... इससे पिछले वाले भाग में हमने पढ़ा था कि कैसे शिवाजी अफ़ज़ल खान, शाइस्ता खान और सूरत शहर को लूटकर हिंदुस्तान के जनमानस पर छा गए थे. अब बात आगे बढ़ाते हैं.

दो शेरों का सामना

1665 में औरंगज़ेब ने शाइस्ता खान और जोधपुर के राजा जसवंत सिंह को हटाकर आमेर (जयपुर) के राजा जय सिंह प्रथम को शिवाजी के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए भेज दिया. 60 साल के जय सिंह का युद्ध में शानदार इतिहास था. नौ जनवरी को जय सिंह ने अपना अभियान शुरू किया और एक महीने में वह पूना जा पंहुचा. जय सिंह कूटनीति में भी माहिर था. वह जानता था कि दक्कन में मराठों के ख़िलाफ़ लड़ना मुश्किल है. वहां कई धुरंधरों की इज्ज़त मिट्टी में मिल चुकी थी. लिहाज़ा उसने शिवाजी के सारे दुश्मनों को अपनी तरफ़ मिलाकर शिवाजी पर दवाब बना दिया और औरंगजेब को समुद्र के रास्ते शिवाजी पर हमला करने की रणनीति भी समझाई. जय सिंह ने युद्ध की कमान अपने हाथों में रखी और शिवाजी के विश्वासपात्रों को घूस देकर तोड़ लिया. तीन महीने की लड़ाई के बाद शिवाजी ने जय सिंह के सामने समर्पण कर दिया. मिर्ज़ा राजा जय सिंह ने उन्हें वीरोचित सम्मान दिया और दोनों के बीच पोरबंदर की संधि हो गयी. संधि के तहत शिवाजी को अपने 23 किले छोड़ने पड़े और अपने बेटे को औरंगजेब के दरबार में भेजना पड़ा.

पहली बार औरंगजेब-शिवाजी आमने सामने

जय सिंह ने शिवाजी को यह कहकर आगरा चलने के लिए राज़ी किया कि वह उन्हें मुग़लों की तरफ से दक्कन का गवर्नर बनवाने में मदद करेगा. इसके बाद वे औरंगज़ेब के पचासवें जन्मदिन के समारोह में शामिल होने आगरा गए. अपनी तरफ से उन्होंने बादशाह को 1500 सोने की मोहरें नज़र कीं और 6000 रुपये निसार (वारे) किए और जब औरंगज़ेब ने हेकड़ी से उन्हें आवाज़ दी - ‘आओ शिवाजी राजा!’. शिवाजी ने तीन सलाम किये और पीछे हट गए. अालमगीर यानी स्वघोषित विश्व विजेता के दरबार में उनको अन्य जागीरदारों के साथ जब खड़ा किया गया तो वे नाराज़ हो गए और उन्होंने औरंगजेब को भला-बुरा कह दिया. इससे नाराज होकर औरंगजेब ने शिवाजी और उनके बेटे को नज़रबंद कर दिया. ब्रिटिश इतिहासकर ग्रांट डफ़ लिखते हैं कि औरंगजेब शिवाजी को सम्मान स्वरुप हाथी और उपहार देना चाहता था लेकिन इससे पहले ही शिवाजी उखड़ गए थे.

तीन महीने नज़रबंद रहने के बाद एक दिन शिवाजी धोखे से फ़रार हो गए और आगरा से सीधे रायगढ़ मालवा न जाते हुए वे मथुरा, गया और गोलकुंडा के रास्ते वहां पहुंचे. यहां एक बात समझने की है कि जो औरंगज़ेब सत्ता के लिए अपने भाइयों को मार सकता था, उसने शिवाजी के हाथों इतनी बार बेइज्ज़त होने पर भी उनका क़त्ल क्यों नहीं करवाया! क्या इसके पीछे जय सिंह का शिवाजी को दिया हुआ वचन था? या फिर वह उन्हें मारकर हिंदुओं को अपने ख़िलाफ़ नहीं करना चाहता था? जय सिंह ने बादशाह को यह भी समझाया था कि शिवाजी को साथ रखकर गोलकुंडा और बीजापुर को कब्ज़े में लिया जा सकता है. शिवाजी का इस तरह यों बचकर निकल जाना लोगों के ऊपर एक और छाप छोड़ जाता है.

शिवाजी का राज्याभिषेक

शिवाजी रायगढ़ पहुंचकर कुछ दिन खामोश बैठे और इस बीच उन्होंने अपने पुराने किलों की मरम्मत करवाई. उन्होंने कुछ समय के लिए मुग़लों से दुबारा संधि कर ली. यह हैरतअंगेज़ नहीं है क्योंकि औरंगजेब भी जानता था कि शिवाजी से बार-बार की जंग उसे थका रही थी और वह दक्कन के अलावा कहीं और अपना ध्यान नहीं लगा पा रहा था. संधि के तहत उन्हें राजा की पदवी दी गयी. लेकिन एक बात जो अब उन्हें खटक रही थी वह यह कि पदवी मिलने के बाद भी उनके पास कोई ख़ास अधिकार नहीं थे: न तो वे किसी राज्य से संधि कर सकते थे, न किसी को जागीर दे सकते थे. उधर रियाया भी पशोपेश में थी कि अगर कभी औरंगजेब ने जंग में शिवाजी को हरा दिया तो क्या मुग़लिया सेना उन्हें(जनता) तंग नहीं करेगी? इधर शिवाजी भी अन्य जातियों पर अपना वर्चस्व दिखाना चाहते थे. और एक बात, महाराष्ट्र के तथाकथित उच्चकुल के लोग अब किसी हिंदू राजा का उदय देखना चाहते थे जो हिंदुओं को उनका खोया हुआ सम्मान दिला सके. उन्हें कोई हिंदू छत्रपति चाहिए था.

लेकिन शिवाजी के राज्याभिषेक में एक समस्या थी - शिवाजी क्षत्रिय नहीं थे और भारतीय शास्त्रों के अनुसार कोई क्षत्रिय ही राजा बन सकता था. इसका हल भी ढूंढ़ा गया. बनारस से गाग भट्ट नाम के ब्राह्मण को बुलावा भेजा गया और उसे खुश किया गया. गाग भट्ट ने शिवाजी की वंशावली को मेवाड के राजपूतों से जोड़कर उन्हें एक ऐसे उच्च कुल का क्षत्रिय घोषित कर दिया जो ख़ुद को भगवान रामचंद्र के वंशज मानता था. 6 जून, 1674 को वो हिंदू सम्राट छत्रपति शिवाजी बन गए.

इस लेख को विराम देने से पहले हम उसी प्रश्न पर आते हैं जो इस लेख के पिछले हिस्से में उठाया गया था. शिवाजी वीर थे या एक लुटेरे? बंबर गस्कोइग्ने ने अपनी क़िताब - ‘द ग्रेट मुग़ल्स’ - में लिखा है कि शिवाजी में एक चुंबकीय आकर्षण था जिसकी वजह से लोगों में 900 सालों से चले आ रहे विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने की इच्छा प्रबल हो गयी थी.’ हिंदुस्तान में उस वक़्त शिवाजी के अलावा और कोई मज़बूत विकल्प नहीं था. दूसरी बात आसपास के राज्यों को लूटना उनकी मजबूरी थी. मराठवाडा गंगा के मैदानों जैसा उर्वरक नहीं था. वहां आय के साधन कम थे और अगर बचे रहना था तो फिर आठ महीने लडाई करनी ही होती थी और बाकी के चार महीने खेती. आप अंत में इतिहास उठाकर देख लीजिये जब भी किसी व्यक्ति ने पहली बार राज्य की स्थापना की है तो लड़ाइयों और लूटपाट का ही सहारा लिया है. सिकंदर, चंद्रगुप्त मौर्य, बाबर, चंगेज़ खान, भरतपुर के जाट, पंजाब के सिख सबने यही किया है. अगर शिवाजी लुटेरे थे तो फिर बाकी सब भी उसी श्रेणी में आते हैं.

जो बात लेख के इस भाग में रह गयी वह यह कि कुछ बड़े इतिहासकारों और पुरानी मान्यता के मुताबिक उनका जन्म छह अप्रैल को हुआ था. हालांकि महाराष्ट्र सरकार इसे 19 फरवरी को मनाती है और वहां के कुछ लोग - हिंदी कैलेंडर के हिसाब से - फाल्गुन की तृतीया को. शिवाजी की मृत्यु पांच अप्रैल को हुई थी.