नानाजी देशमुख यानी विचारबद्ध (या विचारणीय?) लोगों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ऊंचे ऑपरेटर. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी एक फासिस्ट हिंदू संगठन. ठप्पा लगाकर आदमी और संगठन को इस तरह एक खाने में डाल देने में हमारे विचारबद्ध लोगों को बड़ी आसानी है. वे दुनिया को काले या धौले में देखते हैं. उन्हें सूरज की किरणों में सात रंग और उनसे बनने वाले सात सौ शेड्स देखने-समझने की तकलीफ नहीं उठानी पड़ती. दुनिया और लोगों को काले और धौले में बांट लेने से बुद्धि को कष्ट नहीं देना पड़ता.
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वह भी है और काम का है और उसके अलावा भी है और वे भी काम के हैं. अपने को हमेशा किसी के खिलाफ, किसी से हमेशा संघर्षरत और किसी को मिटाकर धूल में मिला देने में लगे लोगों को ऐसा उदार सर्वग्राही दृष्टिकोण स्वीकार भी नहीं होता. लेकिन संसार में सबसे ज्यादा अनुभव सिद्ध हमारे समाज ने जाना है कि दुनिया को परस्पर विपरीत और विरोधी संघर्षरत खेमों में बांटकर एक दूसरे के नष्ट करने में ही लगे रहने से नया समाज तो खैर नहीं ही बनता, पुराने की भी लगातार दुर्गत होती रहती है.
इसलिए हम भारतीयों ने खुद को और दुनिया को अंतर्विरोधों से ध्वस्त करने के बजाय उन्हें साधने की तपस्या की. टिके रहने का डारविनीय सिद्धांत अगर लगाया जाए तो भारतीय समाज को तो कभी का नष्ट हो जाना चाहिए था. हमारा समाज है और हमेशा फिटेस्ट रहा है ऐसा दावा तो किसी घनघोर पुनरुत्थानपंथी हिंदू ने भी नहीं किया है. अकबर इलाहाबादी ने किसी और संदर्भ में कहा है लेकिन सही कहा है कि डार्विन साहब हकीकत से निहायत दूर थे. डार्विन साहब की जिन संतानों ने रिओ में पृथ्वी सम्मेलन किया वे भी सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट की हकीकत जान चुके हैं.
अंतरविरोधों की साधना करने वाले जानते हैं कि काले और धौले के बीच अनगिनत रंगों की छायाएं होती हैं और उन्हें देख सकने के लिए आंखों को तार की तरह खूब बारीकी से मिलाना पड़ता है. जैसे सुरों, तानों और लयों को पकड़ने के लिए कानों को तैयार करना पड़ता है. वाद का ठप्पा रोडरोलर की तरह विचारों की कोमल दूब को कुचलता जाता है. इस ठप्पेबाजी से बचना चाहिए. विचारधारा का सबसे कड़ा आग्रह करने वाले साम्यवादियों और आर्यसमाजियों (जिनकी संतानें भाजपा और संघ में ही नहीं कांग्रेस और दूसरी पार्टियों में भी पाई जाती हैं) सबसे ज्यादा वाद-विवाद चलाए और ठप्पेबाजी की. साम्यवादी सभी धार्मिक कट्टरपंथियों के खिलाफ रहे हैं क्योंकि वे भी विचारबद्ध कट्टरपंथी हैं. यह देश न साम्यवादी राज्य हुआ, न हिंदू राष्ट्र बना तो इसीलिए कि यह अंतरविरोधों को साधने वाला देश है.
मोहनदास करमचंद गांधी अगर ज्यादा से ज्यादा भारतीयों को मान्य होकर महात्मा गांधी हुए तो इसलिए कि अपने चारों दरवाजे और सभी खिड़कियां खुली रखने और दुनियाभर की हवाओं को आने-जाने देकर भी वे अपनी धरती में जड़ें जमाए रहे. उनकी शक्ति का स्रोत उनकी लोक संग्रह वृत्ति में था. जो एक दूसरे को फूटी आंखों ने सुहाएं और मौका लगे तो फाड़ खाएं ऐसे अनगिनत लोगों को गांधी ने अपने से जोड़ा. उन से योग्यता और क्षमताभर काम लिया और उन्हें आखिर कुछ न कुछ बनाकर ही छोड़ा. देशभर में एक दूसरे को जानने समझने और बरतने वाली शिव जी की एक बारात गांधी ने बनाई थी. उसके ज्यादा बाराती अब बचे नहीं हैं और सक्रिय तो और भी कम हैं.
नानाजी देशमुख मुझे उसी जमात के बचे-खुचे लोगों में से लगते हैं. मुझे मालूम है कि सब उन्हें संघी मानते हैं और वे खुद भी अपने को एकनिष्ठ स्यवंसेवक ही कहते हैं. नाथूराम गोडसे के सूत्र खोजकर संघ को भी गांधी की हत्या के प्रेरक संगठनों में माना गया है. और अब हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी स्वदेशी आंदोलन चला रहा है लेकिन गांधी को मानने वाले संघ में कितने लोग हैं? बुद्ध, महावीर और गांधी की अहिंसा को हिंदुओं के पराभव के लिए जिम्मेदार मानने वाले प्रतिक्रियावादी संघ में बजरंग दल से कोई कम नहीं हैं. लेकिन नानाजी देशमुख के मित्र और परिवार गांधी, मार्क्स, सावरकर, अरविंद और एडम स्मिथ सब को मानने वालों में हैं.
उन्होंने विवाह नहीं किया इसलिए जिसे अपना कहते हैं वैसा उनका कोई परिवार नहीं है. लेकिन उन्हें देश में कहीं भी होटल, लॉज, धरमशाला या सर्किट हाउस में नहीं रुकना पड़ता. सब जगह उनके परिवार हैं और उन्हीं में वे रहना पसंद करते हैं. प्रवास उनके संबंधों का विस्तार का स्थायी माध्यम है. अभी उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र और मराठी में तो छोटे को नाना कहते हैं. मैं कोई साठ साल से उत्तर भारत और हिंदी में हूं क्योंकि यहां नाना मां का बाप होता है.
नानाजी का अपना घरोपा जेपी आंदोलन में हुआ. पटना में जब जेपी को लाठी लगी तो उसे पहले अपने पर लेने वाले नानाजी देशमुख ही थे. उस दिन जेपी के सभी फोटुओ में नानाजी कहीं न कहीं दिखते हैं क्योंकि वे जेपी को अकेला छोड़ने को तैयार ही नहीं थे. मैं नहीं कहूंगा कि नानाजी ने जेपी को बचा लिया लेकिन इतना जरूर है कि पहले नानाजी को कुछ होता और फिर जेपी को. जेपी के गांधी, सर्वोदयी और समाजवादी संगी साथियों को उनका नानाजी देशमुख पर भरोसा करना कोई सुहाता नहीं था.
जेपी भी पहले तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ को शंका और अविश्वास से ही देखते थे. लेकिन संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान उनका रवैया सर्वग्राही हुआ. वे नक्सलवादियों से भी बात करते थे और संघियों और जनसंघियों से भी. वे किसी को भी उस आंदोलन से दूर नहीं रखना चाहते थे. उन कम्यूनिस्टों और बुद्धिजीवियों को भी नहीं जो संपूर्ण क्रांति का मजाक उड़ाया करते थे. देश की एक धारा के दो किनारों को जोड़ने वाले जेपी के एक पुल नानाजी देशमुख थे. जेपी खुद ही नानाजी को बताते थे कि उनके सर्वोदयी और समाजवाद के संगी साथी किस तरह उनसे छिड़कते हैं और नानाजी भी जानते थे कि जेपी से उनके साथ को संघ में किस तरह से देखा जाता है. जनता सरकार बनने के बाद सरकार के बजाय जेपी के साथ रहने वालों में नानाजी भी एक थे.
लेकिन मोरारजी ने जनता पार्टी के तब के जनसंघ घटक में से जिन तीन लोगों को मंत्री बनाने का ऐलान किया उनमें एक नानाजी थे. नानाजी को उद्योग मंत्री होना था. नानाजी नहीं बने. फिर सालभर बाद राजनीति से संन्यास लेकर रचनात्मक कार्य में लगने की घोषणा की और उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में बैठ गए. वहां जयप्रभा ग्राम चल रहा है. दिल्ली में उन्होंने अपने मित्र दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर एक शोध संस्थान बनाया है जो देशभर में काम करता है.
चित्रकूट में बन रहा ग्रामोदय विश्वविद्यालय भी गांधी के ग्राम स्वराज्य की कल्पना को साकार करने का प्रयोग है. चित्रकूट में ही रामनाथ गोयनका की याद में वे एक संस्थान खड़ा कर रहे हैं जिसमें संचार के आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों और कठपुतली से लेकर लोकनृत्य जैसे पारंपरिक माध्यमों से जनसंचार और जनशिक्षण के प्रयोग होंगे. अब गांधी, जेपी, दीनदयाल उपाध्याय और रामनाथ गोयनका से अपने संबंधों और देश समाज में उनके योगदान को निरंतर रखने के लिए संस्थाएं खड़ी करना और उन्हें स्वतंत्र रूप से चलाना नानाजी के तीसरे पहर का संकल्प है. दीनदयाल उपाध्याय तो संघ और जनसंघ के थे लेकिन गांधी, जेपी और रामनाथ गोयनका को तो आप संघी नहीं कह सकते ना! या नानाजी के अपना लेने से वे भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक हो गए हैं?
(नानाजी देशमुख पर यह आलेख जुलाई, 1992 में प्रकाशित हुआ था)
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