27 जुलाई, 1947, दरबार हॉल, वाइसराय भवन, नयी दिल्ली. खचाखच भरे हाल के अंदर लगभग 550 छोटे-बड़े रियासतदार बड़ी बैचनी के साथ वाइसराय लार्ड माउंटबैटन का भाषण सुन रहे थे. जैसे-जैसे वे बोलते गए, हॉल में छाया सन्नाटा बढ़ता गया. उन्होंने सभी मौजूद रियासतदारों से कहा था कि भारत की आज़ादी के बाद ब्रिटेन की महारानी अब यहां के राजाओं के अधिकारों और राज्य की ज़िम्मेदारी से मुक्त होती है. उनके लिए अब बेहतर होगा कि वे अपना राज्य आज़ाद हिंदुस्तान में मिलाकर नये देश को ताक़त दें. सभी लोग सन्न थे. बीकानेर के राजा उठे और सबसे पहले अपने राज्य के भारत में विलय की घोषणा की. दरअस्ल उनको उनके दीवान कावलम माधव पणिक्कर ने समझाया था. पणिक्कर बहुत ही समझदार व्यक्ति थे और इतिहास के बड़े जानकार भी. जब महाराज ने शुरूआत में उनकी बात मानी नहीं थी तब पणिक्कर साहब ने उन्हें तराइन की लड़ाई का हवाला देकर समझाया था.
आज राजस्थान दिवस है. आज ही के दिन राजपूताना की 18 रियासतों ने हिंदुस्तान में अपने विलय को स्वीकार किया था. और जिस तराइन की लड़ाई का हवाला पणिक्कर साहब ने महाराजा बीकानेर को दिया था वह राजस्थान से ही संबंध रखती है.
इतिहासकार पॉल के डेविस ने अपनी किताब ‘विश्व की 100 निर्णायक लड़ाइयां’ में 1192 में हिंदू राजा पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच हुई तराइन (तरावडी) की दूसरी लड़ाई को भी रखा है. यह निर्णायक युद्ध इसलिए था कि इसके बाद हिंदुस्तान के राजनैतिक और धार्मिक समीकरण हमेशा के लिए बदल गए थे. पृथ्वीराज चौहान का संबंध राजस्थान के अजमेर से था और मोहम्मद अफ़गानिस्तान के गौर प्रांत से था. उनके बीच-बीच दो लड़ाइयां हुईं. किस्सा कुछ यूं है:
पृथ्वीराज चौहान जब अजमेर की गद्दी पर बैठा तो चौहान चारों तरफ से दुश्मनों से घिरे हुए थे - सिंध में मुसलमान, गुजरात में चालुक्य, दक्षिण पूर्व में चंदेल और कन्नौज में जयचंद. सब के सब एक दुसरे के धुर विरोधी. तो यह साफ़ था कि पृथ्वीराज को अगर बचे रहना है तो लड़ना ही होगा और अपने दुश्मनों को मिटाना होगा. उधर मोहम्मद भी हिंदुस्तान में अपना परचम लहराने के ख्वाब देख रहा था. हिंदुकुश के आगे जाना उसके लिए संभव नहीं था लिहाज़ा उसके पास भी हिंदुस्तान का रुख करने के अलावा कोई और चारा नहीं था. एक बात और - उसे फरमान था कि वो हिंद जाकर इस्लाम का प्रचार करे.
साफ़ था कि पृथ्वीराज को अगर बचे रहना है तो लड़ना ही होगा और अपने दुश्मनों को मिटाना होगा. उधर मोहम्मद भी हिंदुस्तान में अपना परचम लहराने के ख्वाब देख रहा था.
पृथ्वीराज और गौरी दोनों साम्राज्यवादी थे और दोनों अपनी सीमाएं बढाते हुए एक-दूसरे के क़रीब ले आये. अब टक्कर लाज़मी थी. 1191 में मोहम्मद गौरी पंजाब के अंदर आ गया था और तब के ताबरहिंदाह यानी आज के सरहिंद पर कब्ज़ा कर उसे मलिक ज़ियाउद्दीन के हवाले कर दिया.
गौरी के बढते हुए प्रभाव ने उत्तर के राजाओं को डरा दिया था. उनमे में कुछ मिलकर पृथ्वीराज के पास आये और उन्होंने मुसलमान राजा के आतंक का वर्णन किया. इससे पृथ्वीराज भड़क गया. उसने गौरी के ख़िलाफ़ जंग का ऐलान कर दिया. जब गौरी सरहिंद से रवानगी ले रहा था तो उसे पृथ्वीराज के आने की खबर मिली. 1191 में दोनों पहली बार दिल्ली से 80 मील दूर और थानेश्वर से कोई 14 मील दूर तराइन में आमने-सामने हुए. इस युद्ध में चित्तौड़ के राणा समर सिंह और दिल्ली के राजा गोविंदराज ने पृथ्वीराज के साथ मिलकर गौरी की सेना को खदेड़ दिया. गोविंदराज ने गौरी को बुरी तरह से ज़ख्मी कर दिया था. वह घायल होकर भागते समय गिरने ही वाला था कि उसके एक सैनिक ने उसे संभाल लिया. वह गौरी को सुरक्षित मैदान से बाहर निकाल ले गया.
युद्ध में पृथ्वीराज की जीत हुई और सरहिंद पर चौहानों का अधिकार हो गया. पर यहां पृथ्वीराज से एक रणनीतिक भूल हो गयी. उसकी सेना ने मोहम्मद गौरी का बहुत दूर तक पीछा नहीं किया. बात अच्छे या बुरे की नहीं है. अगर चौहान ने गौरी को तभी मार दिया होता तो आज के हिंदुस्तान की तस्वीर कुछ और ही होती.
खैर, आगे बढते हैं. हार से तिलमिलाया गौरी अगले वर्ष यानी 1192 में फिर से लड़ने को तैयार था. उसने अपने दूत के हाथों चौहान तक संदेशा पहुचाया कि वह या तो इस्लाम स्वीकार कर ले या फिर मरने के लिए तैयार हो जाए. पृथ्वीराज से जैसी उम्मीद थी उसने वैसा ही किया. वे दोनों तराइन के मैदानों में दुबारा भिड़े. इस लड़ाई को तराइन की दूसरी लड़ाई कहा गया है. गौरी इस बार काफी तैयारी के साथा आया था. लड़ाई में उसने अपनी सेना को पांच हिस्सों में बांट दिया था. चाल के मुताबिक़ चार टुकड़ियां थोड़ी देर लड़ने के बाद पीछे हटने लगीं. चौहान की सेना यह समझ ही नहीं पायी और जोश के साथ आगे बढ़ी जा रही थी. थोड़ी दूर जाकर चारों टुकड़ियां रुक गयी और फिर लड़ने लगी. इतने में पांचवी टुकड़ी ने पीछे से आकर चौहान की सेना को घेर लिया.
युद्ध में पृथ्वीराज की जीत हुई और सरहिंद पर चौहानों का अधिकार हो गया. पर यहां पृथ्वीराज से एक रणनीतिक भूल हो गयी. उसकी सेना ने मोहम्मद गौरी का बहुत दूर तक पीछा नहीं किया
अचानक हुए इस हमले से पृथ्वीराज के सिपाही भौचक्के रह गए. लड़ाई में दिल्ली का राजा गोविंदराज मारा गया और पृथ्वीराज मैदान छोड़ने के लिए मजबूर हो गया. गौरी की सेना ने उसका पीछा किया और सिरसा के पास उसे पकड़ लिया. उसे अजमेर लाया गया और मार दिया. इसके बाद मोहम्मद गौरी का अजमेर और दिल्ली पर कब्ज़ा हो गया. किसी युद्ध रणनीति की बजाय सिर्फ अपनी वीरता पर भरोसा करने वाले राजपूत इस तरह से आसानी से इतना बड़ा युद्ध हार गये.
विन्सेंट ए स्मिथ की किताब ‘ऑक्सफ़ोर्ड हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया’ का पन्ना नंबर 220 पढ़ें तो यह समझ में आता है. स्मिथ ने लिखा है ‘यहां के राजा युद्ध की कला नहीं जानते थे. हिंदू राजाओं की सेना में हाथी और तलवारों का मुख्यतः इस्तेमाल होता था. जबकि आक्रामणकारियों के पास घोड़े थे, वे तीर और भालों से लडते थे. इस वजह से वे ज़्यादा फुर्तीले थे. लड़ाई में हिंदू राजा अपनी-अपनी सेनाओं के मुखिया होते थे. वहीँ ये लोग एक सेनापति के अधीन लडते थे. कोई भी हिंदू राजा अपने अतीत से सीखना नहीं चाहता था. इन लोगों ने सिकंदर, मोहम्मद गौरी, बाबर, अहमद शाह दुर्रानी से मिली हारों से कुछ नहीं सीखा. भारत का समाज जातियों में बंटा हुआ समाज था.’
हिंदुस्तानियों की एक बड़ी कमजोरी यह भी थी कि यहां लड़ने का काम सिर्फ क्षत्रियों का ही समझा जाता था. दूसरा, सिर्फ़ फौज लडती थी, आम आदमी नहीं. हमारे यहां ऊंची जाति का कमज़ोर व्यक्ति भी सेनापति हो सकता था लेकिन तथाकथित नीची जाति का नहीं. फिर राजाओं का आपसी बैर भी कम नहीं था. पृथ्वीराज ने कन्नौज के जयचंद को साथ देने का वास्ता दिया था जो उसने ठुकरा दिया था. उधर अनहिलवाडा, (गुजरात का एक राज्य) के राजा को पृथ्वीराज ने जंग में हराया था. अगर यहां के राजे संगठित होकर लड़ाई लड़ते तो परिणाम कुछ और ही होता.
इस जीत के बाद मोहम्मद गौरी के हौसले बुलंद थे. उसने अपने काबिल सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक के साथ मिलकर दिल्ली, कन्नौज, गुजरात का प्रमुख राज्य अनहिलवाडा वगैरह सब जीत लिया. उसने इत्मीनान से कई राज्य लूटे और ऐबक को यहां छोड़कर वापस ख़ुरासान चला गया. कुछ समय बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने गोविंदराज के बेटे को हटाकर दिल्ली पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया. लेकिन उसके राज की बागडोर थी अभी भी थी मोहम्मद गौरी के हाथ में ही. इसीलिए कुतुबुद्दीन का राजवंश गुलाम वंश कहलाया.
कहते हैं कि मरते हुए एक भिक्षु ने जब कहा था कि ये किताबें अनमोल ख़ज़ाना है, इन्हें मत मिटाओ. तो अनपढ़ सैनिकों ने कहा कि जब पढने वाले ही नहीं बचेंगे तो किताबें किस काम की?
आरसी मजूमदार अपनी किताब ‘द स्ट्रगल फॉर एंपायर’ में लिखते हैं कि तराइन की दूसरी लड़ाई ने न केवल चौहानों का नाश किया बल्कि एक तरह से समूचे हिंदू धर्म को विनाश के कगार पर ला खड़ा किया. वे लिखते हैं कि असभ्य सैनिकों ने देश की संपदा ही नहीं लूटी बल्कि औरतों के साथ बदसलूकी की, मंदिरों को तहस-नहस कर मस्जिदों का निर्माण किया.
यह सही है कि इस लड़ाई से हिंदुओं का काफी नुकसान हुआ. पर यह भी उतना ही सच है कि इससे सबसे ज्यादा हानि बौद्ध धर्म की हुई. क्योंकि जब ऐबक ने अपने सेनापति मोहम्मद खिलज़ी को बिहार फ़तह करने का हुक्म दिया तो वह बिहार पर क़यामत बनकर टूटा. स्मिथ लिखते हैं ‘सिर्फ 200 घुडसवारों ने किला जीत लिया. बिहार में उस समय बौद्ध धर्म का बोलबाला था और उसे तीन शताब्दियों से पाल राजाओं का संरक्षण मिला था. इस आक्रमण के बाद से वह समाप्त हो गया और इस्लाम के प्रचार-प्रसार पर जोर दिया जाने लगा. पहले बौद्ध विहार बनाने के लिए जितनी चाहो जमीनें आसानी से मिल जाया करती थीं. लेकिन अब ऐसा होना बंद हो गया. जो आर्थिक संसाधन भिक्षुओं को बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए मिलते थे वे भी बंद कर दिये गए.
मुसलमान सैनिकों ने भारी संख्या में बौद्ध भिक्षुओं को भी मार दिया था क्योंकि तब के मुस्लिम राजा और इतिहासकार बौद्ध भिक्षुओं को सर मुंडवाया हुआ ब्राह्मण ही समझते थे. नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय जो उस समय विश्व के सबसे बड़े पुस्तकालयों में से एक था उसे तहस-नहस कर दिया. कहते हैं कि मरते हुए एक भिक्षु ने जब कहा था कि ये किताबें अनमोल ख़ज़ाना है, इन्हें मत मिटाओ. तो अनपढ़ सैनिकों ने कहा कि जब पढने वाले ही नहीं बचेंगे तो किताबें किस काम की? बस सब किताबें जला दी गयीं.
बचे-खुचे बौद्ध अनुयायी नेपाल, तिब्बत, भूटान या दक्षिण में भाग गये. मगध ही नहीं, अफ़गानिस्तान में भी बौद्ध धर्म पर प्रहार हुए. प्रतीत होता है कि बौद्ध धर्म राजा का धर्म था न कि समाज का. इसलिए, इसकी जडें हिंदू धर्म की तरह समाज के अंदर तक नहीं फैली थीं. यही कारण रहा कि इतनी आसानी से बौद्ध धर्म हिंदुस्तान में एक तरह से विलुप्त ही हो गया.
चलते चलते
‘लम्हों ने ख़ता की सदियों ने सज़ा पायी’. क्या दलाई लामा तिब्बत में बैठकर इस शेर को गुनगुनाते होंगे क्योंकि जब सन 712 में मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध के हिंदू राजा दाहिर को हराया तो उसके अभियान में मदद करने वाले वे बौद्ध भिक्षु ही थे जो उस समय दाहिर के शासन से आजिज़ आ चुके थे. इस बार राजस्थान दिवस पर भूटान की रानी मां दोरजी वांग्मो खास अतिथि हैं आपको बता दूं, ‘रानी मां बौद्ध धर्म को मानती हैं.’
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