पेशे से इंजीनियर स्वाति झा पढ़ने-लिखने की शौक़ीन हैं और नोएडा में रहती हैं.


मेरे दोस्त मुझे प्यार से चुनमुन बुलाते हैं और उनमें से ज्यादातर का ख्याल है कि मेरी आदतों के हिसाब से मेरा नाम चुलबुल होना चाहिए था. दोस्तों की इस राय से घरवाले भी पूरी तरह इत्तेफाक रखते हैं क्योंकि मैं हमेशा शैतानी करने में माहिर रही हूं. जब मैं छोटा बच्चा थी तो अपनी खुराफातों से कई बार मैंने लोगों के होश उड़ाए हैं. अपनी दोनों बड़ी बहनों से कई साल छोटी होने के कारण मुझे घर में सबसे ज्यादा लाड़ मिलता रहा है.

ज्यादा प्यार और देखभाल मिलने के अपने नुकसान हैं. इनके साथ बड़ों की फिक्रमंदी और उसके साथ आपकी कड़ी निगरानी मुफ्त में आती है, जो आपको सबसे ज्यादा चुभती है. मुझे थोड़ी आजादी चाहिए थी लेकिन मम्मी का अनुशासन ऐसा था कि बचपन में वो मुझे एक मिनट के लिए भी नज़रों से ओझल नहीं होने देना चाहती थीं. जरा देर के लिए इधर-उधर हो जाऊं तो घबराहट के मारे उनका ब्लडप्रेशर बढ़ने लगता था. मम्मी के डर की वजह भी मजबूत थी. मेरी पैदाइश के पहले मुझसे बड़ी बहन एक कार एक्सीडेंट में हम सबको छोड़ गई थीं. तब मैं मम्मी के पेट में थी. मेरे आने के बाद से मम्मी को लगता था उन्हें उनकी वही बेटी वापस मिल गई है. तब से मुझे हथेलियों पर उठाए मम्मी हर पल मेरे साथ होती थीं लेकिन मैं ठहरी शैतान कहां मानने वाली थी!

कुछ देर मम्मी के आसपास भी रही लेकिन उनसे कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं हुई. इस बीच वे किचन में घुसीं और मैं दबे पांव रीनू के साथ बाहर खिसक गई

घरवालों की नजरों से गायब होने का यह शैतानी किस्सा तब का है जब मैं 7-8 साल की थी. मेरी एक सहेली थी रीनू. वो अक्सर घर आती और मुझे भी अपने घर चलने को बोलती. मुझे तो मालूम था कि मम्मी कहीं नहीं जाने देगी. मैं हर बार उसकी बात टाल जाती थी मगर एक बार रीनू जिद पर अड़ गई कि आज तो उसके घर चलना ही पड़ेगा. कुछ खिलौने और नमकीन का लालच भी दिया गया मुझे. अब सवाल उसके इतने प्यारे इसरार का था और चटोरी तो मैं हमेशा से थी ही सो मैंने हामी भर दी. प्लान बनाया गया कि स्कूल से छुट्टी के बाद मैं घर जाऊंगी और मम्मी को बताकर रीनू के साथ निकल जाऊंगी.

प्लान के मुताबिक हम घर तो पहुंचे लेकिन आगे की सारी प्लानिंग मैंने उलट-पलट कर दी. मैं घर पहुंची और स्कूल बैग उतार कर रखा. कुछ देर मम्मी के आसपास भी रही लेकिन उनसे कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं हुई. इस बीच वे किचन में घुसीं और मैं दबे पांव रीनू के साथ बाहर खिसक गई.

रीनू के घर पर मिट्टी का छोटा-सा चूल्हा था. यह चूल्हा खास हमारे खेलने के लिए बना था. उस चूल्हे में हमने कागज रखकर आग जलाई और नमकीन को दिये में डालकर खाना बनाया. खाना क्या बना, नमकीन भी पिघल कर बेकार हो गई. अब वहां मैं रीनू के घर खेलने में मगन थी और यहां सारे मोहल्ले में मेरी खोज शुरू हो चुकी थी. मैं रीनू के यहां कभी नहीं जाती थी तो मम्मी इस बात का कोई अंदाजा नहीं लगा पाईं. घर में सब परेशान कि लड़की गई तो गई कहां? इधर शाम हुई और मुझे भी घर लौटने का ख्याल आया. मुझे कुछ-कुछ अंदाजा तो था कि इतनी देर घर में बिना किसी को बताए गायब रहने का मतलब क्या है. दिमाग में फिल्म-सी चल रही थी कि कैसे घर पहुंचने पर मेरी पिटाई होने वाली है.

उस दिन रास्ते में क्या हुआ मैंने किसी को नहीं बताया. एक बार मन किया कि सारी बात पापा को बता दूं और लिपट जाऊं उनसे

घर की ओर चलते-चलते एक मुसीबत और आ धमकी. दरअसल मेरे और रीनू के घर के बीच एक रेल लाइन गुजरती थी. उस पर वही हुआ जो तब नहीं होना चाहिए था. पटरी पर मालगाड़ी खड़ी थी. मालगाड़ी का कोई ठिकाना नहीं होता था. वे यहां अक्सर घंटों खड़ी रहती थीं. हमेशा की तरह उस दिन आम लोग मालगाड़ी के डिब्बों के बीच की जगह से निकलकर पटरी पार कर रहे थे. चूंकि मुझे देर हो रही थी सो मैंने भी यही कोशिश की. दो डिब्बों बीच में जो जोड़ होता है, उसके नीचे से निकल गई. और जैसे ही मैं निकली मालगाड़ी चल पड़ी. यह कुछ ऐसा था कि घर जाने की जल्दबाजी में अगर में तेजी से न निकली होती तो ट्रेन के पहिए में दब ही जाती. मैंने पटरी की दूसरी तरफ निकलकर बमुश्किल दो-ढाई फुट की दूरी से मुड़कर देखा तो मालगाड़ी के पहिए लुढ़कने लगे थे. यह देखकर मैं काफी डर गई और तेजी से घर की तरफ भागी. बाल-बाल बचना क्या होता है, शायद यह सीख मुझे उसी दिन मिली.

घर पहुंची तो माहौल तैयार था. बिना बताए गायब होने के लिए जमकर डांट लगाई गई. मम्मी-पापा ने तो समझा-बुझा कर छोड़ दिया मुझे, लेकिन छोटी दीदी किनारे खींचकर ले गई. वह मुझे लगातार समझाए जा रही थी कि ऐसी हरकतें कितनी खतरनाक हो सकती हैं. दीदी को लग रहा था कि वो मुझे समझा रही है मगर मैं उसके समझाने से भी ज्यादा समझ चुकी थी. मुझे अपने किए पर पछतावा हो रहा था. जो उस दिन मेरे साथ होते-होते रह गया था उसके लिए एक तरफ मुझे जोर से रोना आ रहा था और दूसरी तरफ हंसी भी आ रही थी कि दीदी जो समझा रही है वो तो मैं कब का समझ चुकी हूं.

उस दिन रास्ते में क्या हुआ मैंने किसी को नहीं बताया. एक बार मन किया कि सारी बात पापा को बता दूं और लिपट जाऊं उनसे. हालांकि तब यह बात न मैंने किसी को बताई, न ही मैं रोई. मगर सबक जरूर ले लिया कि अब ऐसी हरकत दोबारा नहीं करूंगी. अब भी जब कभी ट्रेन की सीटी सुनाई पड़ती है, मैं फ्लैशबैक में चली जाती हूं और सोचती हूं कि उस दिन की हरकत मुझ पर कितनी भारी पड़ सकती थी.

(पाठक बचपन से जुड़े अपने संस्मरण हमें mailus@satyagrah.com पर भेज सकते हैं.)