संजय लीला भंसाली कभी मुझे बहुत प्रिय नहीं रहे. उनकी फिल्में अक्सर मुझे भव्यता से आक्रांत और इसलिए किसी वास्तविक कलात्मक अनुभव से कुछ दूर जान पड़ती हैं. हालांकि ऐसे बहुत सारे लोग हैं जिनकी निगाह में वे बड़े और संवेदनशील फिल्मकार हैं. मगर मुझे वे अंततः रोमानी फिल्मों के निर्देशक लगते हैं जिनमें यथार्थ बस एक झीनी पृष्ठभूमि की तरह उपस्थित रहता है. अगर उनके शिल्प को याद रखें तो अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि अलाउद्दीन खिलजी और पद्मावती पर बन रही अपनी फिल्म में कुछ सुंदर और भावपूर्ण दृश्यों और स्थितियों की रचना के लिए वे बस इतिहास की ऐसी ज़मीन का इस्तेमाल कर रहे होंगे जो ठोस तथ्यों से ज़्यादा रूमानी कल्पनाओं को जन्म देती हो.

लेकिन पिछले शुक्रवार को इस फिल्म की शूटिंग के दौरान जो दृश्य बना, वह संजय लीला भंसाली की कलावादी रूमानियत से नहीं, अनुराग कश्यप के क्रूर यथार्थवाद से उपजा हुआ लग रहा था. इतिहास और संस्कृति की रक्षा के नाम पर किसी अनजान संगठन के कुछ तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता उस निर्देशक के बाल खींच रहे थे जिसने अपने ढंग का ऐसा फिल्मी मुहावरा बनाया है जिसे ‘ब्लैक’, ‘देवदास’, ‘गुज़ारिश’ या ‘बाजीराव मस्तानी’ जैसी फिल्मों की मार्फत बहुत सारे लोग बहुत शिद्दत से पसंद करते हैं.

एक अनजान संगठन के कुछ मुट्ठी भर लोगों के भीतर यह हिम्मत कहां से पैदा होती है? क्या उस संरक्षण भाव से नहीं, जो सरकारें उन्हें चुपचाप नहीं, बल्कि खुलेआम दिया करती हैं?   

क्या यह हमला सिर्फ संजय लीला भंसाली और उनकी ऐतिहासिक समझ पर था? संभव है, संजय लीला भंसाली की ऐतिहासिक समझ बहुत गहरी न हो. संभव है, वे अलाउद्दीन खिलजी और पद्मावती को लेकर वाकई एक ऐसी फिल्म बनाने का दुस्साहस कर रहे हों जो बहुत सारे लोगों की स्मृति से पैदा बोध पर एक चोट करती हो. उन्हें ऐसी फिल्म बनाने का हक है या नहीं, इस पर बहस हो सकती है.

लेकिन इस बात पर बहस नहीं हो सकती कि जिन लोगों ने उनके बाल खींचे, उन्हें थप्पड़ लगाया उन्हें ऐसा कुछ भी करने का हक़ नहीं था. उन्होंने सीधे-सीधे एक अपराध किया जिसे कोई भी स्वस्थ और संवेदनशील व्यवस्था स्वीकार नहीं कर सकती. इस अपराध के बाद उन्होंने संजय लीला भंसाली के साथ बैठक भी की, उन पर शूटिंग टालने का दबाव बनाया. यही नहीं, उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अपना तथाकथिक ‘पक्ष’ रखने की ‘लोकतांत्रिक उदारता’ दिखाई.

एक अनजान संगठन के कुछ मुट्ठी भर लोगों के भीतर यह हिम्मत कहां से पैदा होती है? क्या उस संरक्षण भाव से नहीं, जो सरकारें उन्हें चुपचाप नहीं, बल्कि खुलेआम दिया करती हैं? इनके हाथों जो लोग पिटे, जिनका नुक़सान हुआ, उनके भीतर असुरक्षा बोध इतना गहरा है कि वे पुलिस में एक शिकायत तक नहीं करा पा रहे. पुलिस बड़ी मासूमियत से कह रही है कि पहले उसके पास कोई शिकायत पहुंचे तब वह कार्रवाई करेगी.

असली ख़तरा यही है. सरकारी संरक्षण के भरोसे के साथ यह करणी सेना और ऐसी कई सेनाएं पूरे देश में अपनी तथाकथित भावनाओं के डंडे लिए तैयार बैठी हैं. कहीं लड़की पब में चली जाती है तो वह डंडा चलाना शुरू कर देती है. कोई वेलेंटाइंस डे मनाना चाहता है तो उनकी संस्कृति को ठेस पहुंचती है. कोई ऱाष्ट्रगान पर खड़ा नहीं होता तो वह कानून संभालने का ज़िम्मा अपने हाथ में ले लेती है. किसी फिल्म में सरहद पार के नायक काम करते हैं तो वह फिल्म बनाने वालों को गद्दार घोषित कर देती है. और तो और, नोटबंदी के बाद कतार में खड़े लोग अपनी तकलीफ बयान करते हैं तो वह उन्हें भी देशद्रोही करार देती है. कोई किसी मंच से इस असहिष्णुता की शिकायत करता है तो उसे उसका मज़हब याद दिलाती है और उसे पाकिस्तानी बता डालती है. और जो लेखक ख़ुद को मिले मामूली से पुरस्कार वापस करने का गलत या सही फ़ैसला करते हैं, उन्हें ‘पुरस्कार वापसी गैंग’ बताकर इस तरह पेश करती है जैसे सारी गड़बड़ियों के ज़िम्मेदार यही लोग हैं.

इतिहास का हम कितना सम्मान करते हैं, यह हमारी सांस्कृतिक-ऐतिहासिक धरोहरों के रखरखाव में हमारी उपेक्षा से लेकर अपनी परंपरा और संस्कृति के प्रति हमारी हीनभावना जैसी बातों से बार-बार उजागर होता है.  

ऐसे माहौल में कविता लिखना, चित्र बनाना, गीत गाना- कुछ भी खतरनाक और डरावना हो सकता है. या तो आप ऐसे संरक्षण प्राप्त गिरोहों के सामने घुटने टेकें, उनके समझौता करने की जिल्लत झेलें, अपनी फिल्म की पटकथा में उनके द्वारा किए गए फेरबदल को मान लें या फिर अपना लिखना-पढ़ना, सोचना और असहमति जताना बंद करके ख़ामोश बैठे रहें. पिछले साल दिल्ली और अजमेर मिला कर कुल तीन आयोजनों में मुझे मौजूदा व्यवस्था की आलोचना पर सभा के भीतर इतना हंगामा झेलना पड़ा कि लगा कि कार्यक्रम रद्द करने की नौबत आ आएगी. कार्यक्रम बस इसलिए चलता रहा कि हुड़दंगियों का इरादा बस अपनी उपस्थिति जता कर यह सुनिश्चित करने का था कि कोई उनकी विचारधारा के ख़िलाफ़ कुछ न बोले.

यह स्थिति पूरे देश में है. एक बहुत उद्धत किस्म का अनपढ़ तबका राजनीति, विचारधारा, इतिहास, देश- सब कुछ पर अपने कुछ बने-बनाए पूर्वग्रहों की रक्षा में जुटा है. लेकिन यह तबका किसी शून्य से नहीं उपजा है, उसे बाक़ायदा नफ़रत और हिंसा की घुट्टी पिला-पिला कर पाला-पोसा और तैयार किया गया है. उसे न समाज की फ़िक्र है न स्त्री की और न ही सम्मान की. वह बाजू फड़फड़ाता हुआ और गालियां बकता हुआ आता है और बिल्कुल पाशविक शक्ति से आप पर वार करता है, फिर आपको सभ्यता और संस्कृति का उपदेश देता है, आप अगर उसे सुन लेते हैं तो आपकी पीठ थपथपाता हुआ अपनी सहिष्णुता का प्रदर्शन करता है. लेकिन इतने भर तूफान से आपकी रचनात्मक सहजता जैसे नष्ट हो जाती है.

इसलिए यह हमला संजय लीला भंसाली पर नहीं है. यह पहला हमला भी नहीं है. यह लगातार जारी है और हमारे विवेक और संवेदन को इस तरह तनावग्रस्त कर रहा है कि हम उसकी शर्तों पर, संभल कर, लिखने-पढ़ने, कुछ व्यक्त करने के रास्ते खोजने लगे हैं. हम गुंडों को गुंडा लिखने से डरते हैं और सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं- क्योंकि वे सड़क से लेकर अदालत तक हमारी ऐसी-तैसी कर सकते हैं. ज़्यादा दिन नहीं हुए, कन्हैया कुमार को इसी तबके ने पुलिस हिरासत के बावजूद सड़क पर भी पीटा था और अदालत के भीतर भी. कन्हैया ने शिकायत की, लेकिन उस पर कुछ नहीं हुआ.

हम गुंडों को गुंडा लिखने से डरते हैं और सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं- क्योंकि वे सड़क से लेकर अदालत तक हमारी ऐसी-तैसी कर सकते हैं

संजय लीला भंसाली के प्रसंग पर लौटें. उनकी फिल्म की पटकथा किसी ने देखी नहीं है. बताया जा रहा है कि वे कोई ‘ड्रीम सीक्वेंस’ फिल्माते हुए पीट दिए गए- इस तर्क पर कि वे लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हैं. लेकिन क्या भंसाली या उन जैसा कोई भी कारोबारी फिल्मकार यह जोखिम मोल ले सकता है कि वह इस देश की एक बहुत बड़ी आबादी को नाराज करके- उसकी भावनाओं को ठेस पहुंचा कर- फिल्म बना और चला ले? इतिहास या सच्चाई के तकाज़े से नहीं, बस अपनी फिल्म की कारोबारी मजबूरी में ही किसी संजय लीला भंसाली में इतनी हिम्मत नहीं होगी. ज़्यादा से ज़्यादा वह इसमें अपनी ओर से कुछ कल्पनाशीलता फेंट रहे होंगे ताकि फिल्म में कुछ मसाला जोड़ा जा सके. अगर वे खिलजी और पद्मावती की कहानी में ऐसे बदलाव कर डालते हैं जिन्हें जनता मंज़ूर नहीं करती तो उनकी फिल्म अपने-आप फ्लॉप हो जाएगी. कला-संस्कृति और साहित्य की दुनिया में- या शायद किसी भी दुनिया में- अस्वीकार और असफलता से बड़ा दंड कुछ नहीं होता- खासकर सिनेमा में, जहां इन दिनों करोड़ों नहीं अरबों रुपये लगे होते हैं.

जहां तक इतिहास का सवाल है, दुर्भाग्य से हम उसका और कम सम्मान करते हैं. यह बात हमारी सांस्कृतिक-ऐतिहासिक धरोहरों के रखरखाव में हमारी उपेक्षा से लेकर अपनी परंपरा और संस्कृति के प्रति हमारी हीनभावना तक बार-बार उजागर होती है. हमें जातिवाद शर्मिंदा नहीं करता, भ्रष्टाचार शर्मिंदा नहीं करता, सांप्रदायिकता शर्मिंदा नहीं करती, अवैज्ञानिकता भी शर्मिंदा नहीं करती. हम बड़े सवालों और संकटों का सामना नहीं कर पाते- तो बस निरी प्रतीकात्मकता के रक्षण के नाम पर एक संजय लीला भंसाली को पीट देते हैं. दुर्भाग्य है कि यह ख़तरनाक पटकथा इन दिनों संघ परिवार की विचारधारा में भरोसा रखने वाले संगठनों और सरकारों के नेतृत्व में कुछ ज़्यादा लिखी जा रही है- हमें डराती हुई कि अगर हमने असहमति का अनादर दिखाया तो हमारा भी वही हाल होगा जो किसी भंसाली का हुआ. भंसाली के मुद्दे पर ख़ामोश रहने का एक मतलब तो यह निकलेगा कि हम अपने डर के ख़िलाफ़ खड़े होने में भी डर रहे हैं.