2014 के लोकसभा चुनावों के परिणामों का दिन. मई का महीना. दोपहर का वक्त. तपकर तंदूर बनने को तैयार रेगिस्तान की सूनी सड़कें. सभी लोग टीवी पर आते चुनावी नतीजों पर नजरें गड़ाए हैं. दो बजे के आस-पास खबर आती है कि बीजेपी के उम्मीदवार सोनाराम जीत गए हैं और उसके बागी उम्मीदवार जसवंत सिंह बाड़मेर-जैसलमेर लोकसभा क्षेत्र से तकरीबन एक लाख मतों से चुनाव हार गए हैं. राजस्थान भाजपा के ज्यादातर कार्यकर्ताओं में यह सुनकर खुशी की लहर दौड़ जाती है, एकाध को छोड़कर, जिन्हें याद रहता है कि कभी जसवंत सिंह का मतलब भी उनके लिए भाजपा ही हुआ करता था.
राजस्थान के बाड़मेर जिले के एक छोटे से गांव – जसोल - में जन्मे जसवंत सिंह एक ऐसे नेता थे जो अपने राजनैतिक करियर की शुरूआत से लेकर कोमा में चले जाने तक लगातार सक्रिय रहे. एनडीए सरकार में वित्त, विदेश और रक्षामंत्री रह चुके जसवंत सिंह ने ‘दिल्ली से कई मायनों में बहुत दूर बसे’ देश की पश्चिमी सीमा के एक रेगिस्तानी गांव से दिल्ली के सियासी गलियारों तक का लंबा सफर तय किया.
अजमेर के मेयो कॉलेज से पढ़ाई और फिर कच्ची उम्र में ही आर्मी ज्वॉइन करने के बाद जसवंत सिंह ने 1966 में अपनी नाव राजनीति की नदी में उतार ली. कुछ वक्त तक हिचकोले खाने के बाद इस नाव को सहारा मिला भैरों सिंह शेखावत रूपी पतवार का. इसके बाद 1980 में वे पहली बार राज्यसभा के लिए चुने गए.
जसवंत सिंह को अटल बिहारी वाजपेयी का हनुमान कहा जाता रहा है. एनडीए के कार्यकाल में वे अटल जी के लिए एक संकटमोचक की तरह रहे. 1998 के पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद जब भारत आर्थिक प्रतिबंधों की आंधी में फंसा था तब दुनिया को जवाब देने के लिए वाजपेयी ने उन्हें ही आगे किया था.
कंधार विमान अपहरण कांड के वक्त वे विदेश मंत्री थे. तीन आंतकियों को कंधार छोड़ने भी वही गए थे. अपनी एक किताब में उन्होंने लिखा है कि इस फैसले का आडवाणी और अरूण शौरी ने विरोध किया था. लेकिन मौके पर कोई गड़बड़ न हो इसलिए उनका साथ जाना जरूरी था. वे लिखते हैं कि उन्हें मालूम था कि इस फैसले के लिए उन्हें कई आलोचनाओं का सामना करना पड़ेगा. शुरूआत में जसवंत सिंह भी आतंकियों से किसी भी तरह का समझौता करने के खिलाफ थे. लेकिन बाद में प्रधानमंत्री कार्यालय के आगे बिलखते अपह्रत यात्रियों के परिजनों को देखकर उनका मन बदल गया.
जसवंत सिंह जिन्ना पर लिखी अपनी किताब को लेकर भारतीय जनता पार्टी से निष्कासित किए गये थे. वे अपनी किताब ‘जिन्ना: इंडिया-पार्टीशन, इंडिपेंडेंस’ में एक तरीके से जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट देते नजर आए थे. अपनी किताब में उन्होंने सरदार पटेल और पंडित नेहरू को देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराया था. लेकिन ये बातें भाजपा और आरएसएस की सोच से मेल नहीं खाती थीं. वर्ष 2009 में उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया गया.
2014 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने बाड़मेर-जैसलमेर लोकसभा से टिकट मांगा था. वे अपना अंतिम चुनाव अपनी मायड़ धरती से लड़ना चाहते थे. लेकिन पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया. वे अकेले पड़ गए थे. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा अपने वरिष्ठ नेताओं को किनारे करने की राह पर थी. अटल जी राजनीति से दूर थे और भैरों सिंह शेखावत पहले ही दुनिया से रुखसत हो चुके थे. लाल कृष्ण आडवाणी खुद संघर्ष कर रहे थे. बीजेपी की कमान जिनके हाथों में थी उनमें से कोई ऐसा नहीं था जो उनके साथ खड़ा हो. टिकट दिया गया कुछ ही दिन पहले पार्टी में शामिल हुए कांग्रेसी नेता सोनाराम चौधरी को. इससे जसवंत सिंह समर्थक नाराज हो गए. सोनाराम चुनाव तो जीत गए थे लेकिन उनको टिकट देना भाजपा का बेहद चौंकाने वाला फैसला था. अगर कुछ दिन पहले पार्टी में शामिल हुए नेता को पार्टी टिकट न देती तो उनके समर्थक भी शायद उनपर निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ने का दबाव नहीं डालते.
वसुंधरा राजे को पहली बार राजस्थान की मुख्यमंत्री बनाने में भैरों सिंह शेखावत के साथ-साथ जसवंत सिंह के आशीर्वाद की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. लेकिन बाद में वसुंधरा राजे ने भैरों सिंह को तवज्जो देनी कम कर दी थी. अपने राजनीतिक गुरू का अपमान जसवंत सिंह कैसे सह पाते. इसके अलावा दोनों के बीच रिश्ते खराब होने का एक और कारण वर्चस्व की लड़ाई भी थी. कहा जाता है कि इसी आपसी कलह के कारण वसुंधरा राजे ने भी उनका टिकट कटवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
दोनों के बीच की कड़वाहट यहां तक बढ़ गई थी कि वसुंधरा राजे को देवी के रूप में पूजे जाने पर जसवंत सिंह की पत्नी शीतल कंवर ने धार्मिक भावनाएं आहत करने का केस दर्ज करवा दिया था. इसके कुछ ही दिनों बाद जसवंत सिंह ने अपने पैतृक गांव जसोल में रियाण का आयोजन किया. रियाण में एक-दूसरे को रस्म के रूप में अफीम की मनुहार की जाती है. वसुंधरा के इशारे पर पुलिस ने उनके खिलाफ अफीम परोसने का मामला दर्ज कर लिया था. 2014 के चुनावों में भी उन्हें हराने के लिए वसुंधरा ने खुद को पूरी तरह से बाड़मेर-जैसलमेर में झोंक दिया था.
अपनी विद्वता, अंग्रेजों से भी अच्छी अंग्रेजी और सोच-समझ कर बोलने के अंदाज के कारण जसवंत सिंह हमेशा अपने समय के बाकी नेताओं से अलग दिखाई देते रहे. घुड़सवारी, संगीत, किताबों और अपनी संस्कृति से उन्हें बेहद लगाव रहा. खुद को लिबरल डेमोक्रेट कहने वाले जसवंत सिंह हमेशा विवादों से घिरे रहे लेकिन उनपर कोई भ्रष्टाचार का आरोप कभी नहीं लगा.
उन्होंने अपनी राजनीति अपनी शर्तों पर की. भाजपा में होते हुए भी कभी भी बाबरी प्रकरण या हिंदुत्व के राजनीतिकरण के पक्षधर नहीं रहे. अपने क्षेत्र और पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोगों का उनको जबर्दस्त आत्मीय समर्थन हासिल था. उनके क्षेत्र के सारे मुसलमान उनके पक्षधर रहे. यहां तक कि कांग्रेस के नेता भी जसवंत सिंह के नाम पर पार्टी से अलग हो जाते थे. एक भाजपा नेता के लिए इस तरह का समर्थन विरले ही देखने को मिलता है.
2001 में भारतीय संसद पर हमले के बाद जब सारी राजनीतिक पार्टियां पाकिस्तान के खिलाफ जवाबी कार्रवाई के लिए एकमत थीं - यहां तक कि सेना भी सीमा पर तैनात की जा चुकी थी - उस दौरान जसवंत सिंह पर आरोप लगे कि उन्होंने ऐसा न होने देने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था. उन्हें पता था कि युद्ध से दोनों देशों के रिश्ते कभी सुधर नहीं सकते. मुनाबाव-खोखरापार के बीच थार एक्सप्रेस चलवाकर उन्होंने दोनों देशों के रिश्ते सुधारने की ओर एक कदम बढ़ाया था. एक निजी चैनल पर जब उनसे कहा गया कि वे जिस बस को लेकर लाहौर गए थे पाकिस्तान ने उस बस की हवा निकाल दी तो इसके जवाब में उनका कहना था कि ऐतिहासिक फैसलों पर इतनी हल्की टिप्पणी करना सही बात नहीं है.
उन्होंने कई किताबें लिखी. जिनमें जिन्ना : इंडिया-पार्टीशन, इंडिपेंडेंस, इंडिया एट रिस्क और डिफेंडिंग इंडिया चर्चित किताबें हैं. इंडियन एक्सप्रेस में उनके लिखे आलेखों पर छपी किताब डिस्ट्रिक्ट डायरी को पढ़कर उनका तमाम चीज़ों से जुड़ाव नजर आता है. इस किताब में उनकी कुछ कहानियां आपका दिल छू लेती है.
1980 में जो जसवंत सिंह की जो नाव राजनीति की नदी में चलना शुरू हुई थी वह देश को कई मसलों पर किनारे लगाकर 2014 में एक भंवर में फंस गई. पिछले लोकसभा चुनाव के कुछ दिन बाद वे अपने घर के बाथरूम में गिर गए. तभी से वे लगातार कोमा में थे. भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच शांति का उनका सपना भी अभी अधूरा ही है. इसे लेकर कभी उन्होंने कहा था - भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक ही मां की सिजेरियन प्रसव से पैदा हुई संतानें हैं.
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