कल यानी 14 अप्रैल को डॉ भीमराव अंबेडकर का जन्मदिन है. अंबेडकर और गांधी पर जब भी चर्चा होती है, तो प्रायः यही दिखाया जाता है जैसे इनके संबंध बड़े कटु थे. पिछले आठ दशकों की लगभग चार पीढ़ियों को यही बताया गया है कि इनके बीच कोई आत्मीय संबंध तो नहीं ही थे, और जो थोड़े-बहुत शिष्टाचार वाले संबंध थे भी, वे एकदम नीरस और शुष्क थे. ऐसा दिखाया जाता है मानो हर मुद्दे पर दोनों में तीखा विरोध था. जबकि एक तटस्थ पड़ताल करने पर सच्चाई कुछ और ही दिखाई देती है.

जब गांधी की हत्या हुई थी तो घटनास्थल पर पहुंचने वालों में सबसे पहले व्यक्ति भीमराव अंबेडकर ही थे और प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक वे बहुत देर तक वहां रुके थे. हममें से बहुत से लोग इसे शिष्टाचार ही मानेंगे. लेकिन गांधी और अंबेडकर के बीच लगभग 20 वर्षों के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष संबंधों की बुनियाद में एक अद्भुत आत्मीयता और आपसी सहानुभूति मौजूद थी, जिसपर शायद ही कभी चर्चा होती है.

कुछ लोगों को आश्चर्य होगा कि लंबे समय तक महात्मा गांधी को यह मालूम नहीं था कि अंबेडकर स्वयं एक कथित ‘अस्पृश्य’ हैं. वह उन्हें अपनी ही तरह का एक समाज-सुधारक ‘सवर्ण’ नेता समझते नेता थे. अंबेडकर जिस विद्वता, बेबाकी और आत्मविश्वास से अपनी बात रखते थे, उसे देखते हुए तत्कालीन समाज में यह गलतफहमी कोई बहुत बड़ी नहीं थी. एक अप्रैल, 1932 को यर्वदा जेल में जब महादेव देसाई के साथ अंबेडकर के बारे में चर्चा चली तो गांधी जी का कहना था, ‘मैं इंग्लैंड गया, तब तक मुझे यह जानकारी नहीं थी कि अंबेडकर स्वयं ‘अछूत’ हैं. मैं यह समझता था कि वे ब्राह्मण हैं और इसलिए अस्पृश्यों के बारे में इतने अतिरेक से बोलते हैं.’

गांधी जी को संभवतः यही बताया गया था कि अंबेडकर ने विदेश में पढ़ाई कर ऊंची डिग्रियां हासिल की हैं और वे पीएचडी हैं. दलितों की स्थिति में सुधार को लेकर उतावले हैं और हमेशा गांधी की आलोचना करते रहते हैं. प्रथम गोलमेज सम्मेलन में अंबेडकर की दलीलों के बारे में जानकर भी उन्हें विश्वास हो चला था कि यह पश्चिमी शिक्षा और चिंतन में पूरी तरह ढल चुका कोई आधुनिकतावादी युवक है, जो भारतीय समाज को भी यूरोपीय नजरिए से देख रहा है. अंबेडकर ने साइमन कमीशन का सहयोग करके भी सबको नाराज कर दिया था. आमतौर पर किसी के भी बारे में पूर्वग्रह नहीं पालने वाले गांधी निश्चित तौर पर इस युवक के बारे में जाने-अनजाने थोड़े-बहुत पूर्वग्रह के शिकार हो चले थे.

इसलिए जब 14 अगस्त, 1931 को दोनों की पहली मुलाकात बंबई के मणि भवन में हुई, तो गांधी की स्वाभाविक सहजता और मिठास पर उनका पूर्वग्रह हावी हो चुका था. तीव्र विनोदी स्वभाव के गांधी आम तौर पर अपने विरोधियों से भी हास-परिहास के साथ ही मिलते थे. उनकी बातें इतनी आत्मीयता भरी होती थीं कि विरोधी भी उनके कायल हो जाते थे. लेकिन उस दिन गांधी की भाषा थोड़ी रूखी थी. उनके मुंह से पहला ही वाक्य निकला- ‘तो डॉक्टर, आपको इस बारे में क्या कहना है?’

और जैसा कि उम्मीद कर सकते हैं कि जब महात्मा गांधी जैसा एक बूढ़ा व्यक्ति इस रुखाई पर उतरा हो, तो अंबेडकर जैसे सुतीक्ष्ण युवा का जवाब कैसा होता. उन्होंने भी थोड़े तंज के साथ ही जवाब दिया- ‘आपने यहां मुझे आपकी अपनी बात सुनने के लिए बुलाया था. कृपा करके वह कहिए जो आपको कहना है. या आप चाहें तो मुझसे कोई सवाल पूछें और फिर मैं उसका जवाब दूं.’

आमतौर पर किसी के भी बारे में पूर्वग्रह नहीं पालने वाले महात्मा गांधी शुरुआत में युवा अंबेडकर के बारे में जाने-अनजाने थोड़े-बहुत पूर्वग्रह के शिकार हो चुके थे

इसके जवाब में गांधी का स्वर अप्रत्याशित रूप से और भी तल्ख हो चुका था. उन्होंने कहा- ‘मैं समझता हूं कि आपको मेरे और कांग्रेस के खिलाफ कुछ शिकायते हैं. लेकिन मैं आपको बताऊं कि अपने स्कूल के दिनों से ही मैं अस्पृश्यों की समस्या बारे में सोचता रहा हूं. तब तो आपका जन्म भी नहीं हुआ था. आपको शायद यह भी मालूम होगा कि इसे कांग्रेस के कार्यक्रम में शामिल कराने के लिए मुझे कितनी कोशिश करनी पड़ी. ...और यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि आप जैसे लोग मेरा और कांग्रेस का विरोध करते हैं. यदि आपको अपने रुख का औचित्य साबित करने के लिए कुछ कहना है तो खुलकर कहिए.’

जवाब में डॉ अंबेडकर की बातों में भी तल्खी और व्यंग्य साफ देखा जा सकता था. उन्होंने कहा- ‘महात्माजी, यह सच है कि जब आपने अछूतों की समस्या के बारे में सोचना शुरू किया तब मेरा जन्म भी नहीं हुआ था. सभी बूढ़े और बुजुर्ग लोग हमेशा अपनी उम्र की दुहाई देते हैं. यह भी सत्य है कि आपके कारण ही कांग्रेस ने इस समस्या को मान्यता दी. लेकिन मैं आपसे कहूंगा कि कांग्रेस ने इस समस्या को औपचारिक मान्यता देने के अलावा कुछ भी नहीं किया. आप कहते हैं कि कांग्रेस ने अछूतों के उत्थान पर बीस लाख रुपये खर्च किए. मैं कहता हूं कि ये सब बेकार गए. इतने सबसे तो मैं अपने लोगों के दृष्टिकोण में आश्चर्यजनक परिवर्तन ला सकता था. लेकिन इसके लिए आपको मुझसे बहुत पहले मिलना चाहिए था.’

इसके बाद और भी बातें हुईं और कहा जाता है कि इस दौरान माहौल तनावपूर्ण बना रहा. इस पूरी बातचीत में दोनों की तरफ से केवल एक बार ही मधुर बातें कहीं गईं. जब अंबेडकर ने भावावेश में कहा कि ‘गांधी जी सच में मेरी अपनी कोई मातृभूमि नहीं है’, तो जवाब में गांधी जी ने उन्हें दिलासा देते हुए कहा, ‘आपकी मातृभूमि है. गोलमेज परिषद् में आपके कार्य की रिपोर्ट मिली है. उससे मैं जानता हूं कि आप बेहतरीन देशभक्त हैं.’ वहीं बातचीत के अंत में जाते-जाते अंबेडकर ने गांधीजी को उनकी साफगोई के लिए धन्यवाद दिया.

जैसा कि हमने ऊपर चर्चा की है कि तब तक गांधीजी को स्वयं अंबेडकर के ‘अस्पृश्य’ होने वाली बात मालूम नहीं थी. इसलिए इस पहली मुलाकात के बाद जब गांधी जी को यह पता चला कि अंबेडकर जैसे प्रतिभाशाली युवक स्वयं ‘अस्पृश्य’ समुदाय से आते हैं और उन्हें अपने जीवन में कई बार इस अछूतपने का सामना करना पड़ा है, तो उनके प्रति गांधीजी का पूरा नजरिया ही बदल गया. और इसके बाद तो कई अवसरों पर उन्होंने खुलकर अंबेडकर का पक्ष लिया, उनकी सराहना की. कभी रुखाई से किया गया ‘डॉक्टर’ का संबोधन उन्होंने जारी रखा. बुलाते अब भी वे उन्हें ‘डॉक्टर’ कहकर ही थे, लेकिन अब वह एक आत्मीयतापूर्ण संबोधन में बदल गया था.

जब गांधी जी को यह पता चला कि अंबेडकर जैसे प्रतिभाशाली युवक स्वयं ‘अस्पृश्य’ समुदाय से आते हैं तो उनके प्रति गांधीजी का पूरा नजरिया ही बदल गया  

यह गांधी की साफगोई और सच्चाई थी जो अंबेडकर को बहुत प्रिय लगती थी और उन्होंने एकाधिक अवसर पर इसका जिक्र भी किया. जाति, वर्णाश्रम और धर्मांतरण जैसे प्रश्नों पर गांधी के विचार सुधारवादी थे जरूर, लेकिन वे भारतीय परंपरा में ही इसकी काट ढूंढ़ने का प्रयास करते थे. इसका कारण था कि वे समझते थे यदि भारतीय परंपरा में ही इसकी काट ढूढ़ ली जाएगी, तो घोर दकियानूसी मानसिकता वाले हिन्दू भी ऐसे परिवर्तनों को सहज ही स्वीकार कर लेंगे. इससे भारतीय समाज आपसी कलह, संघर्ष और टूटन से बच जाएगा.

जबकि अंबेडकर पूरी तरह से आधुनिक राजनीतिक संस्कृति को लागू करने की जल्दी में थे, जिसमें कुछ भी बुरा नहीं था. समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे से भला किसे ऐतराज हो सकता था? लेकिन दलितों और सवर्णों की जड़ता को वे कम करके आंक रहे थे, जबकि गांधी को उस जड़ता की ठीक-ठीक पहचान थी और सामाजिक हृदय-परिवर्तन के सहारे सांस्कृतिक स्तर पर ही उस जड़ता को हमेशा के लिए दूर करना चाहते थे. हम आज भी देख सकते हैं कि अत्यधिक आधुनिक मानवतावादी मूल्यों से भरे संविधान को व्यावहारिक रूप से सामाजिक स्तर पर अपना पाने में हमारा समाज कितना विफल रहा है. क्योंकि केवल कानूनी और राजनीतिक साधनों से सामाजिक जड़ता को दूर करना आसान नहीं होता है. तमाम कानूनों और संवैधानिक व्यवस्थाओं के रहते और तमाम राजनीतिक लामबंदी के बावजूद जातीय हिंसा, सांप्रदायिक हिंसा और अंधविश्वास थमने का नाम नहीं ले रहा है, बल्कि बढ़ ही रहा है.

लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर जैसे ही गांधी को पता चला कि अंबेडकर ने स्वयं अस्पृश्यता का दंश झेला है, उन्होंने अंबेडकर के हर आक्रोश को जायज ठहराया. 1935-36 में जब अंबेडकर ने हिन्दू धर्म छोड़ने और सामूहिक धर्मांतरण करने की धमकी दी, तो चार मार्च, 1936 को गुजरात के सावली गांव के एक कार्यक्रम में जमनालाल बजाज ने इस पर गांधी की राय पूछी. गांधी ने कहा- ‘डॉ अंबेडकर की जगह अगर मैं होता, तो मुझे भी इतना ही क्रोध आता. उस स्थिति में रहकर शायद मैं अहिंसावादी नहीं बनता. डॉ अंबेडकर जो कुछ करें हमें नम्रता से सहना चाहिए. इतना ही नहीं, बल्कि हरिजनों की सेवा इसी में है. अगर वे सचमुच हमें जूतों से मारें, तो भी हमें सहन करना चाहिए. पर उनसे डरना नहीं चाहिए. डॉक्टर अंबेडकर की कदमबोसी करके उन्हें समझाने की भी जरूरत नहीं है. इससे कुसेवा होगी. वे या अन्य हरिजन जो हिन्दू धर्म में विश्वास न रखते हों, वह यदि धर्मांतर करें तो वह भी हमारी शुद्धि का ही कारण होगा. हम इसी योग्य हैं कि हमारे साथ ऐसा व्यवहार हो.’

इसी तरह 21 मार्च, 1936 के ‘हरिजन’ में गांधी लिखते हैं, ‘जबसे डॉक्टर अंबेडकर ने धर्म-परिवर्तन की धमकी का बमगोला हिन्दू समाज में फेंका है, उन्हें अपने निश्चय से डिगाने की हरचन्द कोशिशें की जा रही हैं.’ यहीं गांधी जी आगे एक जगह लिखते हैं, ‘हां ऐसे समय में (सवर्ण) सुधारकों को अपना हृदय टटोलना जरूरी है. उसे सोचना चाहिए कि कहीं मेरे या मेरे पड़ोसियों के व्यवहार से दुखी होकर तो ऐसा नहीं किया जा रहा है. ...यह तो एक मानी हुई बात है कि अपने को सनातनी कहने वाले हिन्दुओं की एक बड़ी संख्या का व्यवहार ऐसा है जिससे देशभर के हरिजनों को अत्यधिक असुविधा और खीज होती है. आश्चर्य यही है कि इतने ही हिन्दुओं ने हिन्दू धर्म क्यों छोड़ा, और दूसरों ने भी क्यों नहीं छोड़ दिया? यह तो उनकी प्रशंसनीय वफादारी या हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता ही है जो उसी धर्म के नाम पर इतनी निर्दयता होते हुए भी लाखों हरिजन उसमें बने हुए हैं.’

गांधी की यही सच्चाई और साफगोई अंबेडकर को छूती थी. राजनीतिक विरोध और प्रतिक्रिया के बावजूद डॉक्टर अंबेडकर के हृदय में एक ऐसा कोना हमेशा कायम रहा जिसमें गांधी के प्रति अपार प्रेम और सहानुभूति थी  

गांधीजी डॉक्टर अंबेडकर की नाराजगी को पूरी तरह उचित मानते थे. लेकिन बार-बार कहते थे कि हिन्दुओं के व्यवहार के आधार पर हिन्दू धर्म का मूल्यांकन करना ठीक नहीं होगा, क्योंकि हिन्दू कहलानेवाले लोग वास्तविक हिन्दू धर्म से विमुख हो चुके हैं. 22 मार्च, 1936 को एमसी राजा को दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा- ‘डॉक्टर अंबेडकर के मन में कटुता पैदा होना बिल्कुल वाजिब है. जितना अपमान और तिरस्कार उनको सहना पड़ा है. उतने के बाद तो हममें से कोई भी क्यों न होता, उसके मन में कटुता और नाराजगी आ ही जाती. जब कटु होने और अपनी नाराजगी जाहिर करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है, तो फिर वह भी ऐसा क्यों न करें. मेरी राय में बस एक चीज जिसे वह समझ नहीं रहे हैं वह यह है कि इसके लिए जिम्मेदार हिन्दू लोग है, हिन्दू धर्म नहीं.’

उन्होंने आगे कहा, ‘सच्चे वर्ण की मेरी जो संकल्पना है उसका अब अस्तित्व नहीं रह गया है. विशुद्धतम हिन्दू धर्म की दृष्टि में (गीता के अनुसार) तो ब्राह्मण, चींटी, हाथी और श्वपच (कुत्ते का मांस खानेवाला) सभी का एक ही दर्जा है. और चूंकि हमारा दर्शन इतने उच्च धरातल का है, और चूंकि हम उस पर अमल नहीं कर पाए हैं, इसलिए वही दर्शन आज हमारे बीच सड़ांध पैदा करने में लगा है.’

गांधी की यही सच्चाई और साफगोई अंबेडकर को छूती थी. राजनीतिक विरोध और प्रतिक्रिया के बावजूद डॉक्टर अंबेडकर के हृदय में एक ऐसा कोना हमेशा कायम रहा जिसमें गांधी के प्रति अपार प्रेम और सहानुभूति थी. अंबेडकर को लगता था कि गांधी उनकी अपेक्षा और भी कठिन लड़ाई लड़ रहे हैं क्योंकि वे अपने ही सनातनी जड़तावादियों से उलझ रहे हैं और इस वजह से गांधी पर जानलेवा हमले तक (बाबासाहेब और महात्मा : अंबेडकर भी जानते थे कि दलितों के लिए लड़ रहे गांधी की जान दांव पर लगी है) हो रहे हैं.

डॉक्टर अंबेडकर और गांधी के इस आत्मीय संबंध के साक्षी रहे थे उद्योगपति वालचंद हीराचंद और सरदार पटेल. इन दोनों की जानकारी में गांधी और अंबेडकर के बीच संभवतः कुछ अनौपचारिक मुलाकातें भी हुई थीं. सेगांव (जो बाद में सेवाग्राम कहलाया) में गांधी और अंबेडकर की ऐसी ही एक मुलाकात का पता हमें महात्मा गांधी द्वारा लिखी गई दो चिट्ठियों से चलता है. एक चिट्ठी उन्होंने 28 अप्रैल, 1936 को मीराबहन को वर्धा से लिखी थी. इसमें लिखा था- ‘मुझे यहां रविवार को रहना ही पड़ेगा और अगर डॉक्टर अंबेडकर आएं तो एक और दो मई को भी रहना होगा.’ इसके बारे में मीराबहन ने लिखा है- ‘डॉक्टर अंबेडकर आए अवश्य, लेकिन वह बापू से सेगांव में पेड़ों की छांव में मिले.’ इस बात की तसदीक एक मई. 1936 को गांधीजी द्वारा सरदार पटेल को लिखी गई चिट्ठी से भी होती है, जिसमें वे लिखते हैं, ‘डॉक्टर (यानी अंबेडकर) और वालचंद सेगांव में मिले थे. वे फिर आएंगे.’

सात जुलाई, 1946 के ‘हरिजन’ में गांधी लिखते हैं, ‘यदि मेरा बस चले तो मैं अपने प्रभाव में आनेवाली सभी सवर्ण लड़कियों को चरित्रवान हरिजन युवकों को पति के रूप में चुनने की सलाह दूं’  

लगातार अपने अनुभवों के आधार पर अपने जीवन और विचारों का शोधन करते जानेवाले गांधी ने अंबेडकर से मिलकर भी बहुत कुछ सीखा था. अपने शुरुआती दिनों में अंतर्जातीय विवाह का विरोध करनेवाले गांधी ने बाद में इतना तक प्रण कर लिया था कि वे ऐसी किसी शादी में शरीक नहीं होंगे जिनमें लड़का या लड़की में से कोई एक दलित न हो. वे ऐसी शादियों का आयोजन अपने आश्रम तक में करवाते थे. सात जुलाई, 1946 के ‘हरिजन’ में वे लिखते हैं, ‘यदि मेरा बस चले तो मैं अपने प्रभाव में आनेवाली सभी सवर्ण लड़कियों को चरित्रवान हरिजन युवकों को पति के रूप में चुनने की सलाह दूं.’

गांधी जी के निधन के दो महीने बाद जब स्वयं डॉ अंबेडकर ने जाति से ब्राह्मण डॉ शारदा कबीर से विवाह किया, तो सरदार पटेल ने उन्हें पत्र में लिखा, ‘मुझे यकीन है कि यदि बापू आज जीवित होते, तो अवश्य ही उन्होंने आपको आशीर्वाद दिया होता.’ अंबेडकर ने जवाब में लिखा, ‘मैं आपकी बात से सहमत हूं कि यदि बापू जीवित होते, तो इसे अपना आशीष दिया होता.’

इस श्रृंखला की अगली प्रस्तुतियों में हम गांधी और अंबेडकर के जीवन के ऐसे ही कई और भी साझे पहलुओं को मानवीय और उदार नजरिए से देखेंगे. अब अंत में एक ऐसे संयोग का जिक्र जिससे गांधी और अंबेडकर के संबंधों का स्वरूप ही बदल सकता था. 14 अगस्त, 1931 को मणि भवन में गांधी और अंबेडकर की जिस तल्ख और तनावपूर्ण पहली मुलाकात की चर्चा हमने की है, उसके अगले ही दिन अंबेडकर और अन्य प्रतिनिधि द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए ‘एस.एस. मुलतान’ नामक जहाज से लंदन रवाना हो गए थे. गांधी भी उसी जहाज से जानेवाले थे. लेकिन ‘गांधी-इर्विन समझौते’ से जुड़े किसी स्पष्टीकरण के संबंध में गांधी को वायसराय से एक जरूरी मुलाकात करनी पड़ी. इस वजह से वे ‘एस.एस. मुलतान’ से नहीं जा सके.

बहुत से लोग मानते हैं कि यदि अंबेडकर और गांधी उस दिन एक ही जहाज से लंदन चले होते, तो एक-दूसरे को जानने के लिए और अपने बीच की गलतफहमियां दूर करने के लिए रास्ते में दोनों ही को भरपूर समय मिला होता. संभव है कि इससे द्वितीय गोलमेज सम्मेलन और पूना पैक्ट जैसे बाद के हंगामेदार इतिहास का फिर स्वरूप ही बदल गया होता. लेकिन जैसा कि हम जानते हैं कि ऐतिहासिक घटनाओं में ‘यूं होता तो क्या होता’ वाली कल्पनाओं का कोई स्थान नहीं होता.

फिर भी बाबासाहेब और महात्मा के आपसी संबंधों में आत्मीयता और सहृदयता की उष्मा इतनी अधिक मात्रा में मौजूद है कि इस कठिन समय में नई पीढ़ियों को भरपूर ऊर्जा और दिशा मिल सके.