‘मैं हिन्दू-मुसलमान झगड़े की मूल वजह चुनाव को समझता हूं. चुने जाने के बाद आदमी देश और जनता के काम का नहीं रहता.’
देश की मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए लग सकता है कि यह बात किसी ने इन्हीं दिनों कही होगी. लेकिन सच्चाई यह है कि विख्यात पत्रकार गणेशशंकर विद्यार्थी ने ये शब्द 1925 में ही लिख दिए थे. कांग्रेस के टिकट पर एक चुनाव में जीतने के बाद मशहूर लेखक और संपादक बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखे पत्र में उन्होंने राजनीतिक माहौल पर गुस्सा जाहिर करते हुए यह बात लिखी थी.

गणेशशंकर विद्यार्थी आजीवन धार्मिक कट्टरता और उन्माद के खिलाफ आवाज उठाते रहे. यही धार्मिक उन्माद उनकी जिंदगी लील गया. प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतलाल नागर ने गणेशशंकर विद्यार्थी की मृत्यु के बाद कहा था, ‘वे अपने ही घर में शहीद हो गए.’ विद्यार्थी अपने ही घर यानी उत्तर प्रदेश के कानपुर में अपने ही लोगों के बीच दंगे के दौरान धार्मिक उन्माद का शिकार बने थे.
23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिए जाने के बाद पूरे देश में सनसनी फैल गई थी. कानपुर भी इससे बचा हुआ नहीं था. इस घटना के ठीक तीसरे ही दिन यानी 25 मार्च को शहर में हिंदू-मुस्लिम समुदाय के बीच मनमुटाव ने एक बड़े दंगे का रूप ले लिया. दोनों तरफ के लोग एक-दूसरे की जान लेने पर उतारू थे. ऐसे माहौल में भी गणेशशंकर विद्यार्थी लोगों के उन्माद को शांत करने के लिए घर से निकल पड़े. इस दौरान उन्होंने कई लोगों की जान बचाई. लेकिन आखिर में उन्हें इन्हीं उन्मादी लोगों के हाथों अपनी जान गंवानी पड़ी.
26 अक्टूबर, 1890 इलाहाबाद में एक शिक्षक जयनारायण श्रीवास्तव के घर जन्मे गणेशशंकर विद्यार्थी ताउम्र अपनी लेखनी के जरिए लोगों को धार्मिक उन्माद के प्रति सावधान करते रहे. 1913 में उन्होंने अपनी साप्ताहिक पत्रिका प्रताप शुरु की थी. अपने शुरूआती दिनों में ही इसकी पहचान किसानों की हमदर्द पत्रिका के रूप में हो गई थी. किसान विद्यार्थी जी को सम्मान से ‘प्रताप बाबा’ कहकर पुकारने लगे थे.
गणेशशंकर विद्यार्थी की दृष्टि बहुत दूरगामी थी. 27 अक्टूबर, 1924 को प्रताप में उन्होंने ‘धर्म की आड़’ नाम से एक लेख लिखा. यह आज भी प्रासंगिक है. विद्यार्थी जी अपने लेख में लिखते हैं, ‘देश में धर्म की धूम है और इसके नाम पर उत्पात किए जा रहे हैं. लोग धर्म का मर्म जाने बिना ही इसके नाम पर जान लेने या देने के लिए तैयार हो जाते हैं.’ हालांकि, इसमें वे आम आदमी को ज्यादा दोषी नहीं मानते. अपने इस लेख में वे आगे कहते हैं, ‘ऐसे लोग कुछ भी समझते-बूझते नहीं हैं. दूसरे लोग इन्हें जिधर जोत देते हैं,ये लोग उधर ही जुत जाते हैं.’
गणेशशंकर विद्यार्थी शुरुआत से ही राजनीति और धर्म के मेल के खिलाफ थे. कई मौके पर उन्होंने इसे लेकर अपनी नाराजगी भी जाहिर की. साल 1919-22 के खिलाफत आंदोलन की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा था, ‘देश की आजादी के लिए वह दिन बहुत ही बुरा था जिस दिन आजादी के आंदोलन में खिलाफत, मुल्ला, मौलवियों और धर्माचार्यों को स्थान दिया जाना आवश्यक समझा गया.’ उनका मानना था कि यह पहल आजादी के आंदोलन में एक कदम पीछे हटने जैसी थी. यह आंदोलन तुर्की के खलीफा के समर्थन में शुरु किया गया था और महात्मा गांधी ने इसे स्वतंत्रता के आंदोलन में मुस्लिम समुदाय को साथ लाने के एक मौके के रूप में देखा था.
अपने शुरुआती राजनीतिक जीवन में गणेशशंकर विद्यार्थी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित थे. 1920 में तिलक की मृत्यु के बाद उन्होंने गांधीजी के नेतृत्व स्वीकार किया. हालांकि, कहा जाता है कि उन्होंने अपने ऊपर गांधीजी के विचारों को पूरी तरह हावी होने नहीं दिया. अहिंसा को वे शुरु से ही धर्म की बजाय एक नीति मानते रहे थे. लोगों द्वारा गांधी जी के बातों के अंधानुकरण किए जाने पर उन्होंने लिखा, ‘गांधी जी की बातों को ले उड़ने से पहले हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह पहले उसका मर्म समझ लें. इससे उनका आशय धर्म के ऊंचे और उदार तत्वों से है.’ वे धार्मिक कर्मकांडों की आलोचना करते हुए कहते हैं, ‘अजां देने, शंख बजाने और नमाज पढ़ने का मतलब धर्म नहीं है. दूसरों की आजादी को रौंदने और उत्पात मचाने वाले धार्मिक लोगों की तुलना में वे ला-मजहब और नास्तिक आदमी कहीं अधिक अच्छे और ऊंचे दर्जे के हैं, जिनका आचरण अच्छा है.’
गांधी जी के बातों के अंधानुकरण पर उन्होंने लिखा, ‘गांधी जी की बातों को ले उड़ने से पहले हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह पहले उसका मर्म समझ लें. इससे उनका आशय धर्म के ऊंचे और उदार तत्वों से है.’
अंधराष्ट्रवाद के खतरों के बारे में गणेशशंकर विद्यार्थी ने आजादी के आंदोलन के समय ही आगाह कर दिया था. तब भी हिंदू राष्ट्र के पैरोकारों की एक धारा सक्रिय थी. 21 जून, 1915 को प्रताप में प्रकाशित अपने लेख में वे कहते हैं, ‘देश में कहीं कहीं राष्ट्रीयता के भाव को समझने में गहरी भूल की जा रही है. हर रोज इसके प्रमाण हमें मिलते रहते हैं. यदि हम इसके भाव को अच्छे तरीके से समझ चुके होते तो इससे जुड़ी बेतुक बातें सुनने में न आतीं.’ विद्यार्थी हिंदू राष्ट्र के नाम पर धार्मिक कट्टरता और संकीर्णता के सख्त खिलाफ थे और समय-समय पर इसे लेकर लोगों को सावधान भी करते थे. राष्ट्रीयता शीर्षक से लिखे अपने इस लेख में वे आगे कहते हैं, ‘हमें जानबूझकर मूर्ख नहीं बनना चाहिए और गलत रास्ते नहीं अपनाने चाहिए. हिंदू राष्ट्र- हिंदू राष्ट्र चिल्लाने वाले भारी भूल कर रहे हैं. इन लोगों ने अभी तक राष्ट्र शब्द का अर्थ ही नहीं समझा है.’
पत्रकारिता के साथ-साथ सामाजिक जीवन में सक्रिय गणेशशंकर विद्यार्थी देश का धर्म के आधार पर बंटवारा होने से पहले कह चुके थे कि भविष्य में कोई भी देश हिंदू राष्ट्र नहीं हो सकता. इसके पीछे उनका मानना था कि किसी राष्ट्र का होना उसी समय संभव है, जब देश का शासन उसके सभी नागरिकों के हाथ में हो.’ सभी नागरिकों से उनका आशय हर धर्म और जाति के लोगों से था. उस समय ही उन्होंने ऐसे आजाद भारत की कल्पना की थी, जहां हिंदू ही राष्ट्र के सबकुछ नहीं होंगे. इस बारे में उनका मानना था कि किसी वजह से ऐसी मंशा रखने वाले लोग गलती कर रहे हैं और इसके जरिए वे देश को ही हानि पहुंचा रहे हैं.
हिंदुओं के साथ-साथ विद्यार्थी जी ने मुसलमान समुदाय को भी निशाने पर लिया. अपने लेख में वे कहते हैं, ‘ऐसे लोग जो टर्की, काबुल, मक्का या जेद्दा का सपना देखते हैं, वे भी इसी तरह की भूल कर रहे हैं. ये जगह उनकी जन्मभूमि नहीं है.’ उन्होंने आगे ऐसे लोगों को अपने देश की महत्ता समझाते हुए कहा है, ‘इसमें कुछ भी कटुता नहीं समझी जानी चाहिए, यदि कहा जाए कि उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और अगर वे लायक होंगे तो उनके मरसिये भी इसी देश में गाए जाएंगे.’
गणेशशंकर विद्यार्थी उस दौर की शख्सियत थे जिस दौर में एक तबका राष्ट्रीयता पर भी सवाल उठा रहा था. ऐसे लोगों की आलोचना का सम्मान करते हुए उनका कहना था, ‘संसार की किस वस्तु में गुण-दोष नहीं है जैसे; सूर्य का प्रकाश फूलों को रंग-बिरंगा बनाता है, लेकिन किसी लाश पर उसकी गरमी पड़ते ही वह सड़कर बदबू देने लगती है...हम राष्ट्रीयता के अनुयायी हैं, पर वही हमारी सब कुछ नहीं, वह केवल हमारे देश की उन्नति का एक उपाय भर है.’
यही कारण हैं कि आज जब धर्मांधता और अंधराष्ट्रवाद फिर फन उठाए खड़ी है तो एक वर्ग है जिसे गणेशशंकर विद्यार्थी जैसी आवाज की कमी शिद्दत से महसूस होती है. प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. रामविलास शर्मा का मानना था कि उनके असामयिक निधन से राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक विकास का जितना नुकसान हुआ उतना कांग्रेस के किसी दूसरे नेता की मृत्यु से नहीं हुआ.
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