‘एमजीआर नहीं रहे.’

उनके लिए यह भौंचक कर देने वाली खबर थी. एक बड़ा धक्का था. वे उन्हें बीच मझधार में छोड़कर चले गए थे. उन्होंने हड़बड़ी में तुरंत ड्रा्इवर को बुलाया और एमजीआर (मरुदुर गोपालन रामचंद्रन) के घर ‘रामवरम गार्डन’ के लिए निकल पड़ीं. लेकिन जैसे ही वे वहां पहुंची, उन्हें भीतर जाने से रोक दिया गया. सो, वे बदहवास सी कार से निकलीं और मुक्का मारते हुए दरवाजे से भिड़ गईं. इससे आखिरकार दरवाजा तो खुल गया लेकिन भीतर मौजूद लोगों में से कोई भी उन्हें यह नहीं बता रहा था कि पार्थिव देह (एमजीआर की) कहां रखी है. वे बाहर-भीतर, सीढ़ियों से ऊपर-नीचे दौड़ रही थीं. हर कमरे में जाकर देख रही थीं. मगर हर कमरे का दरवाजा उनके मुंह पर धड़ाम से बंद कर दिया जाता था. कोशिश ये थी कि उन्हें किसी भी तरह से उस शख्स की अंतिम एक झलक तक न मिल सके जो सिर्फ उनका मार्गदर्शक ही नहीं बल्कि भावनात्मक रूप से भी उनके बेहद नजदीक था.


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इसी बीच, किसी ने उन्हें बता दिया कि पार्थिव देह को पिछले दरवाजे से बाहर निकालकर राजाजी हॉल की तरफ ले जाया जा रहा है. इतना सुनते ही वे दौड़ी-भागी अपनी कार तक पहुंचीं और ड्राइवर को राजाजी हॉल की तरफ चलने को कहा. राजाजी हॉल में वे हवा के तेज झोंके की तरह भीड़ को चीरते हुए भीतर दाखिल हुईं और एमजीआर की देह के सिरहाने जाकर खड़ी हो गईं. एमजीआर एकदम शांत लेटे हुए थे. साफ-सुथरी पूरी बांह की शर्ट, फर की टोपी और काला चश्मा पहने हुए. यही तो उनकी पसंदीदा ड्रेस हुआ करती थी.

शारीरिक थकावट तो जैसे उनकी इच्छाशक्ति के सामने हार मान चुकी थी और एमजीआर को श्रद्धांजलि देने के लिए वहां पहुंचने वाले उन्हें देखकर आश्चर्यचकित थे.  

कल्पना ही की जा सकती है कि उस पर क्या बीत रही होगी जिसके सामने उसके आराध्य की देह बेजान पड़ी थी. वह शख्स जिसने संध्या (जयललिता की मां) से वादा किया था कि वह उसकी प्यारी अम्मू (जयललिता) का ख्याल रखेगा. लेकिन उस व्यक्ति को इस हाल में देखकर भी उनकी आंख से आंसू का एक कतरा तक नहीं गिरा. वे रोई नहीं बल्कि स्तब्ध सी वहीं, पार्थिव देह के सिरहाने खड़ी रहीं. दो दिन तक. पहले दिन लगातार 13 और दूसरे दिन आठ घंटे तक. शारीरिक थकावट तो जैसे उनकी इच्छाशक्ति के सामने हार मान चुकी थी और एमजीआर को श्रद्धांजलि देने के लिए वहां पहुंचने वाले उन्हें देखकर आश्चर्यचकित थे.

लेकिन इन दो दिनों के दौरान उनके लिए शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना दूसरी तरफ से आई थी. जानकी (एमजीआर की पत्नी) की कई महिला समर्थक उनके पास आकर खड़ी हो जाया करती थीं. अपने पैरों से उनके पैर कुचलतीं. उन्हें नोच देतीं, ताकि किसी तरह उन्हें वहां से हटाया जा सके. मगर वे अपनी जगह से टस से मस न हुईं. अपनी प्रतिष्ठा पर लगातार हो रही चोट को बर्दाश्त करती रहीं, अपमान सहती रहीं. आसपास क्या हो रहा है, कौन उनके साथ किस तरह पेश आ रहा है, इस सबसे जैसे वे पूरी तरह बेखबर थीं.

हालांकि एक सवाल था, जो लगातार उनके दिमाग में कौंध रहा था कि अब आगे क्या होगा? वे 38 साल की थीं और अब एकदम अकेली भी. वह व्यक्ति, जो उज्जवल भविष्य का वादा कर उन्हें राजनीति में लाया था, अब उनको बीच रास्ते में छोड़कर जा चुका था. उस शख्स की एक झलक पाने के लिए इस वक्त उन्हें संघर्ष करना पड़ रहा था. पार्टी का कैडर उन्हें अपने जिस प्रिय नेता का उत्तराधिकारी मान चुका था, आज वे उसी की देह के सिरहाने ऐसे खड़ी थीं, जैसे उनका कोई अस्तित्व ही न हो. लेकिन हार मान लेना जैसे उनके भी स्वभाव में नहीं था.

एमजीआर की पार्थिव देह को अब तोपगाड़ी पर रखा जा रहा था ताकि उसे अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जा सके. वे पीछे-पीछे तोपगाड़ी तक गईं और उसमें चढ़ने की कोशिश करने लगीं. सुरक्षा में तैनात एक सैनिक ने उन्हें हाथ बढ़ाकर ऊपर चढ़ने में मदद की. अभी वे गाड़ी में चढ़ी ही थीं कि अचानक उन्हें पीछे से कुछ नाराज लोगों की आवाजें सुनाई थीं. पलटकर देखा तो पार्टी विधायक डॉक्टर केपी रामलिंगम गुस्से में उनकी तरफ बढ़ रहे थे. वे कुछ समझ पातीं कि तभी अचानक उनके माथे पर जोर की चोट लगी. यह जानकी के भतीजे दीपन थे जिन्होंने न सिर्फ उन पर हाथ चलाया बल्कि उन्हें धक्का देकर तोपगाड़ी से नीचे भी गिरा दिया. उन्हें चोट आ गई थी और अपमान तो ऐसा हुआ था जिसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता. दीपन और रामलिंगम ने उनके साथ सिर्फ बेहूदा बर्ताव नहीं किया था बल्कि उन्हें ‘वेश्या’ तक कह डाला था. इस बेइज्जती के बाद उन्होंने तय किया कि वे एमजीआर की आखिरी यात्रा और अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होंगी. सो, वे अपनी कॉन्टेसा कार से कुछ सैनिकों की सुरक्षा में अपने घर को लौट गईं.

दीपन और रामलिंगम ने उनके साथ सिर्फ बेहूदा बर्ताव नहीं किया था बल्कि उन्हें ‘वेश्या’ तक कह डाला था. इस बेइज्जती के बाद उन्होंने तय किया कि वे एमजीआर की आखिरी यात्रा और अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होंगी 

उनके अपमान की सूचना जंगल की आग की तरह फैली. पार्टी कैडर भी इस घटना से सदमे में था. उनके समर्थक कई नेताओं-कार्यकर्ताओं के मन में इस घटना के प्रति गुस्सा था. इनमें कई विधायक और सांसद भी शामिल थे. वे लगातार उन्हें देखने, उनका हाल-चाल जानने के लिए उनके पास आ रहे थे. उनमें कइयों ने कसम खाई कि एमजीआर के राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर वे उनका ही साथ देंगे. बहुतों ने खुले तौर पर कहा भी, ‘हमें एक करिश्माई नेता चाहिए और जयललिता ही इकलौती नेता हैं, जिनके पास वह करिश्मा है.’ इसके बाद वे पूरी तरह आश्वस्त हो गईं कि एमजीआर ने भले ही उन्हें राजनीतिक उत्तराधिकारी न बनाया हो लेकिन कार्यकर्ताओं में उनका समर्थन कायम है. वे लोग उनके पक्ष में ही फैसला करेंगे. हालांकि इस वक्त तुरंत चुनाव की जरूरत नहीं थी. एआईएडीएमके (अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) ने अच्छे बहुमत से पिछला चुनाव जीता था. अगले चुनाव के लिए भी अभी दो साल बाकी थे.

इसी बीच, पता चला कि पार्टी के 97 विधायकों ने उस सहमति पत्र दस्तखत किए हैं जिसमें जानकी की दावेदारी को समर्थन दिया गया है और यह पत्र राज्यपाल एसएल खुराना को भी सौंप दिया गया है. बहुमत का समर्थन देखते हुए राज्यपाल ने भी सात जनवरी 1988 के दिन जानकी को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी. बहुमत साबित करने के लिए उन्हें 28 जनवरी तक का वक्त दिया गया.

उस रोज विधानसभा में भारी उपद्रव हुआ. विधानसभा के अध्यक्ष खुले तौर पर मुख्यमंत्री जानकी और उनकी सरकार के समर्थन में आ गए. नियमों की धज्जियां उड़ाए जाने पर कई विधायकों ने खुलकर एतराज जताया और अपना गुस्सा भी. मगर सदन की कार्यवाही चलती रही. तभी अचानक कुछ गुंडे सदन के भीतर घुस आए और जयललिता समर्थकों और कांग्रेस विधायकों के साथ मारपीट करने लगे. इसी दौरान किसी ने पुलिस को खबर कर दी. जिसके बाद तमिलनाडु विधानसभा के इतिहास में पहली बार सदन के भीतर पुलिस घुसी और उसे उपद्रव कर रहे विधायकों पर लाठी चार्ज तक करना पड़ा. लेकिन विधानसभा अध्यक्ष जैसे इस सबसे बेअसर थे. उन्होंने ऐलान कर दिया कि जानकी सरकार ने बहुमत हासिल कर लिया है.

विधानसभा में हुए इस बवाल की जब जयललिता को खबर लगी तो उन्होंने थोड़ा समय गंवाना भी उचित नहीं समझा. उन्होंने तुरंत बयान जारी किया कि लोकतंत्र की हत्या की जा चुकी है और राज्यपाल को मामले में दखल देते हुए तुरंत जानकी सरकार को बर्खास्त करना चाहिए. जयललिता समर्थक एआईएडीएमके और कांगेस विधायकों ने भी विरोध करते हुए राज्यपाल से मुलाकात की. सदन के भीतर क्या-कुछ हुआ था, उन्हें विस्तार से जानकारी दी. इसके बाद राज्यपाल ने केंद्र सरकार को भेजी रिपोर्ट में आपातकालीन स्थितियां बताते हुए राज्य में राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा कर दी. इसे केंद्र ने तुरंत मंजूर भी कर लिया.

अपने राजनीतिक करियर में जयललिता जिस अहम पड़ाव पर पहुंचना चाहती थीं, वह उनकी उम्मीद से पहले ही आ चुका था.

(जगरनॉट बुक्स से प्रकाशित पुस्तक ‘अम्मा: जयललिताज जर्नी फ्रॉम मूवी स्टार टु पॉलिटिकल क्वीन’ के अनुवादित अंश. दिवंगत जयललिता की यह जीवनी तमिलनाडु की जानी-मानी लेखिका वासंती ने लिखी है.)