना भी आने लगी है. यदि समय रहते इन बोलियों के संरक्षण के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जाते तो जल्द ही ये पूरी तरह से विलुप्त हो जाएंगी. यह सिर्फ एक बोली या भाषा की नहीं, मानव समाज की कई अमूल्य विरासतों की भी विलुप्ति होगी.