पुस्तक अंश : ‘मुझे इस वक़्त उस चरवाहे की वो इच्छाशक्ति याद आ रही थी, जो इतनी दुरूह जगह पर बस इसलिए महीनों गुजार सकता है कि अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ा सके... वो मज़दूर याद आ रहा था, जो बर्फ़ के ग्लेशियर के किनारे सूखी ज़मीन पे बैठा अपनी चोट के बारे में बताते हुए आकाश से भी गहरी उदासी उस सन्नाटे में बिखेर रहा था. उस खच्चर के चेहरे की वो तनती नसें याद आ रही थीं जो भारी बोझ लादे खड़ंजा चढ़ रहा था... इतनी बड़ी प्रकृति के एक बिंदु मात्र हिस्से-सा मैं. आंखें बंद की. पूरी दुनिया उस अंधेरे में एक पल को कहीं खो गई. फिर चेहरे पर पड़े ठंडी हवा के तेज़ झोंके ने जैसे सारे ख़्यालों को मांज दिया हो. अपना पुराना ‘मैं’, आदि कैलास पर्वत की उन ऊंचाइयों में छोड़ दिया था मैंने. जो यहां जाता है, वो नया होकर लौटता है. पर लौटता है वहीं, जहां से वो पुराना-सा चला था. अपने पुरानेपन में नया होकर लौटना था मुझे.’

किताब : इनरलाइन पास
लेखक : उमेश पंत
प्रकाशन : हिन्द युग्म
कीमत : 115 रुपये
सीखने के लिए किताबें, स्कूल, गुरू और अब तो इंटरनेट भी है लेकिन प्रकृति से बढ़कर गुरू कोई नहीं. यह अलग बात है कि कुछ के हिस्से में इस महागुरू का साथ नहीं होता, और कुछ को इस गुरू का कहा सुनने और सीखने का हुनर नहीं होता. दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी लोग होते हैं, जिन्हें प्रकृति से सीखने में ज्यादा आनंद आता है. घुमक्कड़ ऐसे ही किस्म के लोग होते हैं जो प्रकृति और दुनिया-जहान को अपनी पाठशाला मानते हैं. वे जितना जानना चाहते हैं, उतना घूमते जाते हैं. ‘इनरलाइन पास’ एक ऐसे ही नए-नए घुमक्कड़ बन रहे युवा उमेश पंत का यात्रा-संस्मरण है.
उमेश ने इस किताब में ‘आदि कैलास और ओम पर्वत’ की 200 किलोमीटर से ज्यादा चली अपनी अठारह दिनों की पैदल यात्रा का वृतांत दर्ज किया है. घुमक्कड़ी के बारे में बात करते हुए उमेश लिखते हैं, ‘इसे ज़रूरतों को लांघकर, कंफ़र्ट ज़ोन से बाहर निकलकर, जीवन की दुरूहता से जूझने और अपनी क्षमताओं को आंकने की यात्रा भी कहा जा सकता है, या फिर उसे पाने की यात्रा जिसे आप सबसे ज़्यादा चाहते हैं. घुम्मकड़ी किसी ऐसे प्रेमी से मनभर मिल आना है, जो आपका कभी नहीं हो सकता. कुछ देर उसे पाकर आपको लौट आना होता है; अपनी तल्ख़ सच्चाइयों की तरफ़; पैसा, करियर और दुनियादारी के बंधनों की तरफ़. इन सारे बंधनों को कुछ देर के लिए पूरी तरह भूलकर उस अज्ञात प्रेमी के माथे पर रख दिया गया एक मासूम-सा चुंबन है - घुमक्कड़ी.’
किताब पढ़ना शुरू करते ही वह उत्साह मन में भरने लगता है, जो कि यात्रा पर निकलने से पहले महसूस होता है. उमेश एक अच्छे किस्सागो की तरह सबसे पहले तो उस दिल्ली के बारे में ही बड़ी छूने वाली बात कहते हैं, जहां से उन्होंने यात्रा शुरू की और जहां लौटकर भी आना था, ‘दिल्ली जैसे शहरों की यही बात मुझे कभी-कभी बहुत अच्छी लगती है. यहां अजनबी होकर भी जिया जा सकता है. पर कभी-कभी इसी बात से डर भी लगता है. आप कितना भी वक़्त इस शहर में गुज़ार लें, यह आपको उसी अजनबियत के भाव से देखता है, लगातार बदल जाते लोगों की नज़रों से. इस शहर ने जैसे अपनी नज़रें ही बंद कर ली हों. आपकी ख़ुशी में, दुख में, उत्सवों में, मातमों में, यह हर वक़्त एक-सा रहता है. एकदम रूखा और उदासीन. इसे न आपकी भावनाओं में दख़ल देना पसंद है, न उसमें शरीक़ होना. पर, फिर भी इससे एक बार बना रिश्ता इतनी आसानी से ख़त्म भी तो नहीं होता. यह शहर एक ऐसे प्रेमी की तरह लगता है, जिससे एकतरफा प्यार करने को आप अभिशप्त हों. मैं कई बार चाहता हूं कि कोई अजनबी मेरी ओर देखकर बस यूं ही मुस्कुरा दे. बेवजह. पर बेवजह कुछ भी करना जैसे भुला देता है यह शहर.’
इस किताब में उमेश ने 15 पड़ावों में पूरी यात्रा का वर्णन किया है. पहाड़ी जिंदगी की मुश्किलें, वहां के लोगों की ईमानदारी और निश्छल प्रेम, बिना किसी इच्छा के मदद करने का जज्बा, सबके बारे में यह किताब बताती चलती है. पहाड़ी में बसने वालों की पहाड़-सी विशाल और मजबूत जिजीविषा का कायल होते हुए लेखक लिखता है, ‘इस पूरे इलाक़े के पहाड़ कितने संवेदनशील हैं. कोई तेज़ बारिश कब पूरे इलाक़े के भूगोल को बदल दे, यहां यह कहना बहुत मुश्किल है. इस लिहाज़ से देखें तो इन इलाक़ों का जनजीवन मृत्यु और आपदाओं से घिरा हुआ है. न जाने वो कौन सी जिजीविषा है कि यहां के लोग आज भी अपनी ज़मीन से जुड़े हैं! अपनी धरती से प्यार है या फिर किसी क़िस्म की मजबूरी, यह जो भी है, कोई बहुत मज़बूत भावना है. इतनी मज़बूत कि पहाड़ दरक जाते हैं और यह भावना तब भी नहीं दरकती.’
‘इनरलाइन पास’ एक तरह का सरकारी दस्तावेज या आज्ञापत्र होता है, जिसके बिना भारत सरकार देश की अंतराष्ट्रीय सीमाओं से लगे कुछ खास संरक्षित इलाकों में लोगों को जाने की अनुमति नहीं देती. लेखक ने दुनिया की सबसे ऊंचाई पर मौजूद बसाहटों में रहने वाले, ‘शौका’ और ‘रंग’ समुदाय के मूल निवास दारमा घाटी के कुछ हिस्सों और ब्यांस घाटी के लोगों के रिवाजों पर भी अपना संस्मरण दर्ज किया है.
ब्यांस घाटी की ऐसी ही एक परंपरा को पढ़कर हम जान सकते हैं कि यह पश्चिम के ‘लिव-इन’ से भी कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक और प्रगतिशील है. बल्कि इस मामले में ज्यादा स्वस्थ है कि इसमें माता-पिता भी शामिल हैं. इस बारे में उमेश जानकारी देते हैं, ‘गांव में एक अलग कमरा होता था, जिसे रंग-बंग की जगह या रंगबांकुरी कहा जाता था. जहां युवा लड़के और लड़कियां सूर्यास्त के बाद जमा होते थे. सभी कुंवारे वयस्क युवक और युवतियां सज-धजकर यहां आते और रातभर पीना, गाना, और नाच चलता. मांएं अपनी लड़कियों को अपने हाथों से अच्छे से सजातीं और उन्हें रंग-बंग में भेजतीं. बिना पुजारी, शालिग्राम, बेदी या पंजीकरण के, जो जिसके प्यार में पड़ जाता, उसका दूल्हा-दुल्हन बन जाता. जो लड़की, जिस लड़के को चुनती, वो उससे उपहार स्वरूप अंगूठी लेती. वो अपने अभिभावकों को इसकी जानकारी देती. और फिर किसी रात लड़का, लड़की को लेकर घर से भाग जाता और बाद में शादी की प्रथा होती.’
कुल मिलाकर ‘इनरलान पास’ पाठकों को पहाड़ों की हरियाली, सन्नाटे, सुंदरता और पहाड़ी लोगों की निश्छल मासूम मिजाज से परिचित कराती है. प्रकृति की खूबसूरती और विध्वंस दोनों का रोमांच इस किताब में मौजूद है. पाठक यात्रा के अलग-अलग चरणों में लेखक के साथ यात्रा करते हैं, उसके रोमांच में रोमांचित होते हैं और उसके खौफ में भयभीत भी. यात्रा संस्मरण पढ़ने के शौक रखने वालों के लिए एक अच्छी और प्यारी किताब है ‘इनरलाइन पास’. उमेश ने जितने दिल से यात्रा की होगी, उस यात्रा के रोमांचक किस्सों को उतनी ही खूबसूरती से लिखा भी है.
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