बात हम वहीं से शुरू करेंगे जहां हमने इस श्रृंखला के पिछले आलेख (बाबासाहेब और महात्मा : जब अंबेडकर ने गांधी से कहा था, ‘आप हमारे हीरो बन जाएंगे यदि...’) में खत्म की थी. यानी पूना पैक्ट के बाद जब अंबेडकर ने गांधी से कहा था कि ‘यदि आप अपने आप को केवल दलितों के कल्याण के लिए समर्पित कर दें, तो आप हमारे हीरो बन जाएंगे.’ अंबेडकर की तरह के अन्य लोग भी थे, जो चाहते थे कि गांधी अपना सारा समय और जीवन दलितोद्धार में ही लगा दें. इसके जवाब में गांधी का जो कहना होता था, वह महादेव देसाई की डायरी में लिखा मिलता है, ‘मेरा जीवन जैसे अस्पृश्यता-उन्मूलन के लिए समर्पित है, वैसे ही दूसरी बहुत सी बातों के लिए भी समर्पित है. इनमें से एक है स्वराज्य. मैं अपने जीवन को एक-दूसरे से अलग कई विभागों में बांट नहीं सकता.’
अंबेडकर और गांधी की एक-दूसरे के प्रति गहरी सहानुभूति के कई कारण थे. एक संभ्रांत वैष्णव परिवार में जन्म लेने के बावजूद स्वयं गांधी को जातिवादी और जातीयतावादी भेदभाव का कई बार शिकार होना पड़ा था. उन्हें भी लगभग ऐसे ही अनुभवों से गुजरना पड़ा था, जिनसे तब के ‘अछूत’ गुजरते थे. बचपन में उनके घर मैला साफ करने आने वाले ऊका नाम के अछूत के बारे में वे अपनी मां से हमेशा कहते थे कि यह छूआछूत कभी धर्मसंगत नहीं हो सकती.

फिर स्वयं गांधी के जीवन में ही एक ऐसी घटना घटी जिसमें उन्हें ही अपनी जाति-बिरादरी से बाहर कर दिया गया था. मोहनदास करमचंद गांधी जब बैरिस्टरी की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड जा रहे थे, तो यह जानकारी मिलते ही बंबई में उनकी मोढ़ बनिया जाति में खलबली मच गई थी. इससे पहले कोई मोढ़ बनिया इंग्लैंड नहीं गया था. वे मानते थे कि समुद्र पार जाने से धर्म चला जाता है. तो ऐसे में सरपंच ने जाति पंचायत बुलाई. सभी पक्षों को सुनने के बाद उसने कहा, ‘यह लड़का आज से जातिच्युत माना जाएगा. जो कोई इसकी मदद करेगा या इसे विदा करने जाएगा, पंच उससे जवाब तलब करेंगे और उससे सवा रुपये दंड वसूला जाएगा.’
अस्पृश्यता-उन्मूलन संबंधी विचारों और अंबेडकर के साथ उनकी सहानुभूति की वजह से सनातनियों ने गांधी को पहले नंबर का दुश्मन घोषित कर रखा था
इसके बाद जब गांधी दक्षिण अफ्रीका गए, तो उन्हें कई बार ऐसे ही भेदभाव का शिकार होना पड़ा. इतना तक कि एक बार एक गोरे नाई ने उनकी हजामत बनाने से इंकार कर दिया. और इसके बाद पीटरमैरित्सबर्ग रेलवे स्टेशन पर जो उन्हें गोरों के हाथों भरपूर मार पड़ी थी, इसके बारे में हम सभी जानते हैं. यहां तक कि भारत में भी गुरुवायूर मंदिर में गांधी के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा था. बहुत से सनातनी उन्हें अछूत ही समझते थे और उन्हें हिन्दू धर्म को भ्रष्ट करनेवाला मानते थे. इसलिए एक कथित अछूत अपने जीवन में किस पीड़ा और आक्रोश से गुजरता होगा, इसका एहसास गांधी को स्वयं हो चुका था. और जैसे ही उन्हें पता चला था कि अंबेडकर स्वयं अछूत समुदाय से आते हैं, तो उन्होंने उनके हर गुस्से और आक्रोश को सर आंखों पर रखा.
गांधी भारत के कट्टर सनातनियों की जड़ता और विवेकहीनता को खूब अच्छी तरह समझते थे. 22 मार्च, 1936 को डिप्रेस्ड क्लासेज एसोसिएशन के एमसी राजा ने गांधी से पूछा था- ‘क्या अब भी अंबेडकर को वैसा ही तिरस्कार झेलना पड़ता है? वह तो पहले की बात रही होगी?’ इसके जवाब में गांधी ने कहा था, ‘उस प्रकार का तिरस्कार तो जरूर अब नहीं किया जाता; हां, लेकिन आज भी किसी सनातनी ब्राह्मण के घर में उनका स्वागत तो नहीं ही किया जाएगा.’
अस्पृश्यता-उन्मूलन संबंधी विचारों और अंबेडकर के साथ उनकी सहानुभूति की वजह से सनातनियों ने गांधी को पहले नंबर का दुश्मन घोषित कर रखा था. सात नवंबर, 1933 से दो अगस्त, 1934 तक लगातार दस महीने तक गांधी ने अस्पृश्यता मिटाने की एक लंबी यात्रा भारत में की. इसे गांधी के ‘हरिजन दौरा’ के नाम से जाना जाता है. बारह हजार पांच सौ मील की इस यात्रा में उन्होंने न केवल भरपूर जन-जागृति पैदा की, बल्कि हरिजन कल्याण कोष के लिए आठ लाख रुपये भी जमा किए.
गांधी की इस यात्रा से पूरे देश के कट्टरपंथी सनातनी हिंदू बौखला गए थे. उन्होंने गांधी पर झूठे व्यक्तिगत आरोपों की बौछार शुरू कर दी. गांधी के बारे में बेहूदे आरोपों और गालियों से भरे परचे छपवाकर बांटे जाने लगे. ये लोग सोचते थे कि ऐसा करके भारतीय जनमानस पर से गांधी का जादू समाप्त कर दिया जाएगा. (सोशल मीडिया पर आज भी बड़े पैमाने पर ऐसे दुष्प्रयास किए जाते हैं). गांधी के इस दौरे में शायद ही कोई ऐसा शहर बचा होगा, जहां सनातनियों ने उन्हें काले झंडे न दिखाए हों.
निश्चित तौर पर अंबेडकर गांधी पर हो रहे इन हमलों को देख रहे थे. वे समझ रहे थे कि गांधी की लड़ाई कितनी मुश्किल है और इसमें गांधी की जान भी दांव पर लगी हुई है
लेकिन हद तो तब हो गई जब पुणे के उग्र सनातनियों ने गांधी पर बम-विस्फोट जैसा जानलेवा हमला कर दिया. 19 जून, 1934 को जब गांधी पुणे स्टेशन पर पहुंचे, तो ‘गांधी वापस जाओ’ के नारे के साथ उन्हें काला झंडा दिखाया गया. पुणे के हरिजन दौरे में गांधी कई अच्छे कार्यक्रम हुए. लेकिन 25 जून की शाम को जिस कार से गांधी जानेवाले थे, उसपर किसी अज्ञात हमलावर ने बम फेंका. संयोग से गांधी उस कार में नहीं थे, लेकिन उस बम विस्फोट में दो कांस्टेबल समेत सात लोग बुरी तरह घायल हो गए. इस घटना पर गांधी ने कहा था, ‘मैं नहीं मानता कि आज शाम हुए पागलपन भरे कार्य के पीछे किसी समझदार सनातनी का प्रोत्साहन रहा होगा. फिर भी सनातनी मित्रों से कहूंगा कि वे अपनी ओर से बोलने वालों और लिखने वालों की भाषा को नियंत्रित करें. इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज की दुःखद घटना से हरिजन अभियान का लक्ष्य आगे बढ़ा है.’ गांधी पर हमले की एक और घटना लाहौर की है. यहां तो एक सनातनी उन्हें कुल्हाड़ी लेकर काटने दौड़ा, लेकिन इससे पहले की वह गांधी पर टूट पड़ता, उसे पकड़ लिया गया.
इस दौरे में गांधी का विरोध करनेवाले सनातनियों में एक पंडित लालनाथ का नाम बढ़-चढ़कर सामने आया. पांच जुलाई, 1934 को अजमेर में जिस मंच से गांधी बोलने वाले थे, उसी मंच पर चढ़कर लालनाथ ने हरिजन आंदोलन के विरोध में भाषण देना चाहा. इससे नाराज होकर किसी ने उनपर लाठी से हमला कर दिया. सभा में पहुंचने पर जब गांधी को इसकी जानकारी मिली, तो उन्होंने लालनाथ पर हमले की निंदा की और लालनाथ को अपनी बात कहने के लिए मंच पर बुलाया. प्रायश्चित्त के तौर पर गांधी ने सात दिन के उपवास की घोषणा की.
भिखु पारेख ने अपनी पुस्तक ‘कॉलॉनियलिज़्म- ट्रेडिशन एंड रिफॉर्म’ में इस दौरे में सनातनियों के पागलपन और विवेकहीनता से जुड़ी एक दिलचस्प घटना का वर्णन किया है. गांधी का यह दौरा 29 जुलाई, 1934 को वाराणसी में जब समाप्त हुआ तो एक युवक ने उन्हें काशी विश्वनाथ की ओर से जारी किया गया एक वारंट दिया. उसमें कहा गया था कि गांधी हमारे कोतवाल के सामने हाजिर हों. उन पर सनातन धर्म की अवज्ञा करने का मुकदमा चलाया जाएगा. गांधी ने जब उस युवक से वारंट जारी करनेवाले के बारे में पूछा तो उसने कहा, ‘मुझे भगवान् ने प्रेरणा दी है और कहा है कि मैं आपको गिरफ्तार करूं.’ गांधी ने पूछा, ‘फिर भगवान् मुझे इस वारंट का पालन करने के लिए प्रेरित क्यों नहीं कर रहे?’ इसपर युवक ने बड़ी तत्परता से उत्तर दिया, ‘क्योंकि आपने सनातन धर्म को तोड़ा है. आप पापी हैं.’ ये सवाल-जवाब चल ही रहे थे कि वहां बाबा कालभैरव नाम के सज्जन प्रकट हुए. उन्होंने गांधी से अपने दो फोटो देने के लिए कहा. गांधी ने कहा, ‘मैं तो अपने फोटो साथ लेकर नहीं चलता. वैसे भी मैं आपको अपना कोई फोटो नहीं दूंगा.’ तभी कोई सनातनी कहीं से गांधी का फोटो ले आया और उसे सबके सामने जलाकर बाबा कालभैरव ने अपना गुस्सा शांत किया.
गांधी को ‘दलित’ शब्द से परहेज नहीं था. लेकिन ‘हरिजन’ शब्द को वे थोड़ा अधिक सकारात्मक और सुंदर मानते थे
गांधी और अंबेडकर के अंतर्संबंधों पर गहन अध्ययन करनेवाले गणेश मंत्री ने इन घटनाओं के बारे में ठीक ही लिखा है, ‘निश्चय ही वह गांधी और उदारवादी विचारों से प्रेरित समाज-सुधारकों के लिए चुनौतियों का दौर था. बाबा कालभैरव पंडित लालनाथ व्यक्ति मात्र नहीं थे, न ही पुणे में गांधी की कार पर बम फेंकने की घटना सिर्फ किसी सिरफिरे की दिमागी कसरत थी; ये वारदातें भारतीय समाज और राजनीति में अपने को असहाय पा रहे धुर दक्षिणपंथियों की खीज की अभिव्यक्तियां थीं.’
निश्चित तौर पर अंबेडकर गांधी पर हो रहे इन हमलों को देख रहे थे. वे समझ रहे थे कि गांधी की लड़ाई कितनी मुश्किल है और इसमें गांधी की जान भी दांव पर लगी हुई है. जब पूना समझौता हुआ था, तो उनकी जिन शर्तों पर गांधी ने हस्ताक्षर किए थे, वे सनातनियों के खिलाफ जाती थीं. उस दौर के उदार सनातनियों को मनाने के लिए भी गांधी को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी. इसलिए अंबेडकर जानते थे कि भले ही पूना समझौता थोड़ी मात्रा में दलितों के तात्कालिक राजनीतिक हितों के खिलाफ जाता था, लेकिन सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से इसके जरिए गांधी ने सनातनियों से भारी दुश्मनी मोल ले ली थी.
वहीं दूसरी तरफ अंबेडकर की विद्वता और कार्यकुशलता से गांधी खासे प्रभावित थे और दिल खोलकर उनकी प्रशंसा करते थे. 10 जून, 1936 को कंगेरी में हरिजन सेवक सम्मेलन में अपने भाषण में गांधी ने अंबेडकर के बारे में कहा- ‘अब चित्र की उल्टी तरफ देखिए. उदाहरण के लिए डॉ अंबेडकर को ही ले लें. वे दलित जाति के कहे जाते हैं और उन्हें अस्पृश्य माना जाता है. बुद्धि में वे हजारों बुद्धिमान और सुशिक्षित सवर्ण हिंदुओं से कहीं ऊंचे हैं. वे हममें से किसी से भी कम स्वच्छ नहीं रहते.
‘... आज वे कानून के विख्यात व्याख्याता हैं. हो सकता है कि कल आप उन्हें उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर देखें. दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि ऐसा कोई भी सरकारी ओहदा इस देश में नहीं है जिसे एक सनातनी ब्राह्मण हासिल कर सकता हो और डॉ अंबेडकर चाहें तो उसे न पा सकें. पर किसी कट्टर ब्राह्मण को अगर डॉ अंबेडकर छू लें, तो वह उनके स्पर्श से अपवित्र हो जाएगा. उनका अक्षम्य अपराध (सनातनियों की नज़र में) यही है कि उन्होंने एक महार (अस्पृश्य) परिवार में जन्म लिया है.’
‘हरिजन’ साप्ताहिक के प्रथम अंक में ही गांधी ने ‘डॉक्टर अंबेडकर और जाति’ शीर्षक से एक लेख लिखकर अपने और उनके बीच हुए प्रश्नोत्तर को प्रकाशित किया था
उपरोक्त टिप्पणी से पता चलता है कि गांधी को ‘दलित’ शब्द से परहेज नहीं था. लेकिन ‘हरिजन’ शब्द को वे थोड़ा अधिक सकारात्मक और सुंदर मानते थे. 27 मार्च, 1936 को कुछ आर्य-समाजी हरिजन-सेवकों ने गांधी से पूछा- ‘पर लोग हमें हरिजन क्यों कहें, हिन्दू क्यों नहीं?’ इसके जवाब में गांधी ने कहा, ‘मैं जानता हूं कि आपमें से कुछ थोड़े से लोगों को ‘हरिजन’ नाम बुरा लगता है. पर इस नाम की उत्पत्ति आपको जान लेनी चाहिए. आपलोगों को पहले ‘दलितवर्ग’ या ‘अस्पृश्य’ या ‘अछूत’ कहा जाता था. ये सब नाम स्वभावतः आपमें से अधिकांश लोगों को बुरे लगते थे, अपमानजनक से मालूम होते थे. आपमें से कुछ लोगों ने इस पर अपना विरोध भी प्रकट किया और मुझे एक अच्छा सा नाम ढूंढ़ने के लिए लिखा. अंग्रेजी में ‘डिप्रेस्ड’ से बेहतर शब्द ‘सप्रेस्ड’ मैंने ले लिया था, पर जबकि मैं अच्छा हिंदुस्तानी नाम सोच रहा था, एक मित्र ने मुझे ‘हरिजन’ शब्द बतलाया.
‘.... यह शब्द उन्होंने एक महान संत (नरसिंह मेहता) के भजन से लिया था. यह शब्द मुझे जंच गया. क्योंकि यह आपकी दीन-दशा को बड़ी अच्छी तरह व्यक्त करता था, और साथ ही, इसमें कोई अपमान जैसी बात भी नहीं थी. ‘हरि का भक्त’ यह हरिजन शब्द का अर्थ है और चूंकि हरि असहायों का सहायक है, और असहाय ही स्वभावतः हरि की शरण लेते हैं, इसलिए मैंने देखा कि मेरे जैसों की अपेक्षा यह आपलोगों के लिए अधिक उपयुक्त है. क्योंकि मुझे तो हरिजन बनने की अभी अभिलाषा ही है, और आपलोग तो स्वभाव से ही हरिजन हैं. पर इसपर आप कहेंगे कि ‘जब आपका लक्ष्य ही हरिजनों को हिन्दू बनाने का है, तो उन्हें सीधे हिन्दू क्यों नहीं कहते?’ जब तक मुझे अस्पृश्यता दूर करने में मुझे सफलता नहीं मिलती, तब तक मैं और क्या कर सकता हूं?’
इसके जवाब में एक हरिजन-सेवक ने एक दिलचस्प और जरूरी प्रश्न किया था, ‘पर आज तो यह नाम तिरस्कार के अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है. एक ब्राह्मण को यदि हम हरिजन कहते हैं, तो वह हमें पीटने की धमकी देता है.’ इस पर गांधी का जवाब भी दिलचस्प और दो-टूक था, ‘तब वह ब्राह्मण नहीं है. आपको मालूम है कि तुलसीकृत रामायण में हरिजन शब्द आया है. परशुराम से लक्ष्मण सच्चे क्षत्रिय के चरित्र का वर्णन करते हुए कहते हैं : सुर महिसुर हरिजन अरु गाई. हमरे कुल इन्ह पर न सुराई..’ ‘हरिजन’ का अर्थ यहां भगवान का जन, भगवान का भक्त है, चाहे वह किसी भी जाति या वर्ण का हो. हरिजन शब्द का यह सुंदर अर्थ हम सभी को हृदयंगम करना होगा, और अपने को इस नाम के योग्य बनाने का प्रयत्न भी करना होगा.’ (हरिजन, 4 अप्रैल, 1936)
गांधी ने अंबेडकर के बारे में लिखा था, ‘डॉ अंबेडकर के मन में बहुत कटुता है. ऐसा अनुभव करने के लिए उनके पास समुचित कारण हैं’
इसी भावना से गांधी ने 11 फरवरी, 1933 से ‘हरिजन’ नाम से एक साप्ताहिक का प्रकाशन भी शुरू किया था. इसके प्रथम अंक में प्रकाशन के लिए गांधी ने अपनी हाल की मुलाकात में डॉ अंबेडकर से व्यक्तिगत रूप से एक संदेश लिखने का आग्रह किया था. जवाब में कोई बड़ा आलेख भेजने के बजाय उन्होंने शिकायती लहजे में जवाब लिखा, ‘मुझे लगता है कि मैं कोई संदेश नहीं लिख सकता. कारण, मुझे लगता है कि मेरे लिए यह मान बैठना अनुचित साहस की बात होगी कि हिन्दुओं की नजर में मेरा इतना महत्व है कि वे मेरे किसी संदेश का आदर करेंगे. मैं तो केवल मनुष्य से मनुष्य के नाते अपनी बात कह सकता हूं. इसलिए शायद यही वांछनीय होगा कि हिन्दुओं के सामाजिक संगठन (जाति) की महत्वपूर्ण समस्या को आपने अपने हाथ में लिया है, उसके संबंध में हिन्दुओं को मेरे विचारों की जानकारी हो जाए.’
इसके बाद उन्होंने संक्षेप में अपना यह वक्तव्य लिख भेजा, ‘अछूत लोग जातिप्रथा की उपज हैं. जब तक जातियां हैं तब तक अछूत भी रहेंगे. जातिप्रथा का नाश हुए बिना अछूतों की मुक्ति संभव नहीं है. हिन्दू धर्म में जब तक इस घृणित और पापपूर्ण सिद्धांत का उन्मूलन नहीं किया जाता, तब तक आने वाले संघर्ष में हिन्दुओं को कोई चीज बचा नहीं सकती और यह धर्म जिंदा नहीं रह सकता.’
‘हरिजन’ साप्ताहिक के प्रथम अंक में ही गांधी ने ‘डॉक्टर अंबेडकर और जाति’ शीर्षक से एक लेख लिखकर इस प्रश्नोत्तर को प्रकाशित किया. अन्य बातों के अलावा गांधी ने इसमें लिखा, ‘डॉ अंबेडकर के मन में बहुत कटुता है. ऐसा अनुभव करने के लिए उनके पास समुचित कारण हैं. उन्होंने उदार शिक्षा प्राप्त की है. औसत शिक्षित भारतीय में जितनी प्रतिभा और बुद्धि होती है, उससे अधिक प्रतिभा और बुद्धि उनमें है. भारत के बाहर आदर और स्नेह से उनका स्वागत किया जाता है. परंतु भारत में हिन्दुओं के बीच पग-पग पर उन्हें यह स्मरण कराया जाता है कि वे हिन्दू समाज के अछूतों में से एक हैं.’
यहां उल्लेखनीय है कि जब लाहौर के जाति-पाति तोड़क मंडल मंडल ने जातिप्रथा के अंत पर अंबेडकर को अपना प्रसिद्ध भाषण नहीं पढ़ने दिया था, तो गांधी ने इस घटना पर 11 जुलाई, 1936 को ‘हरिजन’ में लिखा, ‘डॉ अंबेडकर ने जैसा भाषण तैयार किया था उससे कम की उनसे उम्मीद ही नहीं की जा सकती थी. लेकिन लगता है कि समिति ने एक ऐसे व्यक्ति के मौलिक विचार सुनने से जनता को वंचित कर दिया जिसने समाज में अपना एक अद्वितीय स्थान बना लिया है. भविष्य में चाहे वह कोई भी बाना धारण करें, मगर वे ऐसे आदमी नहीं हैं जिन्हें यह गवारा हो कि लोग उन्हें भूल जाएं...’
सामाजिक और राजनीतिक अंधेरा जब-जब गहराएगा, तब-तब आगे के रास्ते का थाह पाने के लिए गांधी के हाथ में पड़ी अहिंसारूपी लाठी और अंबेडकर के हाथ में पड़ी ज्ञानप्रकाशरूपी किताब दोनों की ही जरूरत होगी
‘...डॉ अंबेडकर स्वागत समितियों से यों हार जानेवाले नहीं थे. उसके इन्कार के जवाब में उन्होंने उस भाषण को अपने ही खर्चे से प्रकाशित किया है. उन्होंने उसकी कीमत आठ आने रखी है. लेकिन मैं उनसे कहूंगा कि वे उसे घटाकर दो आने या कम से कम चार आने कर दें तो ठीक होगा. यह एक ऐसा भाषण है कि कोई सुधारक इसकी उपेक्षा नहीं कर सकता. रूढ़िग्रस्त लोग भी इसे पढ़कर लाभ ही उठाएंगे.’ हालांकि इस लेख में गांधी ने अंबेडकर के विचारों में कुछ कमियों की ओर भी ध्यान दिलाया था.’
अंत में हम गांधी और अंबेडकर के बीच के एक आत्मीयतापूर्ण प्रसंग से ही इस आलेख को समाप्त करेंगे. पूना पैक्ट या यर्वदा जेल में गांधी और अंबेडकर के बीच हुआ ऐतिहासिक समझौता ही एक ऐसा बिंदु है जिसपर गांधी और अंबेडकर दोनों के कट्टर समर्थक उलझते रहते हैं और आक्रामक टीका-टिप्पणी करते रहते हैं. लेकिन ऐतिहासिक रूप से गांधी और अंबेडकर दोनों ने ही इस मौके पर अद्भुत उदारता और दूरदर्शिता का परिचय दिया था.
उपवास में जान चले जाने की बात पर ‘हिंदू’ अखबार के संवाददाता को गांधी ने कहा था, ‘हिन्दुओं को उनके सदियों के पाप का दंड देने के लिए अंबेडकर अपनी बात पर अड़े रह सकते थे. अगर उन्होंने ऐसा किया होता, तो मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं होती. लेकिन उन्होंने उदारता का रुख लिया और क्षमा का अनुसरण किया, जिसका सभी धर्मों में प्रावधान है. मैं उम्मीद करता हूं कि सवर्ण हिन्दू अपने को इस क्षमा के पात्र सिद्ध करेंगे और समझौते का, उसके तमाम निहितार्थों के साथ, शब्दशः और भावतः पालन करेंगे.’
इन बातों से अंबेडकर को स्पष्ट लगने लगा था कि जातिप्रथा, वर्णव्यवस्था और अस्पृश्यता-निवारण जैसे मुद्दों पर गांधी के विचारों में बदलाव आता जा रहा था. इस पर अंबेडकर ने निस्संकोच होकर कहा था, ‘अब गांधी को अपना आदमी कहना चाहिए. कारण, वे अब हमारी भाषा और हमारे विचार बोलने लगे हैं.’
गांधी और अंबेडकर के संबंधों को क्या हम ऐसे प्रसंगों के माध्यम से भी समझना चाहेंगे? मौजूदा वैमर्शिक वातावरण में तो प्रतिक्रियावाद का बोलबाला ही हमें ज्यादा दिखाई देता है. लेकिन इससे निराश होने की जरूरत नहीं है. महान व्यक्तियों का जीवन महज एक साधन होता है महान विचारों को समझने का और आत्मसात करने का. भविष्य का भारतीय समाज और वैश्विक समाज जब-जब ऐसे मानवीय विचारों को उदारतापूर्वक अपनाने का प्रयास करेगा, तो अतीत के प्रसंगों में गांधी और अंबेडकर सितारों की तरह टिमटिमाते नजर आएंगे ही. अंधेरे में रास्ते का थाह पाने के लिए हमें टेकने के लिए लाठी और देखने के लिए प्रकाश की जरूरत होती है. सामाजिक और राजनीतिक अंधेरा जब-जब गहराएगा, तब-तब आगे के रास्ते का थाह पाने के लिए गांधी के हाथ में पड़ी अहिंसारूपी लाठी और अंबेडकर के हाथ में पड़ी ज्ञानप्रकाशरूपी किताब दोनों की ही जरूरत होगी.
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