यह 1998-99 की बात होगी जब मेरा बिहार से दिल्ली आना हुआ. लगभग इसी के आसपास निर्मल वर्मा भी दिल्ली में पटपड़गंज के अपने फ़्लैट में शिफ्ट हुए थे. उनका यह ठिकाना मेरे घर के काफी नजदीक था. यहां मैं रिक्शे से पहुंच सकती थी. अखबारों में लिखना छपना ही तब मेरी आजीविका का साधन थ और इंटरव्यू भी इसी काम का एक जरूरी हिस्सा. मुझे जब भी उनका इंटरव्यू लेना होता मैं बिना किसी पूर्व सूचना के उनके घर जा धमकती. और हैरत की बात यह कि मेरे इस अप्रत्याशित आगमन से उनके चेहरे पर शायद ही कभी कोई शिकन उभरी हो, बल्कि मुझ जैसे संकोची में यह आत्मीय अनौपचारिकता जरूर उनके स्नेह से ही आई थी कि मैं इस तरह बेहिचक आने को अपना हक मान बैठी.
अब सोचूं तो अजीब लगता है क्योंकि एक लेखक के लिए उसका एकांत बहुत महत्व रखता है. जब बात निर्मल वर्मा जैसे लेखक की हो तो उनके साहित्यिक कद, लेखन शिल्प और स्वभाव को देखते हुए इस बात का महत्व और बढ़ जाता है. उनका सम्पूर्ण लेखन इसी एकांत की साधना और देन था.

उनसे जुड़ी एक और याद भी है जिसे मेरी आदर्शवादिता और भावुकता भरी बेवकूफी का दूसरा उदाहरण भी कहा जा सकता है. ठीक इन्हीं वर्षों में (वर्ष 1998-99) निर्मल वर्मा को पंजाबी कथाकार गुरुदयाल सिंह के साथ सम्मिलित रूप से ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला था. राशि नहीं बंटी थी लेकिन यह पुरस्कार दोनों कथाकारों के बीच बांट दिया गया था. यह दोनों कथाकारों के कद की तौहीन थी. निर्मल जी के लिए तो और भी ज्यादा.
वह 27 जनवरी की शाम थी जब फिक्की सभागार में निर्मल जी और गुरुदयाल जी पुरस्कार ग्रहण कर रहे थे. इसके एक दिन पहले ही गुजरात में वह विनाशक भूकंप आया था जिसकी त्रासदी से सारा देश हिला हुआ था. हम जिन्हें प्यार करते हैं, जो हमारे आदर्श होते हैं, उनसे हमारी अपेक्षाएं भी अपरिमित होती हैं. मुझे उम्मीद थी कि इस मौके पर निर्मल जी इस आपदा में टूटे–बिखरे हुए लोगों के लिए भी दो आत्मीय शब्द कहेंगे. शायद पुरस्कार राशि का छोटा-सा ही सही, कोई अंश उन पीड़ितों की मदद के लिए भी दे दें. पर ऐसा नहीं हुआ. हो सकता है कि इसकी वजह लेखन पर उनकी निर्भरता रही हो. उनका संबल और जीवन उनकी किताबें ही तो थीं, अन्य लेखकों की तरह न उनका कोई प्रकाशनगृह था, न वे किसी पत्रिका के संपादक थे और न कोई छोटी-बड़ी नौकरी ही थी उनके पास.
हां, गुरुदयाल सिंह ने उस दिन इस आपदा में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि देते हुए कुछ शब्द कहे थे, पर निर्मल जी थे कि इस औपचारिकता में भी नहीं पड़े. अपने अग्रजों से बहुत ही ज्यादा अपेक्षा रखने वाली मैं उस रोज आहत हुई थी और इसी आहतावास्था में मैंने तब एक लेख लिखा था जो हिंदुस्तान अखबार में प्रकाशित हुआ. इसका शीर्षक था, ‘लेखक की सामाजिकता बनाम कागजी आस्था’. एक तरह से देखें तो निर्मल जी का व्यवहार यूं तो कोई अपराध नहीं था. जब भूकंप आने के बावजूद राजधानी में 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस हर साल की तरह तमाम तामझाम के साथ संपन्न हुआ था तो फिर एक लेखक से क्या और कितनी उम्मीद की जाए! वह भी उस लेखक से जिसकी आजीविका लेखन ही ठहरी.
अब समझती हूं तो लगता है कि वे सिर्फ लेखन की दुनिया में जीने-रहने वाले लोगों में से थे. अन्य लेखकों की तरह औपचारिकताएं और व्यवहारकुशलता उनके जीवन और व्यवहार का अटूट हिस्सा नहीं थी. फिर मुझे उनका वह व्यवहार शायद इस वजह से अपराध लगने लगा था कि हम उनकी तुलना सुख से सुखी और खाई-अघाई दुनिया में निरंतर जागने और रोने वाले कबीर से करते थे. उस निराला से करते थे जो किसी दुखी और विधवा के निमित्त अपनी तमाम विपन्नताओं के बावजूद आनेवाली कोई पुरस्कार राशि उसे सौंप देता है.
ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के मौके पर अपने भाषण में निर्मल जी ने हेनरी जेम्स का कथन उद्धृत करते हुए लेखन को पागलपन की संज्ञा दी थी और इस पुरस्कार को उस पागलपन के लिए मिलनेवाला पुरस्कार बताया था
फिर एक दुख की बात यह भी हुई कि अपने पुरस्कार भाषण में उन्होंने हेनरी जेम्स के कथन को उद्धृत करते हुए लेखन को पागलपन की संज्ञा दी थी. इस पुरस्कार को उस पागलपन के लिए मिलनेवाला पुरस्कार बताते हुए उनका कहना था, ‘हम जो लिखते हैं, साहित्य के ऋण से उऋण होने का विनम्र प्रयासभर है, दुनियावी सुविधाओं के बीच अस्तित्व के चरम छोर पर जाने का ख़तरा हम नहीं उठाना चाहते, यह खतरा साहित्य हमारे लिए उठाता है.’ पर मुझे तो यूं लगा कि वह ख़तरा निर्मल जी ने अपने लिए नहीं उठाया और साहित्य के ऋण से उऋण होने का मौक़ा यूं ही गंवा दिया.
उम्मीद टूटने का दुख इसीलिए और गहरा था पर जो यहां मुझे मुख्यतः जो कहना है वह बात दूसरी है. जब मेरे किसी मित्र ने उन्हें मेरा यह लेख थमाते हुए कहा, ‘आपको कविता के लेख से तकलीफ हुई होगी.’ इसपर उन्होंने अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ कहा था, ‘नहीं, तुम सब हमारे बच्चे हो, हमारी आगे वाली पीढ़ी. अपने बच्चों से भला कोई नाराज होता है?’ ...और एक गहरी उदासी के साथ उन्होंने उसमें यह भी जोड़ा, ‘उसने जो लिखा वह गलत भी नहीं लिखा. मुझे भी यह दुख है कि मेरे दिमाग में तब यह बात क्यों नहीं आई.’
ये बातें जब मुझे पता चलीं तो मैं गलत नहीं होते हुए भी छोटी हो गई थी और फिर इसके बाद उनसे रूबरू कभी नहीं मिली. पर लेखक निर्मल वर्मा के साथ व्यक्ति निर्मल वर्मा का कद उस दिन मेरी नजर में और ऊंचा हो गया था. जबकि अब तक एकाध लोगों और घटनाओं की बात छोड़ दें तो अक्सर यूं होता रहा है कि जिन्हें पढ़ते लिखते बड़े हुए, कई बार वैसे लोगों से साक्षात मिलकर एक उदासी और दुख मन को घेर जाता था. ऐसा लगता था कि काश यह मिलना न ही हुआ होता. यह इसलिए क्यूंकि ज्यादातर मामलों में उनकी वह ऊंची छवि नजदीक से देखने पर उतनी धवल नहीं लगती थी. निर्मल जी के मामले में यह बात उल्टी ही साबित हुई.
यूं तो अक्सर कहानियां स्मृति की होती हैं पर निर्मल वर्मा की कहानियां विशुद्ध स्मृतियों की कहानियां हैं. संवाद की कोई स्थिति यहां बन ही नहीं पाती
निर्मल वर्मा ने एक साक्षात्कार में कहा था, ‘पहाड़, भिक्षुक, लामा, फ़कीर, सूनी दुपहरें... ये ऐसे बिम्ब हैं जिसके बीच मेरी कल्पना ने अपना परिवेश निर्मित किया...बचपन के वे बिम्ब, जिन्हें शब्दों में ढालते हुए समूचा जीवन बीत गया और फिर लगता है जो कुछ भी बना है, वह उससे बहुत कम है, जो अछूता बंजर और आकारहीन पड़ा है... जब कोई मुझसे पूछता है आपके लिखने के प्रेरणास्त्रोत क्या रहे, तो मैं एकाएक जवाब नहीं दे पाता. हवा में ताकता रहता हूं. किताबें, यात्राएं, चेहरे, बीते हुए लोग और शहर; बचपन के दोस्त और टीचर... क्या कोई एक कांटा है, जिसे पकड़कर कह सकूं - इसकी चुभन ने मुझे पहली बार जगाया था... मृत्यु की छाया बहुत पहले से एक अनलिखी लिपि की तरह लिखे शब्दों के बीच मंडराती रही.’ निर्मल जी के ये शब्द दरअसल उनकी कहानी की सबसे अच्छी व्याख्या हैं, ऐसी व्याख्या जो किसी और ने नहीं की, बल्कि उन्हीं के द्वारा की गई है. उनकी कहानियां अतीतजीवी हैं. अतीत उनकी कहानी की वह एकमात्र शरणगाह है जहां पहुंचकर उनकी आत्मा शरण ही नहीं शान्ति भी पाती थी. और अपने पाठकों को भी वे यही अद्भुत अनुभूति देते हुए उन्हें वर्तमान में जीने के बजाय अतीत-जीवी होने का सुकून और सुविधा देते हैं.
यूं तो अक्सर कहानियां स्मृति की होती हैं पर निर्मल वर्मा की कहानियां विशुद्ध स्मृतियों की कहानियां हैं. संवाद की कोई स्थिति यहां बन ही नहीं पाती. वे एक ऐसे कथाकार रहे हैं जिनसे किसी और की तुलना नहीं की जा सकती पर उनके साथ और बाद की सारी पीढ़ियों को अगर खंगाला जाए तो शायद ही ऐसा कोई रचनाकार हो, जिसने उनसे कुछ न लिया हो... जैसे कि आजादी के पूर्व के लेखकों में पहले प्रेमचंद से, या फिर बाद वालों ने अज्ञेय से... पर निर्मल वर्मा ने अपने समकालीन या फिर पूर्ववर्ती किसी से कुछ ग्रहण किया ऐसा नहीं कहा जा सकता. हालांकि बड़बोले लेखकों की तरह उन्होंने अपनी मौलिकता और अप्रभाविकता का दंभ कभी नहीं भरा. एक बार उन्होंने कहा था, ‘रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मृत्यु के बारे में जब मैंने सुना तो मैं जैसे हतप्रभ हो गया. हालांकि तब तक मैंने उनका कुछ पढ़ा नहीं था. बरसों बाद जब उनकी गीतांजलि पढ़ी तो यह एक अनिर्वचनीय सुख था. उनकी गद्य कविताओं ने न जाने मेरे भीतर के कितने बंद द्वार खोले... तीन मित्रों के साथ जब मैं श्रीनगर गया तो वह किताब मेरे साथ थी. जब दूसरे मित्र सोए रहते तो मैं बजरे की छत पर पानी में तैरते हुए कविताएं लिखता रहता. बिलकुल गीतांजलि की तर्ज पर. बाद में वह कॉपी मुझ से गुम हो गई कहीं.’
स्वाभाविक सदाशयता और विनम्रता के साथ अपनी कहानियों की इतनी अच्छी पहचान और विवेचना की दृष्टि कितने लेखकों के पास होती है. हो भी तो यह कह पाने का साहस कितने लोग कर सकते हैं! निर्मल जी की रचनाओं में एक अनाम अव्यक्त दुख को पकड़ने की कोशिश थी. इसीलिए जिसे लोग उनकी कहानी की संवादहीनता कहते हैं, दरअसल वह संवादहीनता न होकर खुद से किया गया संवाद था. अपनी खोज में निरंतर भटकते व्यक्ति की खुद ही से की गई बातचीत. हां उन्होंने अन्य लेखकों की तरह विचारधारा की बहती हुई गंगा में अपने हाथ नहीं धोए, चलती आ रही विधाओं और शिल्पों या दूसरे शब्दों में कहें तो आंदोलनों को नहीं साधा. बस अपनी मौलिक धुन पर लिखते रहे.
लोग क्या कह रहे हैं यह परवाह निर्मल जी ने कभी नहीं की. हालांकि यह आसान नहीं था. इसी कारण वे हमेशा लेखकों और लेखन की राजनीति से उपेक्षित और अलग-थलग रहे
लोग क्या कह रहे हैं यह परवाह निर्मल जी ने कभी नहीं की. हालांकि यह आसान नहीं था. इसी कारण वे हमेशा लेखकों और लेखन की राजनीति से उपेक्षित और अलग थलग रहे. यह विस्तारित करना था, एक दृष्टि को, उस अपकड़ और अपहुंच को कागज़ के आंगन में. खुद नामवर सिंह ने उनकी कहानी ‘परिंदे’ को नई कहानी का प्रस्थान बिंदु कहा, पर बाद में उन्हें दृष्टिहीन लेखक के तौर पर भी उन्होंने ही देखा.
जब नई कहानी एक विधा की तरह स्थापित हुई तो निर्मल जी उसकी प्रमुख धुरियों में से एक नहीं थे, वहां तो मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर थे. बाद के आए लोगों जैसे रेणु, शेखर जोशी, परसाई के साथ भी उन्हें जोड़कर नहीं देखा जा सकता. कई लोग उन्हें अज्ञेय की रचनाशीलता के निकट कहते हैं पर यह सामंजस्यता भी दोनों के पाश्चात्य साहित्य से अच्छी तरह परिचित होने भर से ही है. वरना अज्ञेय वर्तमान के कथाकार ठहरे और निर्मल अतीत के. इनकी भाषा अलग है, बिम्ब अलग. एक अपने समय के यथार्थ से जूझता है और दूसरा निर्मम पलों के एकाकीपन, असहायता और उदासी से. अतीत के वर्णित दुख की यह छांव ही निर्मल को सबसे अधिक मौलिक बनाती है, और उन्हें उनके रचे दरवेशों, लामाओं, फकीरों और बौद्ध भिक्षुओं के बिलकुल करीब ला खड़ा करती है.
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