आज भगत सिंह को याद किया जा रहा है, उनकी एक सबसे लोकप्रिय-लोकप्रचलित तस्वीर के साथ. यह आठ अप्रैल, 1929 की बात है जब भगत सिंह ने सेंट्रल असेंबली में बम फेंके थे और इसके दो साल बाद 23 मार्च, 1931 को उन्हें फांसी दी गई थी. सिर्फ तेईस साल का जीवन जीने वाले इस नौजवान की ज़िंदगी में आखिर क्या बात थी कि मारे जाने के करीब नौ दशक गुजर जाने के बाद भी उसे उसी शिद्दत से याद किया जाता है? भगत सिंह को शहीदे आज़म कहा जाता है - शहीदों का सरताज. यह कोई राय बहादुर या सर या भारत रत्न जैसा कोई खिताब नहीं, जो सत्ता देती है, बल्कि जनता के द्वारा प्यार और श्रद्धा से दी गई उपाधि है.
भगत सिंह की अभूतपूर्व लोकप्रियता उनके बाद तत्कालीन नेताओं के लिए भी विचारणीय थी. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा – ‘भगत सिंह ... एक प्रतीक में बदल गए, ( हिंसा का) कृत्य भुला दिया गया, प्रतीक शेष रहा, और कुछ ही महीनों में पंजाब और बहुत कुछ बाकी उत्तर भारत के हर शहर और गांव में उनका नाम गूंजने लगा. उनके इर्द-गिर्द अनेकानेक गीत बन गए और उस शख्स ने जो शोहरत हासिल की वह हैरतंगेज़ थी…’
भगत सिंह लेकिन एक ख़ास रूप में लोगों के बीच फैले थे. गांधी, नेहरू, सुभाष या अन्य नेताओं को तो वे पहचानते थे. लेकिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु तो अपने दूसरे क्रांतिकारी साथियों की तरह ही प्रायः गोपनीय, भूमिगत जीवन बिताते थे. इसलिए उनकी फांसी के पहले उन्हें सूरत से जानने के मौके न के बराबर ही थे.
अब यह देखें कि आखिर भगत सिंह की कौन सी छवि है जिसे भारत ने अपने दिल में बसा रखा है? बिना दाढ़ी का सफाचट चेहरा, मूंछें जो कायदे से तराशी हुई हैं, दोनों कोने हलके ऊपर की ओर उठे हुए जिनसे रुआब नहीं सिर्फ जवानी के तनाव का तकाजा झलकता है, सामने को तकती स्थिर निगाह और सर पर हल्का सा तिरछा हैट. इसी तस्वीर की अनुकृतियों को पीढ़ी दर पीढ़ी भारतीय जनता ने घरों में, चाय और पान की दुकानों पर लगाया है. उन्होंने एक कमीज पहन रखी है जिसके बटन ऊपर तक बंद हैं. इसमें कोई लापरवाही नहीं, एक औपचारिक लेकिन इत्मीनान की मुद्रा है.
भगत सिंह की इस तस्वीर की अनुकृतियां लोगों ने खूब बनाईं और वह फोटोग्राफ न रह कर पेंटिंग और दूसरे रूपों में भी प्रचलित हुई. इस तस्वीर के मकसद और इसके प्रभाव या संदेश को समझने का प्रयास विद्वानों ने किया है: इस तस्वीर ने ब्रिटिश हुकूमत के इस प्रयास को नाकामयाब करने में सफलता पाई कि भगत सिंह और उनके साथी जुनूनी हिंसक युवकों के तौर पर बदनाम हों. कैमरे को सीधी देखती आंखें जैसे ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती दे रही हैं और उसके इकबाल के रुआब में आने से इनकार कर रही हैं. लेकिन जो चीज़ इस तस्वीर को ख़ास बना देती है, वह है यूरोपीय पोशाक और सर पर रखा हैट का तिरछापन. यह इसे रूमानी रंगत दे देता है.
‘अ रिवोल्युशनरी हिस्ट्री ऑफ़ इंटर वार इंडिया: वायलेंस, इमेज, वॉयस एंड टेक्स्ट’ नामक अपनी दिलचस्प किताब में कामा मैक्लीन ने इस तस्वीर की कहानी कही है, इसके सफ़र की भी. भगत सिंह सिख थे लेकिन यहां उनके केश नहीं हैं. अपने केश उन्होंने ब्रिटिश पुलिस को झांसा देने के लिए पहले ही कटा लिए थे. ऐसा नहीं कि उनकी मित्र मंडली में उनके सिख होने को तस्लीम न किया जाता हो, लेकिन इस धार्मिक पहचान पर कोई जोर न था. उन्हें सरदार कहकर पुकारा जाता था, लेकिन जैसा उनके समकालीन और दोस्त बताते हैं, यह मजहब से कहीं ज्यादा प्यार और अपनापे के चलते था.
यह तस्वीर बाकायदा स्टूडियो में खिंचवाई गई थी और एक योजना के तहत. असेंबली में बम फेंके जाने के बाद गिरफ्तारी तय थी, बल्कि भगत सिंह का यह फैसला था. उसके बाद इस तस्वीर को तेजी से लोगों के बीच फैला देने का मकसद था. इस वजह से बटुकेश्वर दत्त की तस्वीर भी उसी स्टूडियो में खिंचाई गई.
इस तस्वीर से भगत सिंह की उस खासियत का कुछ पता चलता है जो उन्हें बाकी क्रांतिकारियों से अलग कर देती है. भगत सिंह लेखक भी थे और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे संपादक के साथ काम भी कर चुके थे. पंजाब केसरी के संपादक से उनका लगाव था. लेकिन निरक्षर लोगों की बहुतायत वाले मुल्क में जनता से संवाद कायम करने के लिए अक्षर से कहीं अधिक तस्वीर कारगर हो सकती थी. जिस तरह गिरफ्तारी के बाद अपने मुकदमे को भगत सिंह ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ मुक़दमे में बदल दिया, उसी तरह इन तस्वीरों का इस्तेमाल क्रांतिकारी आंदोलन की उस छवि की काट करने के लिए किया गया कि वह सिर्फ बम, पिस्तौल और खूनखराबा पसंद करने वाले जुनूनी नौजवानों का जमावड़ा है. यह एक संयत, सधी हुई मुद्रा है जिसमें हिंसा का आभास और आक्रामकता का लेश भी नहीं है.
जो भंगिमा, भगत सिंह की इस तस्वीर में है वही उनके गद्य की भी है. वह न तो आक्रामक है न भावुकतावादी. उसमें तर्क की दृढ़ता है लेकिन एक निजी स्वर भी है. भगत सिंह के इस स्वभाव का एक नमूना उनका ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ लेख में है. यह एक कठिन विषय पर लिखा गया निबंध है. कतई मुमकिन था कि इसमें वे ईश्वर को मानने वालों की अतार्किकता पर हमला करें, अपनी वैज्ञानिक वस्तुपरकता पर गौरवान्वित हों. लेकिन वे ऐसा न करके इसमें बातचीत और अपने भीतर की उथल-पुथल का जिक्र करते हैं जो नास्तिकता के निर्णय में थी.
क्या ईश्वर के अस्तित्व से इनकार वे इसलिए करते हैं कि उनमें अहंकार आ गया है? क्या यह अहंकार एक उच्च ध्येय में लगे क्रांतिकारी दल के सदस्य के रूप में प्रसिद्धि के कारण है? भगत सिंह लिखते हैं कि जब वे कॉलेज में थे, और प्रसिद्द होने का कोई सवाल न था तभी से वे इस ख़याल के हो गए थे, इसलिए अहंकार से इसे जोड़ना मुनासिब न होगा. वे अपनी विचार यात्रा का वर्णन आत्मीय शैली में करते हैं.
जीवन के एक निर्णायक मोड़ पर (ज़रा सोचिए, यह जीवन ही कितना लंबा था!), जब क्रांतिकारी दल का अस्तित्व भी असंभव लग रहा था, ‘अध्ययन की पुकार मेरे मन के गलियारों में गूंज रही थी - विरोधियों द्वारा रखे गए तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिए अध्ययन करो. अपने मत के समर्थन में तर्क देने के लिए सक्षम होने के वास्ते पढ़ो. मैंने पढ़ना शुरू कर दिया. इससे मेरे पुराने विचार व विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए. हिंसात्मक तरीकों को अपनाने के रोमांस की जगह, जो हमारे पुराने साथियों में अत्यधिक व्याप्त था, गंभीर विचारों ने ले ली. यथार्थवाद हमारा आधार बना. हिंसा तभी न्यायोचित है जब किसी विकट आवश्यकता में उसका सहारा लिया जाए. अहिंसा सभी जनांदोलनों का अनिवार्य सिद्धांत होना चाहिए.’
अहिंसा की अनिवार्यता पर जोर ध्यान देने योग्य है. गांधी से बड़ा अहिंसा का पैरोकार कौन होगा? लेकिन वे भगत सिंह की तरह नास्तिक न थे. भगत सिंह उस अकेलेपन और निष्कवचता का जिक्र करते हैं जो नास्तिकता से अनिवार्यतः जुड़ी है – ‘ईश्वर से मनुष्य को अत्यधिक सांत्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है. उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर होना पड़ता है...’
आगे भगत सिंह लिखते हैं, ‘मैं जानता हूं कि जिस क्षण रस्सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख्ता हटेगा, वही पूर्ण विराम होगा, वही अंतिम क्षण होगा. मैं, या संक्षेप में, आध्यात्मिक शब्दावली की व्याख्या के अनुसार, मेरी आत्मा, सब वहीं समाप्त हो जाएगी.’
‘एक छोटी सी जूझती हुई ज़िंदगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने आप में पुरस्कार होगी, यदि मुझमें उसे इस दृष्टि से देखने का साहस हो. यही सबकुछ है.’
इन शब्दों को पढ़ते हुए उस तिरछे हैट वाले मुखड़े को देखा जाए जो उस दृष्टि की विनम्रता का साहस महसूस किया जा सकता है.
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